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Video- उत्तराखंडः यमुना की झील में डूब रहे लोहारी गांव की कहानी

गांववालों ने कहा, हमें पता था गांव एक दिन डूब जाएगा, पर अपने साथ इस व्यवहार की उम्मीद नहीं थी

राजेश पांडेय। न्यूज लाइव

उत्तराखंड की राजधानी देहरादून से 65 किमी. दूर सरकारी स्कूल का लगभग 36 साल पुराना भवन खंडहर हो चुका है, जिसमें लोहारी गांव के कई परिवारों को शरणार्थी जीवन गुजारना पड़ रहा है। पूरे जौनसार बावर में प्रसिद्ध पर्व बिस्सू मनाया जा रहा है, पर लोहारी के लोग बेघर हैं और नम आंखों से अपने गांव को यमुना नदी पर बनी झील में डूबता हुआ देख रहे हैं।

वो कहते हैं, हमें पता था कि हमारा गांव एक दिन डूब जाएगा, पर यह नहीं मालूम था कि हम सब इस तरह बेघर हो जाएंगे। खाना पीना लगभग छूट गया है, मन ही उदास है। हमें गांव छोड़े हुए एक सप्ताह हो गया और यहां एक कमरे में कई परिवार रह रहे हैं, यह नहीं मालूम कि किसका सामान कहां रखा है, यहां न तो शौचालय हैं और न ही पानी की व्यवस्था। खाना बनाने के लिए जगह नहीं है। खंडहर हो चुके इस भवन में जीवन खतरे में है।

देहरादून के लोहारी गांव के कई परिवार पास ही एक स्कूल के खंडहर हो चुके भवन में शरण लिए हैं। फोटो- राजेश पांडेय/newslive24x7.com

यमुना नदी पर लखवाड़ व्यासी जलविद्युत परियोजना की झील बन रही है, जिसके लिए एक मात्र लोहारी गांव जलसमाधि ले रहा है। यहां रहने वाले 70 परिवारों को चार अप्रैल,2022 को 48 घंटे का समय देते हुए घर खाली करने का नोटिस प्रशासन ने दिया। ग्रामीणों ने कुछ समय देने का आग्रह किया, पर आखिरकार उनको गांव खाली करना पड़ा, जिन परिवारों के पास ऊंचाई वाले स्थानों पर अपने घर थे, वो वहां चले गए, पर जिनके पास दूसरे मकान नहीं थे, उन्होंने पास ही खाली पड़े सरकारी स्कूल के भवन में शरण ले ली।

देहरादून के लोहारी गांव के कई परिवार पास ही एक स्कूल के जिस भवन में शरण लिए हैं, उस भवन का पिछला हिस्सा ऐसा दिखता है। फोटो- राजेश पांडेय/newslive24x7.com

वर्ष 1986 में बना यह भवन छात्र संख्या नहीं होने से बंद पड़ा है और इसकी दीवारें जवाब देने लगी हैं।

जैसा हमारे साथ हो रहा है, उस हिसाब से कहीं डैम नहीं बनने चाहिए

वर्ष 2017 में शादी होकर शर्मिला तोमर लोहारी गांव आई थीं। शर्मिला परिवार के साथ स्कूल भवन में रह रही हैं। वो कहती हैं, दर्द का पता तो उनको चलता है, जिनका घर टूटता है, सरकार को इस बात का क्या एहसास होगा। हमें पता था कि एक दिन हमें गांव खाली करके सरकार को देना है, पर हमें यह नहीं पता था कि हम इस तरह बिखर जाएंगे। गांव खाली करने का समय 30 अप्रैल था, पर एक दिन अचानक 48 घंटे का नोटिस दे दिया गया। हमें अपने घरों को खुद तोड़ना पड़ा, इतना सामान लेकर कहां जाएं। हमारा सांस्कृतिक ताना बाना बिखर रहा है, जैसा हमारा साथ हो रहा है, उस हिसाब से कहीं डैम नहीं बनने चाहिए। जो हमारे साथ हुआ, वो कल किसी के साथ भी हो सकता है।

