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तो ये दाग अच्छे हैं…

करीब एक साल पहले मैं कुछ बच्चों को पढ़ाता था। इनमें क्लास छह का एक बच्चा ऐसा भी था, जो हमेशा कोई न कोई बहाना बनाता और महीने में दस दिन गायब रहता। सही तरह से लिखने में तो उसको मानो कोई परेशानी हो रही थी। अक्षरों की शेप बदलने में उसको आनंद आता था। अगर मैं आपको यह न बताऊं कि यह कॉपी किसी बच्चे की है, तो आप उसकी राइटिंग देखकर कहेंगे कि किसी वृद्ध ने कांपते हुए हाथ से लिखी है। गणित से उसका बहुत ज्यादा वास्ता नहीं था। हिंदी, अंग्रेजी के क्या कहने। अपने सामने लिखने के लिए कहता, तो वह तीन लाइन लिखने में तीन पेन बदलता। उसका बाक्स पेन से भरा रहता, लेकिन एक भी काम का नहीं होता। कॉपी पर शुरू की चार लाइन लिखने के बाद दो लाइन काटी होतीं। शब्द लाइनों के बीच में होने की बजाय ऊपर नीचे टंगे रहते।

उसकी कॉपी पर एक खास बात जो मुझे नजर आती, वह थी अक्षरों को किसी कार्टून सी शक्ल देने की कोशिश। वह कोई भी अक्षर लिखता और फिर उसको किसी ओऱ शेप में बदलने के चक्कर में पेज पर स्याही के दाग छोड़ देता। ये दाग अच्छे हो सकते हैं, अगर इस बच्चे की इस कोशिश को राह दिखा दी जाए। कॉपी के आखिरी पेज को देखा तो वहां कार्टून बनाने की कोशिश साफ नजर आती। कई तरह की आकृतियां बनाई थीं उसने। इन आकृतियों का उसके सेलेबस से कोई वास्ता नहीं था। उसके पैरेंट्स भी नहीं चाहते थे कि वह कॉपी और किताबों पर ये बेवजह की शेप उकेरे। इस बच्चे की मां से बात की तो उनका कहना था कि यह पढ़ाई में मन नहीं लगाता। इसको क्लास पास करने लायक ही बना दो।

मैंने उसके घर के आसपास रहने वाले बच्चों से पूछा कि यह छुट्टी के दिन क्या करता है। मुझे बताया गया कि यह बच्चा घर के पास नदी और जंगल से लकड़ी के छोटे-छोटे टुकड़े इकट्ठे करता है या फिर खेलने में व्यस्त रहता है। घर में डांट के डर से पढ़ाई केवल होमवर्क निपटाने तक ही सीमित है। लकड़ी के टुकड़ों को काटने, छीलने में उसको आनंद आता है। मैंने इस बच्चे से बात की। उसने बताया कि उसको लकड़ी के टुकड़ों में कोई न कोई आकृति दिखती है। वह इन टुकड़ों को अपने हिसाब से लुक देना चाहता हूं, लेकिन वह यह काम नहीं कर पाता। घर में यह काम करूंगा तो पिटाई का डर है। घर के लोग हमेशा पढ़ने पर जोर देते हैं, जो मुझे अच्छी नहीं लगती। मैंने कहा कि मम्मी सही तो कहती हैं कि पढ़ाई करो। छुट्टी के दिन में आप यह काम कर सकते हो। उसने बताया कि जब उसको लकड़ी के टुकड़े काटने, छीलने से मना किया जाता है तो वह कॉपी पर अपने मन के अनुसार चित्र बनाता रहता है। मुझे पढ़ना अच्छा नहीं लगता।

यहां एक बात मेरी समझ से परे है कि यह बच्चा कहां जाए। वर्षों पुराना एजुकेशन सिस्टम छात्र-छात्राओं को नौकरी के लिए तैयार करने वाली मशीन की तरह काम कर रहा है। स्कूल से लेकर कॉलेज तक के छात्रों के दिमाग में केवल एक बात फिट की जा रही है कि ज्यादा से ज्यादा नंबर लाकर अच्छी से अच्छी नौकरी हासिल करनी है। नौकरी वही अच्छी है, जिसमें तनख्वाह ज्यादा हो। स्पर्धा बढ़ती जा रही है और तनाव व अवसाद के मामले भी।

