राजेश पांडेय। न्यूज लाइव
” मेरी बेटी तान्या का स्कूल यहां से करीब आठ किमी. दूर है। गांव में अब हमारा परिवार ही रहता है। तान्या को स्कूल के लिए अकेले ही जंगल वाले रास्ते से होकर नहीं जाने दे सकते, इसलिए मैं उसको नाहींकलां गांव तक छोड़ने जाती हूं। वहां से तान्या, अन्य बच्चों के साथ स्कूल जाती है।
नाहीकलां यहां से चार किमी. है और नाहीकलां से सिंधवाल गांव का हाईस्कूल भी लगभग इतनी ही दूरी पर है। तान्या को सुबह नाहीकलां छोड़ना, वहां से घर आना और फिर शाम को उसको लेने नाहीकलां जाना प्रतिदिन का काम है। कुल मिलाकर 16 किमी. चलना पड़ता है”, पार्वती देवी हमें बिटिया की शिक्षा के लिए अपने प्रयासों की जानकारी देती हैं।
पार्वती देवी बड़कोट गांव में रहती हैं, जो उत्तराखंड की डोईवाला विधानसभा क्षेत्र का हिस्सा है। उत्तराखंड में विधानसभा चुनाव हो रहे हैं, पर इस गांव में कोई शोर नहीं सुनाई देता। राजधानी से सिर्फ 30 किमी. दूर होने के बाद भी यह गांव चुनाव की हर गतिविधि से दूर है। यहां के लोग, रोजगार और शिक्षा के लिए पलायन कर गए। यहां केवल जयराज सिंह मनवाल का परिवार ही रहता है। जब हम गांव में पहुंचे, तब जयराज जी, देहरादून गए थे। घर पर उनकी पत्नी पार्वती देवी और बिटिया तान्वी मिले।
पार्वती बताती हैं, अब तो यहां उनका परिवार ही रहता है। बाकी सब लोगों ने थानो या अन्य स्थानों पर घर बना लिए। अब तो वो लोग कभी कभार ही गांव आते हैं। यहां सुविधाएं नहीं हैं, हो सकता है, एक दिन हम भी यहां से पलायन कर जाएं।
उनकी बिटिया तान्या कक्षा दस में पढ़ती है। उसका स्कूल गांव से लगभग आठ किमी. दूर है। मां पार्वती उसको प्रतिदिन लगभग चार किमी. दूर नाहीकलां तक छोड़ने जाती हैं और फिर वहां से तान्या अन्य बच्चों के साथ स्कूल पहुंचती है। स्कूल तक का पूरा रास्ता जोखिमभरा है। रास्ते में पड़ने वाले जंगली नाले, गदेरे खूब डराते हैं।
हमने नाहीकलां से बड़कोट तक के रास्ते को मौके पर जाकर देखा। संकरे रास्ते के एक तरफ पहाड़ और दूसरी तरफ खाई है। घने जंगल से होकर गुजरने वाले इस रास्ते में जगह-जगह गदेरे हैं, जो बरसात में उफान पर होते होंगे। रास्ते को बहने से बचाने के लिए पहाड़ से गिरे पत्थरों को काटकर बिछाया गया है। यहां चूना पत्थर के पहाड़ भी हैं। वहीं, नाहींकलां गांव से सिंधवालगांव तक का रास्ता भी बहुत खराब है। बरसात में खाला आ जाता है, रास्ता टूट जाता है।
पार्वती बताती हैं, सुबह तान्या को नाहीकलां तक छोड़कर घर आती हूं। घर के कामकाज, पशुओं के लिए चारा, खेतीबाड़ी के काम निपटाकर शाम को उसे लेने फिर नाहींकलां जाना पड़ता है। नाहींकलां तक जाने में उनको एक घंटा लगता है। रोजाना चार घंटे वहां आने जाने में लग जाते हैं। यह क्रम उस समय से चल रहा है, जबसे तान्या ने पढ़ाई शुरू की है।