देहरादून के लोहारी गांव की रहने वाली शर्मिला परिवार के साथ स्कूल भवन में रह रही हैं। लोहारी गांव  यमुना की झील में डूब रहा है । फोटो- राजेश पांडेय/newslive24x7.com

सीमा चौहान रुड़की में रहती हैं, लोहारी गांव उनका मायका है। सीमा यहां परिवार से मिलने आई हैं। बताती हैं, यहां से हमारी यादें जुड़ी हैं। हमारे बुजुर्गों ने पूरा जीवन यहां गुजार दिया। खेतीबाड़ी, तीज त्योहार हमारी संस्कृति हैं, जो हमें एक दूसरे जोड़ते हैं। यहां के परिवारों को शहरों के पास बसाने से हम सब बिखर जाएंगे।

डूब रहे गांव को देखने पहुंच रहे लोग

आसपास के गांवों और शहरों से लोग डूबते गांव को देखने के लिए पहुंच रहे हैं। यमुनोत्री मार्ग से आ जा रहे लोग, गाड़ियां रोककर एक गांव की जलसमाधि को देख रहे हैं, फोटो क्लिक कर रहे हैं, वीडियो बना रहे हैं। गांव तक मीडिया का आना जाना लगा है। पानी में लगभग आधा डूब चुके घरों तक पहुंचना जोखिमभरा है। पर, लोग इसको नजदीक से देखना चाहते हैं और मीडिया वहां तक जाना चाहता है।

देहरादून के लोहारी गांव, जो अब जल समाधि ले रहा है, के पास तक जाने के लिए लकड़ियों को रस्सी से बांधकर काम चलाऊ पुल बनाया गया है, जिस पर से आना जाना रिस्क उठाना है। फोटो- राजेश पांडेय/newslive24x7.com

गांव के पास तक जाने के लिए दो बड़ी लकड़ियों को रस्सियों से बांधकर पुलनुमा स्ट्रक्चर बनाया गया है, जिसको बड़ी सावधानी से पार करके लोग आ जा रहे हैं। जलमग्न कुछ घरों की छतों पर खड़े होकर पूरे गांव को देखने की कोशिश की जा रही है।

जल से घिरे भवन की एक छत पर रखा तुलसी का पौधा, जल ही नहीं मिलने से सूख गया है। खेत खलिहान सब डूबे हैं।

कुछ दिन पहले तक आबादी से गुलजार रहने वाले गांव में अब दूर-दूर तक अथाह जल और कुछ भवनों के ऊपरी हिस्से दिखाई देते हैं। यहां पसरे सन्नाटे के बीच बड़े विशाल पेड़ों की बड़ी शाखाओं पर पछियों की चहचहाट सुनाई दे रही है।

हम तितर बितर हो गए, कहां जाएंगे पता नहीं

स्कूल भवन के एक दरवाजे पर कुर्सी लगाकर बैठे 74 साल के टीकम सिंह तोमर की नम आंखें उनकी उदासी को बताती हैं। कहते हैं, बचपन इसी गांव में बीता, खेतीबाड़ी, पशुपालन से घर परिवार चलाया। सरकार ने हमारे साथ बहुत गलत किया है। खाना, पीना, जीना सब हराम हो गया है। हम कहां जाएंगे, क्या व्यवस्था होगी, कुछ नहीं मालूम। चार साल से आश्वासन दे रहे थे कि हमारे रहने की व्यवस्था की जा रही है। हमारे साथ मनमर्जी का सौदा किया गया है। हमारे पेड़ों की गिनती नहीं की गई, न ही हमारे खेतों और मकानों को मापा गया। हमारे खातों में पैसा नहीं आया। कुछ लोगों के पास आया होगा तो हमें नहीं पता।

