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जर्नलिज्म का रियल टाइम-2

1997 में मेरठ वाले अखबार देहरादून से प्रकाशित होने लगे। अब तो देर रात तक की कवरेज सुबह के अखबार में दिखने लगी। हालांकि काफी समय तक डेस्क मेरठ में ही थीं। देहरादून सिटी संस्करण छपने तक संपादकीय टीम के वरिष्ठ रिपोर्टर की ड्यूटी प्रेस में होती थी, ताकि रिपोर्टर की भेजी सूचना को लिखा जा सके। उस समय तक अधिकतर रिपोर्टर के पास मोबाइल फोन नहीं थे। उनको पीसीओ से खबरें लिखानी पड़ती थीं।
एक और मजेदार बात यह कि प्रिंटिंग देहरादून में शुरू हो गई और रिपोर्टर्स से अपनी खबरों को खुद टाइप करने के लिए कहा गया। कंप्यूटर रूम अलग था, जिसमें जूता पहनकर प्रवेश की अनुमति नहीं थी। उस समय यह मिथक था कि जूतों की धूल कंप्यूटर को खराब कर देगी। इसके पास आप आलपिन तक नहीं ले जा सकते। सभी रिपोर्टर राइटिंग पैड से हटकर टाइपिंग पर आ गए।
1999 में हिमाचल प्रदेश में अखबार का पदार्पण था। उस समय अन्य कई अखबारों के पत्रकारों को खबरें भेजने के लिए पोस्ट आफिस से फैक्स करने पड़ते थे। मुझे याद है एक फैक्स के 35 रुपये चार्ज होते थे। यह सुविधा शाम पांच बजे के बाद नहीं थी। कुछ अखबार वाले लोक संपर्क अधिकारी के दफ्तर से भी इस सुविधा का लाभ उठा लेते थे। शाम को मैंने मंडी जिले के पोस्ट आफिस में फैक्स भेजने के लिए पत्रकारों को लाइन में खड़े देखा। सिस्टम इंस्टाल होने से पहले ,मैं भी खबरों को पोस्टआफिस वाली लाइन में लगकर चंडीगढ़ भेजता था।
खैर, मैं जिस अखबार में काम करता था, उसने कंप्यूटर,मॉडम, लैंडलाइन फोन,  स्कैनर की सुविधा उपलब्ध करा दी थी। मंडी जिले में हमारे दफ्तर को देखने के लिए एडिशनल डिप्टी कमिश्नर अपने स्टाफ के साथ आए थे। उन्होंने मुझसे समाचार भेजने के पूरी तकनीक को समझा था। हमारे पास मोबाइल फोन नहीं था। हमारे दफ्तर का फोन का प्रतिमाह का बिल लगभग नौ हजार रुपये था। दफ्तर में फोन लगवाने के लिए बड़ी मुश्किलें झेली थीं। तकनीकी के प्रयोग से हम खबरों और फोटो में सबसे आगे थे, इसलिए एक नया अखबार सबको पीछे छोड़ता गया।
वर्ष 2000 की बात होगी, मैं ऋषिकेश में तैनात था। जिस क्षेत्र में हमारा दफ्तर था, वहां पूरे दिन, पूरी रात इलेक्ट्रिसिटी नहीं थी। हमें अपने कंप्यूटर सिस्टम को लेकर उस इलाके में जाना पड़ा, जहां बिजली थी।  खबरों को वहां टाइप किया गया, लेकिन वहां टेलीफोन लाइन नहीं थी। हमारे सामने टाइप खबरों और कुछ फोटो को ऋषिकेश से देहरादून भेजने की चुनौती थी। हमने तय किया कि सीपीयू को ही देहरादून भेज दिया जाए।
मैं रात करीब नौ बजे ऋषिकेश से देहरादून सीपीयू लेकर रवाना हुआ। इस तरह दूसरे दिन के अखबार में ऋषिकेश की खबरों को पढ़ा सके। वर्तमान में मीडिया के पास एडवांस सॉफ्टवेयर हैं, जो खबरों को क्लिक करते ही फोटो, वीडियो सहित पूरी दुनिया में लाइव कर देते हैं। उस समय समस्या का समाधान हो या न हो, पर उनकी बात अखबार में छप जाए, इस आस को लेकर अखबारों के दफ्तरों में बड़ी संख्या में लोगों को आते जाते देखा था। अखबारों ने भी उनको पूरा सम्मान दिया।
एक एक खबर में बीस से ज्यादा नाम तो मैंने खुद विज्ञप्तियों से उतारकर खबरों में लिखे। अक्सर कहा जाता था कि नाम मत काटना, क्योकि दूसरे दिन लोग अखबार में अपना नाम तलाशेंगे। ऐसा होता भी था कि नाम कटने का मतलब शिकायत। बदलते दौर में माध्यम और संसाधनों के बढ़ने से सूचनाओं की संख्या और प्रसारण की गति में तेजी आई है। ऐसे में खासकर प्रिंट से जुड़े पत्रकारों के सामने सूचनाओं की छंटनी का सवाल है, क्योंकि उनके पास स्पेस की कमी बड़ी दिक्कत है। ऐसी स्थिति में अखबार उन सूचनाओं या खबरों को प्राथमिकता देते हैं, जो ज्यादा से ज्यादा लोगों के हितों को प्रभावित करती हैं।
मीडिया मार्केंटिंग की लिस्ट को प्राथमिकता देने में भी काफी स्पेस चला जाता है। ज्यादा तव्वजो नहीं मिलने पर समाज के कई मंचों ने अपनी बात को प्रकाशित और प्रसारित कराने के लिए सोशल मीडिया को बड़ा माध्यम बनाया है। अब हर किसी ने अपना मीडिया स्थापित कर दिया है।
अब सोशल मीडिया पर पत्रकारिता को आगे बढ़ाने का दारोमदार आ गया है। सोशल मीडिया पर निर्भरता तो बढ़ी है पर यह सूचनाओं का विश्वस्त माध्यम नहीं है। एक सीनियर रिपोर्टर ने सोशल मीडिया पर पोस्ट एक अफवाह को अखबार की वेबसाइट पर लाइव करा दिया था। जबकि रिपोर्टर को सोशल मीडिया पर चल रही इस भ्रामक सूचना की पुष्टि करनी चाहिए थी। बाद में अखबार की वेबसाइट से खबर को हटाया गया। माना कि रियल टाइम रिपोर्टिंग में सोशल मीडिया टेक्नोलॉजी का योगदान बहुत अहम है, लेकिन इसकी सूचनाओं के इस्तेमाल में अत्यधिक सावधानी और अधिकारिक सूत्रों से पुष्टि की आवश्यकता है।
टेक्नोलॉजी का एक और फायदा, अधिकतर रिपोर्टर फील्ड में रहने के दौरान ही अपनी खबरों को ऑनस्क्रीन कर लेते हैं। वॉयस टाइपिंग एप उनका काफी समय बचा रहे हैं। खबर और फोटो व्हाट्सएप से भेज दिया। दफ्तर अगर देर से भी आए तो चलेगा। गूगल सर्च से पूर्व की घटनाओं और आंकड़ों की जानकारी ली जा सकती है,यह खबरों के वैल्यू एडिशन में काफी मददगार होता है। इंटरनेट पर खबरों को डेवलेप करने के लिए आइडिया की भरमार है। अभी के लिए बस इतना ही….।