कुल मिलाकर एक महीने (26 दिन) में पार्वती बेटी को पढ़ाने के लिए 416 किमी. पैदल चलती हैं और उनको लगभग डेढ़ सौ घंटे यानी (सवा छह दिन) का समय लगता है। यह दूरी देहरादून से दिल्ली के एक चक्कर के समान है।
हमने उनसे कहा, “आप तो प्रतिदिन 16 किमी. पैदल चलती हैं, आपको हमारा सलाम” पर उनका कहना था, क्या करें। बच्चों को तो पढ़ाना ही है। बेटी को अकेले स्कूल नहीं भेज सकते, जंगल में भालू और बघेरे (गुलदार) का खतरा रहता है। रास्ता बहुत खराब है।
उन्होंने बताया, इस बार सोच रहे हैं कि तान्या को ओपन बोर्ड से पढ़ाया जाए, ताकि स्कूल जाने में हो रही दिक्कतें कम हो जाएं। ओपन बोर्ड में घर बैठकर ही पढ़ाई हो जाएगी। सिंधवाल गांव का स्कूल हाईस्कूल तक ही है, इसके बाद थानो इंटर कालेज में जाना होगा, जो घर से करीब 10-11 किमी. है। वहां तक भी पैदल ही जाना होगा।
तान्या बताती हैं, पढ़ाई रेगुलर हो तो ज्यादा अच्छा होता है, पर हमारे गांव तक सड़क नहीं है। सड़क होती तो मैं साइकिल से अपने स्कूल जाती। ओपन बोर्ड की जगह स्कूल जाकर पढ़ाई करती। बरसात में तो उनके गांव से नाहींकलां तक जाना मुश्किल और जोखिम वाला काम है। रास्ता टूट जाता है। गदेरे में बहुत पानी होता है। उसको पार करना मुश्किल है। जरा सा भी संतुलन बिगड़ने का मतलब, सीधे खाई में गिरना है।
” स्कूल तक जाने में बहुत दिक्कते हैं। भालू, बघेरे का डर रहता है। बरसात में पैरों में जौंक चिपक जाती हैं। अपनी पढ़ाई जारी रखने के लिए सरकार से अपने गांव बड़कोट तक सड़क और बिजली चाहती हूं। गांव तक सड़क बन जाती तो स्कूल जाना आसान हो सकता है। मैं साइकिल से भी स्कूल जा सकूंगी। यहां बिजली नहीं होने से बहुत दिक्कतें होती हैं। तान्या, दसवीं की छात्रा, बड़कोट गांव
नाहीकलां तक का रास्ता जंगल से होकर गुजरता है। मां के साथ स्कूल जाते समय रास्ते में कई बार भालू, बघेरा दिखाई दिया। शुक्र है, हम बच गए। यहां आसपास जंगल है, इसलिए जानवर आते जाते रहते हैं। ये जानवर घर के आंगन तक पहुंच जाते हैं।
वहीं, पार्वती देवी का कहना है, वो मानते हैं कि एक बच्चे के लिए बड़कोट गांव में स्कूल नहीं खोला जा सकता, पर बच्चों की पढ़ाई को जारी रखने की कोई तो व्यवस्था होगी।
हमने उनसे पूछा, यदि सरकार आवासीय विद्यालय में बिटिया का एडमिशन कर दे तो क्या आप अनुमति देंगे। उनका जवाब था, जब वहां और भी बच्चे रहेंगे, तो हमारी बेटी भी वहां रहकर पढ़ाई करेगी, यह तो अच्छी बात है।
वहीं, सिंधवाल गांव निवासी भूषण तिवारी बताते हैं, उनके गांव का विद्यालय छह से दसवीं क्लास तक है। इसके बाद बच्चे थानो के राजकीय इंटर कालेज में जाते हैं। नाहींकलां से थानो इंटर कालेज करीब छह-सात किमी. है। पूरा रास्ता कच्चा है और गांववालों ने बनाया है। रोड कब बनेगी, नहीं पता। बच्चों को लगभग एक किमी. से ज्यादा जंगल से होकर थानो जाना पड़ता है। बरसात में हालत बहुत खराब होती है। स्कूल की छुट्टी करनी पड़ती है।