देहरादून के लोहारी गांव के टीकम सिंह परिवार के साथ स्कूल भवन में रह रहे हैं। वो अपनी कृषि भूमि खो देने से काफी उदास हैं। फोटो- राजेश पांडेय/newslive24x7.com

“हम तितर- बितर हो गए। पहनने के लिए कपड़े तक नहीं हैं। कम से कम 15- 20 दिन का समय तो मिलता। हमारे गाय भैंस कहां हैं, हमें नहीं पता। इन्हीं पशुओं के सहारे हम जी रहे थे। 15-20 बीघा खेती होगी, जिसमें अदरक, मिर्ची , गागली, दाल, राजमा, आलू, लहसुन, प्याज, क्या कुछ नहीं उगाया जा रहा था। हमारी जिंदगी खराब हो गई। हम रोड पर आ गए। पूरी जमीन पर झील बन गई। कुछ नहीं पता खेत कहां हैं”, टीकम सिंह कहते हैं।

देहरादून का लोहारी गांव यमुना नदी पर बनी झील में डूब रहा है। फोटो- राजेश पांडेय/newslive24x7.com

वहीं स्कूल परिसर में ही रह रहे लोहारी के एक युवक ने बताया, उनके खाते में लगभग तीन लाख रुपए जमा हुए हैं, पर ये पैसा किस मद में है। हमें नहीं मालूम। जो पैसा हमारे खाते में जमा किया जा रहा है, उसका हिसाब तो मिलना चाहिए।

बाहर रखे चूल्हों पर बारिश में खाना बनाने की चुनौती

बुधवार शाम लोहारी गांव में मौसम खराब होने लगा और पहले तेज हवा चली और फिर बारिश शुरू हो गई। सभी लोग स्कूल भवन में खड़े हो गए। कमरों से लेकर बरामदे तक कई घरों का सामान रखा है, बरामदे में भी जगह नहीं है। किसी तरह लोग एडजस्ट होकर समय बिता रहे हैं। घरों के चूल्हे स्कूल परिसर में हैं और बारिश की वजह से उनमें खाना बनाना मुश्किल है।

देहरादून के लोहारी गांव के कई परिवार स्कूल भवन में रह रहे हैं, जिन्होंने स्कूल परिसर में चूल्हे बनाए हैं। बुधवार शाम बारिश में बाहर खाना बनाना मुश्किल हो गया। फोटो- राजेश पांडेय / newslive24x7.com

स्कूल भवन के बरामदे में बैठीं गुल्लो देवी कहती हैं, सरकार ने हमारे रहने के लिए कोई व्यवस्था नहीं की। क्या कहें सरकार से, कोई सुनना ही नहीं चाहता। हमारा गांव तो झील में चला गया, गांव बसाने के लिए कहीं ओर जगह दे दो। हम चिल्यो में जगह मांग रहे थे, वहां भी जगह नहीं दी जा रही। हम यहां से नहीं उठेंगे, झील यहां तक पहुंच रही है। जाएं तो कहां जाएं। बारिश आ रही है, खाना भी नहीं बना पाएंगे। इस बार तो हमारा बिस्सू का त्योहार भी नहीं मना।

देहरादून के लोहारी गांव के कई परिवार स्कूल भवन में रह रहे हैं। उनके रिश्तेदार उनसे मिलने आ रहे हैं। फोटो- राजेश पांडेय / newslive24x7.com

स्कूल परिसर में परिवार के साथ बच्चे नहीं दिखाई दिए। लोगों ने बताया कि उन्होंने बच्चों को रिश्तेदारों के घरों में भेज दिया है।

