उत्तराखंड में 63 साल के किसान सुरेश बहुगुणा ने उजाड़ पड़ी जमीनों पर लहलहा दी फसलें
रेलवे से सेवानिवृत्ति के बाद सुरेश बहुगुणा ने झीलवाला में बंजर खेतों को संवार दिया
राजेश पांडेय। न्यूज लाइव
देहरादून के झीलवाला गांव के अधिकतर खेतों पर आबादी को बसाने की तैयारी हो रही है। यहां कॉलोनियां बनाने के लिए प्लाटिंग की जा रही है और खेत अपना वजूद खोते जा रहे हैं। अनुमान है कि आने वाले दस वर्ष में झीलवाला गांव खेती के लिए कम, कॉलोनियों के लिए ज्यादा जाना जाए। यहां खेती पर संकट की वजह सिंचाई के लिए पानी की कमी और जंगली जानवरों की आवाजाही को बताया जा रहा है।
पर, इन सब चुनौतियों के बीच, एक अच्छी खबर भी है। यहां रेलवे से सेवानिवृत्त सुरेश बहुगुणा खेती बचाने के लिए बड़ी पहल करते दिखते हैं। बहुगुणा डांडी गांव के रहने वाले हैं। डांडी गांव देहरादून जिला में है और ऋषिकेश रोड पर रानीपोखरी से लगभग दो किमी. दूर है। झीलवाला भी ऋषिकेश मुख्य मार्ग से लगा हुआ गांव है।
करीब 63 वर्षीय बहुगुणा बताते हैं कि रेलवे में सेवा के दौरान झीलवाला में करीब दस बीघा भूमि पर ध्यान नहीं दे पाए। उपजाऊ होने के बाद भी उनकी भूमि उजाड़ थी। यहां बड़ी बड़ी झाड़ियां उग गई थीं। पास ही जंगल से जानवरों का आना जाना लगा रहता था। उनकी जमीन झीलवाला गांव के सबसे अंतिम सिरे पर है, इसलिए यहां कोई आता जाता भी नहीं था।
“दिसंबर 2018 में रिटायर्डमेंट के बाद, मैं यहां पहुंचा तो जमीन की हालत देखकर दुख हुआ। गांव में कई लोग अपनी जमीनों को प्लाटिंग के लिए बेच रहे थे। यहां काफी जमीन बिक गई थी। लोगों ने मुझे भी सलाह दी कि यहां खेती नहीं हो सकती, पानी नहीं है, जानवर खेती को नुकसान पहुंचा रहे हैं, जमीन बेचकर फायदा होगा। पर, मैंने भविष्य को देखते हुए निर्णय लिया कि कुछ भी हो, कितना ही जोखिम क्यों न हो, यहां खेती ही करूंगा,” बहुगुणा बताते हैं।
उजाड़ भूमि को इस तरह बनाया खेती के लायक
यहां झाड़ियों का कटान किया, पत्थरों को हटवाया। श्रमिकों और जेसीबी की मदद से इस भूमि को खेती के लायक बनाया। बड़ा कठिन परिश्रम करना पड़ा, पर परिणाम सुखद रहा। यहां पनवाड़, गाजर घास इतना अधिक था, अभी तक उखाड़ता रहता हूं। रही बात, जंगली जानवरों से सुरक्षा की, तो हमने पूरी भूमि की सोलर फेंसिंग कराई।
पानी के लिए ट्यूबवैल लगवाया। यहां लगभग साढ़े तीन सौ फीट गहराई में पानी मिला। ट्यूबवैल के लिए बिजली के लिए लगभग डेढ़ किमी. दूर से लाइन खिंचवाई। पानी और बिजली पर लगभग साढ़े सात लाख रुपये खर्च हुए, जिसमें से विभाग से एक लाख रुपये का अनुदान प्राप्त हुआ। सोलर फेंसिंग, ट्यूबवैल, रहने के लिए एक कमरा सहित सभी इंतजामों पर अब तक लगभग 22 लाख रुपये से ज्यादा खर्च हो गए। सेवानिवृत्ति पर मिला पैसा यहां खर्च कर दिया, क्योंकि कृषि में भविष्य की बड़ी संभावनाएं दिखती हैं। जब अन्न ही नहीं रहेगा तो कितना भी पैसा क्यों न हो, किसी काम का नहीं है।