Rajesh Pandey

उत्तराखंड के देहरादून जिला अंतर्गत डोईवाला नगर पालिका का रहने वाला हूं। 1996 से पत्रकारिता का छात्र हूं। हर दिन कुछ नया सीखने की कोशिश आज भी जारी है। लगभग 20 साल हिन्दी समाचार पत्रों अमर उजाला, दैनिक जागरण व हिन्दुस्तान में नौकरी की, जिनमें रिपोर्टिंग और एडिटिंग की जिम्मेदारी संभाली। बच्चों सहित हर आयु वर्ग के लिए सौ से अधिक कहानियां एवं कविताएं लिखी हैं। स्कूलों एवं संस्थाओं के माध्यम से बच्चों के बीच जाकर उनको कहानियां सुनाने का सिलसिला आज भी जारी है। बच्चों को कहानियां सुनाने, उनसे बातें करने, कुछ उनको सुनने और कुछ अपनी सुनाना पसंद है। रुद्रप्रयाग के खड़पतियाखाल स्थित मानव भारती संस्था की पहल सामुदायिक रेडियो ‘रेडियो केदार’ के लिए काम करने के दौरान पहाड़ के गांवों की अनकही कहानियां लोगों तक पहुंचाने का प्रयास किया। सामुदायिक जुड़ाव के लिए गांवों में जाकर लोगों से संवाद करना, विभिन्न मुद्दों पर उनको जागरूक करना, कुछ अपनी कहना और बहुत सारी बातें उनकी सुनना अच्छा लगता है। ऋषिकेश में महिला कीर्तन मंडलियों के माध्यम के स्वच्छता का संदेश देने की पहल की। छह माह ढालवाला, जिला टिहरी गढ़वाल स्थित रेडियो ऋषिकेश में सेवाएं प्रदान कीं। बाकी जिंदगी की जी खोलकर जीना चाहता हूं, ताकि बाद में ऐसा न लगे कि मैं तो जीया ही नहीं। शैक्षणिक योग्यता: बी.एससी (पीसीएम), पत्रकारिता स्नातक और एलएलबी संपर्क कर सकते हैं: प्रेमनगर बाजार, डोईवाला जिला- देहरादून, उत्तराखंड-248140 राजेश पांडेय Email: rajeshpandeydw@gmail.com Phone: +91 9760097344

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