गांव को अपने सामने टूटता देखने का दर्द 

लोहारी गांव से कुछ ऊंचाई पर, एक पोस्ट ऑफिस है, जिसका दरवाजा बंद है। यह इलाका डूब क्षेत्र में नहीं आता, पर यहां से पहले की अपेक्षा अब कम लोग ही पत्र व्यवहार कर पाएंगे। पास में ही, अमित चौहान से मुलाकात हुई। अमित लोहार गांव में ही रहते थे, जो कुछ दिन पहले ही परिवार के साथ यहां पहुंचे हैं। अमित बताते हैं, उनका घर भी झील में डूब गया है। उन्होंने अपने सुंदर घर को अपने सामने टूटते देखा है। बहुत दुख हुआ, अपने घर को डूबता देखकर। यहां भी उनका घर है, जिसमें किरायेदार रहते थे। गांव से विस्थापन के बाद यहां आकर रहने लगे। उनकी पढ़ाई लोहार गांव के स्कूल में ही हुई है। वो मोबाइल फोन में, डूबे गांव और मकान की तस्वीरें दिखाते हैं। वो दिखाते हैं कि किस तरह उनके गांव में जेसीबी चलाई गई। किस तरह रात को ही गांव वाले सामान इकट्ठा कर रहे थे।

देहरादून स्थित लोहारी गांव यमुना नदी में विद्युत परियोजना के लिए बन रही झील में डूब रहा है। युवा अमित चौहान झील में डूब रहे अपने गांव के बारे में बताते हुए। फोटो- राजेश पांडेय / newslive24x7.com

बताते हैं, यहां सरकारी प्राइमरी और जूनियर स्कूल के साथ ही एक इंगलिश मीडियम स्कूल भी था। एक क्लास में कम से कम 30-40 बच्चे रहते थे। हमारी कुछ जमीन रह चुकी है, आप हमें वहां बसा दो। मैन हाईवे के नीचे और गांव से ऊपर जमीन है, हम वहां बसना चाहते हैं। हम अपनी संस्कृति से जुड़े रहेंगे। गांव के आसपास बसाने की मांग कर रहे हैं। यदि हमें मैदान के इलाकों में बसाया जाएगा तो हमारी संस्कृति आगे नहीं बढ़ पाएगी।

हमें त्योहार मनाने को मौका तो देती सरकार

बिस्सू के त्योहार का जिक्र होते ही चंदा चौहान की आंखें नम हो जाती हैं। वो कहती हैं, इस समय में गांव में बहुत उत्साह होता। हम अपने देवी देवता की पूजा नहीं कर पाए। हमने उनसे (प्रशासन) कहा था, हमें त्योहार मनाने का समय दो, पर ऐसा नहीं हुआ। हम अपने देवता के बिना नहीं रह सकते। वो हमारे साथ रहते हैं। करीब 50 वर्षीय चंदा चौहान कहती हैं, सरकार से चाहते हैं कि हमें सभी लोगों को आसपास ही बसा दे, जिससे हमारी संस्कृति और परंपराएं पहले की तरह चलती रहें। पूरा गांव एक साथ रहे।

देहरादून स्थित लोहारी गांव यमुना नदी में विद्युत परियोजना के लिए बन रही झील में डूब रहा है। चंदा चौहान झील में डूब रहा अपना गांव दिखाते हुए। फोटो- राजेश पांडेय / newslive24x7.com

बताती हैं, 18 वर्ष की उम्र में शादी होकर लखवाड़ गांव से यहां आ गई थी। 32 साल लोहारी गांव में जीवन काटा, सबकुछ बहुत अच्छा चल रहा था। पर, गांव को झील में समाना पड़ गया। ऊंचाई पर स्थित घर के पिछले हिस्से में ले जाते हुए चंदा हमें झील में डूब रहा गांव-घर दिखाती हैं। कहती हैं, जब भी उधर देखते हैं, बहुत दुख होता है। जब से उस गांव-मकान को छोड़कर यहां आए हैं, खाना नहीं खाया जा रहा है। मन निराश है।

उन्होंने बताया, नोटिस मिलने के समय गेहूं काटे जा रहे थे। किसी के गेहूं थोड़े से ही कटे थे। हमें खेतों से गेहूं उठाने का मौका ही नहीं मिला। गेहूं खेतों में पड़े रह गए और झील में चले गए।