यह बहुत दुखद स्थिति है कि बच्चों को पढ़ाई के लिए प्रतिदिन 16-16 किमी. पैदल चलना पड़ रहा है। उत्तराखंड में सरकारी व्यवस्थाओं के नाम पर स्वास्थ्य एवं शिक्षा दो सेक्टर ऐसे हैं, जहां 22 साल बाद भी कुछ ज्यादा नहीं हो पाया, जबकि राज्य निर्माण की मूल अवधारणा है कि पर्वतीय क्षेत्रों को शिक्षा, स्वास्थ्य एवं आजीविका संवर्धन की दृष्टि से विकसित किया जाए। पर, अभी तक दो-दो बार सत्ता में रह चुके राजनीतिक संगठन एक दूसरे की घेराबंदी इन्हीं मुद्दों पर कर रहे हैं। जब एजुकेशन ही नहीं रहेगी, जब सेहत ही नहीं रहेगी, तो फिर बचा क्या। बच्चे पढ़ना चाह रहे हैं, पर सरकार के पास विकसित तंत्र नहीं है। लोग शहरों की तरफ जा रहे हैं, वहां निजी स्कूलों में एजुकेशन बहुत महंगी है। एसएमए काजमी, मुख्य संपादक द नार्दर्न गजट
दृष्टिकोण समिति के संस्थापक मोहित उनियाल कहते हैं, भौगोलिक परिस्थितियां कैसी भी हों, स्कूल चाहे कितना भी दूर हो, लेकिन हम हार मानकर तो नहीं बैठ सकते। क्या सरकार के पास ऐसा कोई मॉडल नहीं है, ऐसा कोई विचार नहीं है, जो दुर्गम गांवों में रहने वाले बच्चों को उसी तरह शिक्षा से जोड़ सकें, जैसा कि अन्य बच्चे पढ़ रहे हैं। रोजाना आठ से दस किमी. चलकर स्कूल पहुंचने वाले बच्चों को स्कूल के पास ही आवासीय सुविधा दी जाए।
” बच्चों की शैक्षणिक एवं व्यक्तित्व विकास की गतिविधियों को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए, न कि बच्चों को रोजाना कई किमी. पैदल चलाना चाहिए। बच्चों को डिजीटल लर्निंग से जोड़ सकते हैं। एजुकेशन के लिए काम कर रहीं सिविल सोसाइटीज को प्रोत्साहित करें, ताकि पहाड़ के दूरदराज के बच्चों को उनके घर पर पढ़ाया जा सके। इन बच्चों और गांवों के लिए कॉरपोरेट को आगे आना चाहिए। घर बहुत दूर हैं, हर जगह स्कूल नहीं खोल सकते, बच्चों को इतनी दूर तो जाना ही पड़ेगा…, कहकर जिम्मेदारी से नहीं बचा जा सकता, मोहित उनियाल कहते हैं।”
सिमलास ग्रांट के पूर्व प्रधान उमेद बोरा बड़कोट गांव जाने वाले रास्ते पर कहते हैं, प्रदेश की राजधानी से 30 किमी. दूरी पर ही ऐसे हालात हैं, दूरस्थ पर्वतीय जिलों का अनुमान आसानी से लगा सकते हैं।
यहां आज भी आजादी से पहले जैसे हालात हैं। उन्हें तो लगता है, आजादी के समय यहां बहुत लोग रहते होंगे। चहल-पहल होगी, पर अब तो पलायन ने गांव ही खाली कर दिए। उनका कहना है कि जब हम बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ का नारा देते हैं, तो इसका लाभ हर बिटिया तक पहुंचना चाहिए।… जारी