” शुरुआत में लगा था कि बड़ा जोखिम उठा लिया है, पर अब महसूस होता कि अच्छा कार्य किया है, क्योंकि यहां खेती में बहुत संभावनाएं हैं। यदि मैं लोगों की सलाह पर काम करता तो अपनी जमीन से हाथ धो लेता और फिर पछताने के सिवाय कुछ नहीं था। आज अपने खेतों में फसलों को लहलहाते हुए देखता हूं तो बड़ी खुशी होती है,” सुरेश बहुगुणा कहते हैं।
उनके खेतों में मकान उग रहे, हमारे खेतों में अनाज
बहुगुणा बताते हैं, उनके खेतों में दलहन, तिलहन, गेहूं और सब्जियों की पैदावार को देखकर अब वो लोग पछता रहे हैं, जिन्होंने अपनी जमीनें बेच दी हैं। वो कहते हैं, उनकी जमीनों में मकान उग रहे हैं और हमारे यहां आपके, हमारे खाने के लिए अनाज और दालें। बताते हैं, जब मैंने यहां खेती शुरू की, तो यहां काफी चर्चा रही। लोग देखने आए। कई लोगों से सुना, वो कहते हैं बड़ी गलती की है, खेत बेचकर। लोगों की समझ में बात आ रही है। अच्छी बात है, कृषि को लेकर सोच में बदलाव आ रहा है। कई लोग, जिन्होंने जमीन नहीं बेचीं, सोलर फेंसिंग लगा रहे हैं।
ब्लैक राइस की खेती का प्रयोग करेंगे
कृषक बहुगुणा बताते हैं, उनको खेती करते हुए तीन साल हुए हैं। खेती की तकनीकी जानकारी के लिए यूट्यूब देखते हैं और कृषि के जानकार लोगों से बात करते हैं। वो रिस्क उठाने से नहीं घबराते। यदि कहीं कोई गलती होती भी है तो वो भी सबक है, अनुभव है। यहां ब्लैक राइस (Black Rice) हो सकता है। ब्लैक राइस नॉर्थ ईस्ट में उगाया जाता है, जो डायबिटीज के रोगियों के लिए अच्छा बताया जाता है। इसके बीज की ऑनलाइन खरीद करुंगा। पहले करीब आधा या एक बीघा पर उगाकर देखेंगे, सही परिणाम रहा तो इसको ज्यादा उगाएंगे। फिर ब्लैक राइस को ऑनलाइन बेचने का प्लान है।
खेती में बेहतर विकल्प हैं- दलहन और तिलहन
जब हम स्कूल में पढ़ते थे, उस समय इन्हीं खेतों में उड़द की दाल उगाई जाती थी। डांडी, रानीपोखरी, झीलवाला गांवों में इतनी उड़द होती थी कि देहरादून से व्यापारी यहीं खेतों में पहुंच जाते थे। हम अब भी उड़द सहित अन्य दालें बो सकते हैं। हमने अरहर बोई थी, लगभग एक कुंतल पैदावार हुई, जो गांव में ही डेढ़ सौ रुपये प्रति किलो के हिसाब से बिक गई। लोगों ने शुरू में खाने के लिए एक या दो किलो खरीदी, जब उनको स्वादिष्ट लगी तो ज्यादा खरीदारी की। अभी करीब आधा बीघा में चना बोया है, जिसके लिए ब्लाक (कृषि विभाग से) से पांच किलो बीज लाए थे। इसमें ज्यादा मेहनत भी नहीं लगी। उम्मीद है कि पैदावार अच्छी होगी।
कुछ माह पहले तोड़िया (सरसो) काटकर गेहूं बोया है। तोड़िया से घर में इस्तेमाल के लिए शुद्ध खाद्य तेल मिलता है। घर का तेल है, एकदम शुद्ध है, बाजार में बिकने वाले तेल की गारंटी नहीं ली जा सकती।
बहुगुणा बताते हैं, उन्होंने पिछली बार धान बोया था, जिसमें नुकसान हुआ। ज्यादा बारिश होने से फसल खराब हुई। अब मैं धान नहीं बोऊंगा। यहां दलहन और तिलहन पर ही फोकस करेंगे। इस समय मसूर भी बोई है, जो सिर्फ घर में ही इस्तेमाल के लिए है। अब वो ही फसलें बोएंगे, जिनमें प्रोफिट हो।
झीलवाला और झिलंगा दाल