देहरादून स्थित लोहारी गांव यमुना नदी में विद्युत परियोजना के लिए बन रही झील में डूब रहा है। 70 वर्षीय बुजुर्ग महादेई चौहान झील में डूब रहे अपने गांव के बारे में वरिष्ठ पत्रकार जितेंद्र अंथवाल से बात करते हुए। फोटो- राजेश पांडेय / newslive24x7.com

करीब 70 वर्षीय महादेई चौहान बताती हैं, 15 साल की थीं, जब लोहारी गांव में शादी होकर आई थीं। गांव समृद्ध था, यहां तक सड़क थी। सब त्योहार सभी के साथ मिलकर मनाए।  सर्विस पर बाहर रह रहे लोग भी त्योहार पर गांव आते हैं। पर नवरात्र के समय और ठीक बिस्सू से पहले सरकार ने क्या कर दिया। आज से बिस्सू त्योहार शुरू होता है। हमारी खेतीबाड़ी अच्छी थी। मक्की, गेहूं. धान, जो भी वहां उगाया, वो उगा। हमें नहीं पता, कहां बसा रहे हैं। यहां पुराना मकान था, जिसमें अब रह रहे हैं।

सरकार ने हमारे साथ जो किया, किसी के साथ न हो

स्कूल भवन में एक कमरे में तीन से अधिक परिवारों का सामान रखा है। कमरों में सामान भरा है और लोग बाहर बरामदे में और कुछ लोग परिसर में बैठे हैं। बारिश के समय तो बरामदे में भीड़ लग गई। वहां खड़े होने की जगह भी नहीं थी। उस समय बिजली नहीं होने से कमरों में अंधेरा था।

बरामदे में बैठीं गुड्डी तोमर कहती हैं, बिस्सू का त्योहार सबसे बड़ा पर्व है। यहां इस हालत में रहकर हम अपने त्योहार को कैसे मनाएं। यहां न रहने के लिए जगह है और न ही खाना बना पाएंगे। क्या करेंगे हम। सरकार ने हमारे साथ इतना अन्याय किया, ऐसा किसी के साथ नहीं हुआ होगा।

देहरादून स्थित लोहारी गांव यमुना नदी में विद्युत परियोजना के लिए बन रही झील में डूब रहा है। सरकारी स्कूल के भवन में परिवार के साथ गुड्डी तोमर और गुल्लो देवी। फोटो- जितेंद्र अंथवाल / newslive24x7.com

“विधानसभा चुनाव में हमने वोट इसलिए दिया था कि सरकार हमारी कोई न कोई व्यवस्था कर देगी, पर हमारे लिए तो कुछ नहीं हुआ। सरकार ने हमें बेघर कर दिया। ये किसान लोग हैं, कहां जाएंगे। हमें फसल काटने का समय तक नहीं मिला। क्या फसल नहीं होती यहां। लहसुन, प्याज, बींस, राजमा सबकुछ खेतों में ही रह गया। पशुओं की गोशाला डूब गईं। हमने अपने पशुओं को थोड़ा ऊंचाई वाली जगह पर रखा है, कुछ पशु रिश्तेदारों के यहां भेज दिए,” गुड्डी तोमर कहती हैं।

सुमित तोमर और कुछ युवा, स्कूल भवन में पानी पहुंचाने का इंतजाम कर रहे हैं। टैंक को पाइपों से जोड़कर नल लगाने की व्यवस्था कर रहे सुमित बताते हैं, यहां पानी नहीं है। बाहर से टैंकरों में पानी मंगा रहे हैं। यहां इतनी तेज हवा चल रही है कि बाहर रखी पानी की टंकी टूट गई। हमारे गांव में पानी था, पर स्कूल में पानी की व्यवस्था नहीं थी। यह स्कूल काफी समय पहले बंद गया था, इसलिए यहां न बिजली की व्यवस्था थी और न ही पानी। बिजली के लिए भी तार खींचा है, पर हवा इतनी तेज चलती है कि बिजली भी न के बराबर ही है।