क्या हम बच्चों को 12वीं और ग्रेजुएशन के बाद ही वह मौका देना चाहते हैं, जिसकी मांग उसने क्लास 6,7 मे ंरहने के दौरान की थी। क्या बच्चों की रूचि और प्रतिभा को उनके छोटी क्लास में रहने के समय ही नहीं पहचान लिया जाना चाहिए। अगर यह बच्चा लकड़ी के टुकड़ों में अपने इमेजिनेशन को दिखाना चाहता है तो उसको मौका क्यों नहीं मिलना चाहिए। यह ठीक है कि पढ़ाई भी जरूरी है, लेकिन क्या पढ़ाई पूरी करने तक इस बच्चे को अपनी रूचि वाले सकारात्मक कार्यों से दूर रखा जाना चाहिए।

अपनी पढ़ाई के दौरान हमें क्रिएटिविटी के नाम पर आर्ट पेपर पर आम, सेब, अंगूर, साड़ी का डिजाइन, फर्श का डिजाइन, शब्दों को कलात्मक तरीके से लिखने, दो से आठ रंग वाले गोले बनाने के अलावा ज्यादा कुछ सीखने और करने का मौका नहीं मिलता था। मैं तो आर्ट और डिजाइन से दूर रहता था। मुझे कुछ न कुछ इधर, उधर की बातें लिखने का शौक था, लेकिन किसी ने मुझे कोई सलाह नहीं दी। उस समय मेरे आसपास रहने वाले लोगों को शायद नहीं मालूम था कि क्या करना चाहिेए। आज का दौर सूचना तकनीकी का है। कम से कम हम बच्चों के पैरेंट्स को सही रास्ता तो बता सकते हैं। स्कूलों को अपनी इस भूमिका से मुंह नहीं मोड़ना चाहिए। इसमें सरकार का रोल भी अहम है।

फिलहाल वह बच्चा क्लास 7 में पढ़ रहा है। ठीक उसी अंदाज में जैसे पहले था। हालांकि लकड़ियों को नई शेप और लुक देने का उसकी कोशिश स्कूल और होमवर्क के बीच दब गई है। वह अब नदी और जंगल के किनारे से लकड़ियों के छोटे टुकड़े इकट्ठे करने नहीं जाता। बहुत पहले घर के पीछे बनाई छोटी सी अनियोजित वर्कशाप को उसका इंतजार है। वह तो आज भी पहले की तरह कॉपी के आखिरी पेज पर अक्षरों को नई नई शेप देने में व्यस्त है। उसका इमेजिनेशन कागज से बाहर आकर लकड़ियों के टुकड़ों को नया लुक कब देगा, मुझे नहीं पता, शायद उसे भी नहीं।

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Rajesh Pandey

उत्तराखंड के देहरादून जिला अंतर्गत डोईवाला नगर पालिका का रहने वाला हूं। 1996 से पत्रकारिता का छात्र हूं। हर दिन कुछ नया सीखने की कोशिश आज भी जारी है। लगभग 20 साल हिन्दी समाचार पत्रों अमर उजाला, दैनिक जागरण व हिन्दुस्तान में नौकरी की, जिनमें रिपोर्टिंग और एडिटिंग की जिम्मेदारी संभाली। बच्चों सहित हर आयु वर्ग के लिए सौ से अधिक कहानियां एवं कविताएं लिखी हैं। स्कूलों एवं संस्थाओं के माध्यम से बच्चों के बीच जाकर उनको कहानियां सुनाने का सिलसिला आज भी जारी है। बच्चों को कहानियां सुनाने, उनसे बातें करने, कुछ उनको सुनने और कुछ अपनी सुनाना पसंद है। रुद्रप्रयाग के खड़पतियाखाल स्थित मानव भारती संस्था की पहल सामुदायिक रेडियो ‘रेडियो केदार’ के लिए काम करने के दौरान पहाड़ के गांवों की अनकही कहानियां लोगों तक पहुंचाने का प्रयास किया। सामुदायिक जुड़ाव के लिए गांवों में जाकर लोगों से संवाद करना, विभिन्न मुद्दों पर उनको जागरूक करना, कुछ अपनी कहना और बहुत सारी बातें उनकी सुनना अच्छा लगता है। ऋषिकेश में महिला कीर्तन मंडलियों के माध्यम के स्वच्छता का संदेश देने की पहल की। छह माह ढालवाला, जिला टिहरी गढ़वाल स्थित रेडियो ऋषिकेश में सेवाएं प्रदान कीं। बाकी जिंदगी की जी खोलकर जीना चाहता हूं, ताकि बाद में ऐसा न लगे कि मैं तो जीया ही नहीं। शैक्षणिक योग्यता: बी.एससी (पीसीएम), पत्रकारिता स्नातक और एलएलबी संपर्क कर सकते हैं: प्रेमनगर बाजार, डोईवाला जिला- देहरादून, उत्तराखंड-248140 राजेश पांडेय Email: rajeshpandeydw@gmail.com Phone: +91 9760097344

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