झीलवाला नाम क्यों पड़ा, जबकि इस क्षेत्र में एक भी झील नहीं थी। यहां तो पानी भी काफी गहराई में मिलता है। रानीपोखरी से सटे इस इलाके में उड़द और झिलंगा दालों का उत्पादन होता था। पर,अब यहां झिलंगा दाल के जानकार कम ही होंगे।
झिलंगा दाल, नौरंगी दालों की एक किस्म है। बीज आंदोलन के प्रणेता विजय जड़धारी की पुस्तक उत्तराखंड में पौष्टिक खानपान की संस्कृति में रानीपोखरी में उड़द की दाल की पैदावार और नौरंगी दाल की किस्म झिलंगा का जिक्र मिलता है।
उनके अनुसार, एक जमाने में रानीपोखरी की जमीन में पैदा होने वाली उड़द की दाल प्रसिद्ध थी, लेकिन वहां अब बहुमंजिले कंकरीट के ‘जंगल’ उगने से इन प्रजातियों पर संकट आ गया है।
पुस्तक में जिक्र है, विविध आकर्षक नौ रंगों में उगने वाली नौरंगी दाल की बनावट पर यदि नजर डालें तो यह 20-25 किस्मों में दिखाई देगी। इसे रेस, रैयांस, तित्रया दाल व झिलंगा आदि कई नामों से जाना जाता है। अंग्रेजी में इसे राइसबीन कहते हैं। पोषण के मामले में नौरंगी दाल, उड़द और मूंग से भी बेहतर है। इसमें अच्छा प्रोटीन पाया जाता है। साथ ही, इसमें राजमा, उड़द व मूंग की तुलना में अधिक रेशा होता है। इसमें एंटी ऑक्सीडेंट की क्षमता है।
इलाके में सबसे ज्यादा गेहूं की पैदावार
करीब 63 वर्षीय सुरेश बहुगुणा ने दस में से आठ बीघा में गेहूं बोया है। काफी हिस्से में उन्होंने समय पर गेहूं बो दिया था, जिसे करीब एक सप्ताह में काट लेंगे। कुछ हिस्से में तीन माह पहले तोड़िया कटने के बाद गेहूं बोया था, जिसकी बालियां अभी हरी हैं।
बताते हैं, क्षेत्र में इस बार पिछले साल के मुकाबले गेहूं कम हुआ है। खेतों को समय पर पानी नहीं मिलना इसकी वजह है। हालांकि उनके पास खुद का ट्यूबवैल है, इसलिए समय पर पानी दिया है, यहां उत्पादन सही होने की उम्मीद है। पिछली बार उन्होंने पूरे क्षेत्र में प्रति बीघा सबसे ज्यादा लगभग पौने चार कुंतल गेहूं प्राप्त किया। जबकि इस क्षेत्र में प्रति बीघा ढाई कुंतल तक गेहूं मिल पाता है।
जरूरत के समय नहीं, बरसात में आता है नहर में पानी
झीलवाला में सिंचाई के लिए भोगपुर से आनी वाली नहर है,जिसमें जाखन नदी पर बनी सूर्याधार झील से पानी आता है। बहुगुणा बताते हैं, पहले गांव तक पानी पहुंचता था। यहां प्लाटिंग होने से गूल कई जगह टूट गई। गर्मियों में जब खेती को पानी की आवश्यकता होती है, पानी नहीं मिलता। इसकी वजह भोगपुर नहर के बागों को गर्मियों में पानी दिया जा रहा है। बरसात में सिंचाई विभाग हमारी नहर में इतना पानी छोड़ देता है कि आसपास की सड़कें टूट गईं। टूटी हुई गूल की ओर किसी का ध्यान नही है। वो बताते हैं, यहां एक सरकारी ट्यूबवैल है, जिसका पानी सिंचाई और पेयजल में इस्तेमाल होता है। गांव में खेती के लिए एक और सरकारी ट्यूबवैल की आवश्यकता है।
खेती के लिए श्रमिक नहीं मिलते
सुरेश बहुगुणा बताते हैं, बेरोजगारी की समस्या नहीं है। खेतों में काम करने के लिए लेबर नहीं मिल रही। 500 रुपये दिहाड़ी है, तब भी कोई काम नहीं करता। सरकार फ्री का राशन उपलब्ध करा रही है, इसलिए लोगों की श्रम करने में रूचि कम हो रही है।
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