बुजुर्ग भुवन देवी कहती हैं, घर बार छूट गया। क्या करें, जाना कहां है। गांव में ही जीवन बीता। त्योहार कैसे मनाएं। हमारा तो सब कुछ खत्म हो गया।

गांव वाले मांग रहे, जमीन के बदले जमीन 

दिनेश तोमर बताते हैं, यह परियोजना 1972 से भी पहले से चली आ रही है। 1972 में पहली बार हमारे बुजुर्गों को मुआवजा दिया था। लेकिन उस समय से हमारे बुजुर्गों ने सिंचाई विभाग को लिखकर दे रखा है, ये जमीन जो आप ले रहे हैं, उसको छोड़कर जो भी जमीन लेंगे, उसके बदले हमें जमीन ही चाहिए। हम यहां तीसरी पीढ़ी हैं। विभाग बुजुर्गों से टुकड़ों में जमीन लेता रहा, कभी एक हेक्टेयर जमीन ली और कभी एक बीघा, चार बीघा, 1989 तक नौ बार जमीन ली गई। 1991-92 में काम बंद हो गया।

लोहारी गांव को मिले मुआवजे और ग्रामीणों की मांग को लेकर बात करते ग्रामीण दिनेश तोमर। फोटो- राजेश पांडेय / newslive24x7.com

“वर्ष 2014 में परियोजना पर काम फिर शुरू हो गया। एक परियोजना में समान दर पर एक मुश्त जमीन लेनी थी, पर यहां टुकड़ों में जमीन ली थी। हम जमीन के बदले जमीन चाहते थे। साढ़े पांच लाख रुपये अनुग्रह अनुदान देने की बात हुई थी। जो पैसा लिया है, उसमें से माइनस करने को कहा था। कुछ लोगों ने आंशिक तौर पर पैसा ले लिया। हमारी एक मांग थी, जमीन के बदले जमीन दो।

पूर्व में देहरादून जिला पंचायत अध्यक्ष, एडीएम (प्रशासन) और यूजेवीएनएल के अधिकारियों की कमेटी ने जीवनगढ़ में रेशम विभाग की भूमि का प्रस्ताव किया। 2016 में कैबिनेट ने भी प्रस्ताव किया, पर उसके बाद दूसरी सरकार बनी, जिसने इस प्रस्ताव को होल्ड पर रख दिया। बाद में प्रस्ताव निरस्त कर दिया गया। विरोध में हमने 119 दिन धरना प्रदर्शन किया। पर कुछ नहीं हुआ, ” तोमर बताते हैं।

वो बताते हैं, हमें चार अप्रैल को 48 घंटे का समय दिया गया। हमारी भूमि और संपत्ति का मूल्यांकन नहीं हुआ। दरें क्या हैं, हमारे सामने कोई पैमाइश नहीं की गई। हमें जमीन कहां देंगे, कुछ नहीं बताया। एडीएम (प्रशासन) पूरे दल बल के साथ आए। आठ दस जेसीबी ले आए। हम लोगों ने उनसे अनुरोध किया, नवरात्र का समय है। नवरात्र में बेघर मत कीजिए। बिस्सू त्योहार मनाने के लिए समय मांगा। चीफ सेक्रेट्री के यहां गुहार लगाई, कोई सुनवाई नहीं हुई। हमें पता है मकान और जमीन सरकार को देना है। पर, 30 अप्रैल तक का समय तो दिया जा सकता था।

तोमर कहते हैं, रेशम विभाग की भूमि का चयन हमने नहीं किया था। हमें यहीं जमीन दे दो। यहीं पास में सरकारी भूमि है। यहां कोई अफसर आने को तैयार नहीं हैं। वो बताते हैं, कुछ लोगों के खाते में पैसा आया है, किसी के खाते में कुछ नहीं आया। पर, यह नहीं बताया जा रहा कि यह पैसा किस मद में है। हमारे भवनों का क्या मूल्यांकन किया, यह नहीं बताया जा रहा। हमें वो लिस्ट दे दो, जिससे यह पता चल सके कि कितना पैसा दिया, किस मद में दिया है।

