राजेश पांडेय। न्यूज लाइव ब्लॉग
“पहाड़ पर बचपन बीता, इसलिए वहां रहने की कठिनाइयों को बहुत नजदीक से देखा और अहसास किया है। पौड़ी में हमारा स्कूल घर से दूर था। ऊंची खड़ी चढ़ाई पार करना रोज का काम था। यहीं कोई छठी-सातवीं कक्षा की बात है। जब भी स्कूल से घर जाते हुए थक जाता, तो रास्ते में एक पत्थर पर बस्ते को सिरहाना बनाकर कई बार सो जाता था। धारे के पानी में मुंह हाथ धोकर थकान भी मिटाई और उसमें बालपन में छपाक-छपाक करने का आनंद भी उठाया।”
पौड़ी गढ़वाल के मसोगी डबरालस्यूं के रहने वाले करीब 65 साल के रिटायर्ड प्रिंसिपल प्रदीप डबराल डुग डुगी के साथ अपने बचपन के किस्सों को साझा कर रहे थे। कहते हैं, “संघर्ष तो था, उस समय लोगों के पास उतना पैसा भी नहीं होता था। हम चप्पलों में स्कूल जाते थे। वो भी बर्फबारी इलाके में, वहां तो आज भी बर्फ पड़ती है।”
“सभी बच्चे ऐसे ही स्कूल जाते थे। शूज किसी के पास ही होते थे। मुझे याद है, मेरी चप्पल बर्फ में कहां धंस गई, पता ही नहीं चला। मैं काफी देर तक चप्पल ढूंढता रहा, पर नहीं मिली। बर्फ में एक पैर में चप्पल पहनकर ही घर लौटा। जीवन कष्टमय था, पर आज जितनी आपाधापी नहीं थी। लोग फिर भी खुश थे।”
प्रदीप डबराल, 2019 में एसजीआरआर इंटर कॉलेज भाउवाला, देहरादून से 2019 में सेवानिवृत्त हुए थे। 2016 में आपको शिक्षा के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया गया। आप 2006 से 2010 तक उत्तराखंड माध्यमिक शिक्षक संघ के प्रदेश अध्यक्ष भी रहे और विभिन्न मंचों पर शिक्षकों की मांगों को उठाया। उत्तराखंड विद्यालयी शिक्षा परिषद में 2013 से 2021 तक सदस्य रहे डबराल जी ने उत्तराखंड राज्य निर्माण आंदोलन में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
एक और किस्सा साझा करते हैं, “पिताजी ने घर में कमरे की दुछत्ती में गुड़ की कुछ भेलियां रखी थीं। एक-एक करके इन भेलियों को इस्तेमाल में लाते थे। मुझे मीठा खाने का शौक था। गुड़ बहुत प्रिय था। आपको तो मालूम ही है कि भेलियां गोलाई में चपटाकार होती हैं। मैं चोरी छिपे गुड़ खाने के लिए भेली से एक टुकड़ा तोड़ लेता था और उसका साबुत वाला हिस्सा सामने की ओर कर देता था, ताकि किसी को पता न चले। यह शरारत सिर्फ मैं ही करता था।”
“एक-एक करके मैंने लगभग सभी भेलियों में इसी तरह टुकड़े निकालकर खाए थे। एक दिन पिताजी ने दुछत्ती से भेली निकाली तो उन्हें पता चल गया। फिर क्या था, हम सभी भाई बहनों ने जमकर डांट खाई। गलती मैंने की थी, पर डांट सभी को पड़ी।”
डबराल जी ने कोरोना संक्रमण काल के समय से साहित्यिक गतिविधियों से जुड़े और आपने समसामायिक मुद्दों पर अपनी कलम चलाई। आपकी रचनाएं भावुक करती हैं और संवेदनाओं को जगाती हैं। आपकी दो पुस्तकें सिमटा कोलाहल, जो कोविड काल की परिस्थितियों और चुनौतियों को रेखांकित करती है। वहीं दूसरी किताब भारत महिमा में देश के गौरवमयी इतिहास और प्रेरणास्रोत व्यक्तित्वों के बारे में काव्य रचनाओं के माध्यम से बताया गया है।
जल्द ही आपकी एक पुस्तक प्रकाशित होने वाली है, जो खासकर विद्यालयी शिक्षा में आपके अनुभवों और दशा एवं दिशा पर आधारित है। यह पुस्तक कुछ ऐसे तथ्यों को उजागर करने वाली है, जिन पर खास कार्य नहीं हुआ। ये तथ्य आंखें खोलने का काम करेंगे, जो यह बताएंगे कि हकीकत क्या है और आंकड़ें कहां हैं।
कहते हैं, “इस समय शिक्षकों की सबसे बड़ी डिमांड यह है कि “हमें पढ़ाने दो।” कोई भी सरकार हो, राजकीय विद्यालयों को अपने प्रचार प्रसार की एजेंसी के रूप में समझती है। हिसाब लगाएं तो स्कूलों का मात्र 25 फीसदी समय ही बच्चों के हिस्से आ रहा है। शिक्षक पढ़ाना चाहते है, पर उनकी सेवाएं अन्य सरकारी गतिविधियों में ली जाती हैं।”
उत्तराखंड आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले प्रदीप डबराल ने उत्तराखंड राज्य की स्थाई राजधानी के सवाल और भू कानून पर अपनी बात रखी। कहते हैं, “झारखंड, छत्तीसगढ़ के साथ अस्तित्व में आए उत्तराखंड के साथ अन्याय हुआ है। झारखंड और छत्तीसगढ़ को राजधानी मिल गईं, पर उत्तराखंड को नहीं। राजधानी पहाड़ पर होती तो वहां का विकास होता। 23 साल में भी हम अपनी स्थाई राजधानी मांग रहे हैं।”
N.E.P. 2020- National Education Policy 2020, राष्ट्रीय शिक्षा नीति का गहन अध्ययन करने वाले रिटायर्ड प्रिंसिपल प्रदीप डबराल इससे जुड़ीं उन खास बातों का जिक्र करते हैं, जो विद्यार्थियों के हित में हैं और उनको व्यावसायिक प्रशिक्षण से जोड़ती हैं। इसके साथ ही, उन्होंने शिक्षा के लिए कम बजट की व्यवस्था पर चिंता जाहिर की।
प्रदीप डबराल जी से पूरी वार्ता के लिए देखें यह वीडियो-