” झील में पूरा पानी भर दिया। मौसम खराब होने की चेतावनी है। कुछ लोग इधर-उधर रह रहे हैं। निर्णय लेने में सक्षम अधिकारी यहां नहीं पहुंचे। त्योहार है, पर यहां सुनसान पड़ा है। विधायक एक दिन आए थे, पर फिर वो भी नहीं आए,”  तोमर ने कहा।

प्लान खेड़ा में हमारा कुछ नहीं है, खेत भी दूर हो जाएंगे

सरकारी स्कूल के पास ही अपने निजी मकान में बैठे लोहारी गांव से विस्थापित कृषक एसएस तोमर बताते हैं, सालभर से तो यही बात थी कि हमें गांव छोड़कर जाना है, पर इन हालातों में गांव से बाहर कर दिए जाएंगे, नहीं सोचा था। सरकार ने जमीन के बदले जमीन की व्यवस्था भी नहीं की। यहां से डेढ़-दो किमी. दूर प्लान खेड़ा में जाने के लिए कहा जा रहा है। हमारी बाकी की जमीन तो आसपास है, जिसमें हम खेती करते हैं। पशुओं का चारा भी हमें अपनी जमीन से मिल जाता है। प्लान खेड़ा में दूसरों की छानियां हैं, हम वहां पशुओं को कैसे पालेंगे। वहां से यहां खेतबाड़ी करने कैसे आएंगे। हमने बसावट के लिए बंगला क्षेत्र का प्रस्ताव दिया था, जिस पर कोई फैसला नही लिया जा रहा है। यहां कुछ परिवार ऐसे भी हैं, जिनके पास अब कोई जमीन ही नहीं है।

लखवाड़-व्यासी परियोजना : एक नजर

120 मेगावाट की यमुना नदी पर बनी व्यासी जल विद्युत परियोजना के लिए वर्ष 2014 में दोबारा कार्य शुरू हुआ। दिसंबर 2021 में परियोजना का निर्माण कार्य पूर्ण किया जाना था, लेकिन इसमे देरी हो गई। लगभग 1777.30 करोड़ रुपये की लागत वाली इस परियोजना के डूब क्षेत्र में सिर्फ लोहारी गांव ही आ रहा है। लखवाड़-व्यासी परियोजना के लिए वर्ष 1972 में सरकार और ग्रामीणों के बीच जमीन अधिग्रहण का समझौता हुआ था। गांव की 8,495 हेक्टेयर भूमि अधिग्रहित की जा चुकी है,जबकि लखवाड़ परियोजना के लिए करीब 9 हेक्टेयर जमीन का अधिग्रहण किया जाना बाकी है।

देहरादून के लोहारी गांव पर बनी यमुना नदी झील यमुनोत्री हाईवे से ऐसी दिखती है। फोटो- राजेश पांडेय/newslive24x7.com
प्रशासन ने अस्थाई आवास दिए, किराया देने की व्यवस्था भी

हाल ही में लखवाड़ व्यासी बांध परियोजना के पुनर्वास अधिकारी, एसडीएम विकासनगर ने लोहारी गांव के परिवारों के लिए सूचना जारी की थी, जिसके अनुसार, यूजेवीएन लिमिटेड ने तत्काल अस्थाई रूप से 12 आवासीय भवनों की व्यवस्था की है, जिनमें सभी आवासीय स्थलों पर बिजली, पानी, शौचालय एवं अन्य सुविधाएं उपलब्ध हैं। वहीं, स्वयं आवास की व्यवस्था करने वाले परिवारों को जिलाधिकारी देहरादून की तीन अप्रैल, 2022 को हुई बैठक के अनुसार, मासिक किराया तीन हजार रुपये के स्थान पर वर्तमान में प्रचलित बाजार भाव के अनुसार मासिक किराया (बिना पशुपालन वाले को) सात हजार तथा पशुपालन वालों को आठ हजार रुपये दिया जाना प्रस्तावित है।

उपजिलाधिकारी कालसी की सर्वेक्षण के अनुसार ग्राम लोहारी में 20 पशुबाड़े दर्शाए गए हैं, इसलिए जिन परिवारों के सर्वेक्षण में पशुबाड़े अंकित हैं, उन्हीं को किराये के रूप में आठ हजार रुपये का भुगतान किया जाना प्रस्तावित है। यह सुविधा वर्तमान में छह माह तक जारी रखना प्रस्तावित है। प्रभावित परिवारों की सहमति के बाद सक्षम स्तर से अनुमोदन के पश्चात प्रभावित परिवारों को उक्त किराया भुगतान की प्रक्रिया निर्धारित की जाएगी, जिन परिवारों द्वारा अस्थायी आवंटित आवास की सुविधा का उपयोग नहीं किया जाता तो वो परिवार भी मासिक किराये का लाभ लेने के हकदार होंगे। प्रशासन ने ग्रामीणों से अस्थाई रूप से उपलब्ध कराए गए आवासों में निवास करने को कहा है।

प्लान खेड़ा में की गई है रहने की व्यवस्थाः एसडीएम

ग्रामीणों के पुनर्वास के मामले में विकासनगर के उपजिलाधिकारी विनोद कुमार कहते हैं, सभी 66 परिवारों के पुनर्वास की व्यवस्था की गई है। प्लान खेड़ा में प्रत्येक परिवार के लिए क्वार्टर आवंटित किए गए हैं। सामान पहुंचाने के लिए वाहनों की व्यवस्था है। जिन परिवारों के अपने मकान हैं, उनके लिए किराये की व्यवस्था है। राजस्व विभाग की एक टीम मौके पर गई थी और लोगों को उपलब्ध कराए गए क्वार्टर में रहने के लिए कहा गया है। वहां पशुओं को रखने की भी व्यवस्था है।

Rajesh Pandey

राजेश पांडेय, देहरादून (उत्तराखंड) के डोईवाला नगर पालिका के निवासी है। पत्रकारिता में  26 वर्ष से अधिक का अनुभव हासिल है। लंबे समय तक हिन्दी समाचार पत्रों अमर उजाला, दैनिक जागरण व हिन्दुस्तान में नौकरी की, जिनमें रिपोर्टिंग और एडिटिंग की जिम्मेदारी संभाली। 2016 में हिन्दुस्तान से मुख्य उप संपादक के पद से त्यागपत्र देकर बच्चों के बीच कार्य शुरू किया।   बच्चों के लिए 60 से अधिक कहानियां एवं कविताएं लिखी हैं। दो किताबें जंगल में तक धिनाधिन और जिंदगी का तक धिनाधिन के लेखक हैं। इनके प्रकाशन के लिए सही मंच की तलाश जारी है। बच्चों को कहानियां सुनाने, उनसे बातें करने, कुछ उनको सुनने और कुछ अपनी सुनाना पसंद है। पहाड़ के गांवों की अनकही कहानियां लोगों तक पहुंचाना चाहते हैं।  अपने मित्र मोहित उनियाल के साथ, बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से डेढ़ घंटे के निशुल्क स्कूल का संचालन किया। इसमें स्कूल जाने और नहीं जाने वाले बच्चे पढ़ते थे, जो इन दिनों नहीं चल रहा है। उत्तराखंड के बच्चों, खासकर दूरदराज के इलाकों में रहने वाले बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से ई पत्रिका का प्रकाशन किया।  बाकी जिंदगी की जी खोलकर जीना चाहते हैं, ताकि बाद में ऐसा न लगे कि मैं तो जीया ही नहीं। शैक्षणिक योग्यता - बी.एससी (पीसीएम), पत्रकारिता स्नातक और एलएलबी, मुख्य कार्य- कन्टेंट राइटिंग, एडिटिंग और रिपोर्टिंग

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