Short story- Moral Values

यात्रा पर निकले मेढ़कों की कहानी

जब आप कोई प्रयास करते हैं तो अच्छे और अच्छे नहीं लगने वाले कमेंट सुनने को मिलते हैं। कई बार तो लोग यह कह देते हैं कि तुम्हारे बस की बात नहीं है। जो भी कुछ कर रहे हो उसे छोड़कर कुछ और काम कर लो। शब्द किसी भी व्यक्ति के जीवन पर काफी प्रभाव डालते हैं। इसलिए जो लोग प्रेरित और सहयोग करने वालों के साथ रहते हैं, उनको अच्छे परिणाम मिलते हैं। निराशा और नकारात्मकता का माहौल पैदा करने वालों के साथ न ही रहा जाए तो अच्छा है।

एक कहानी आपसे शेयर कर रहा हूं, जो कुछ ऐसा ही संदेश दे रही है। मेढ़कों की टोली एक बड़ी लकड़ी पर उछलकूद करती हुई नदी की यात्रा कर रही थी। लकड़ी नदी के किनारे पहुंची ही थी कि उछलते हुए दो मेढ़क पास ही एक गहरे गड्ढे में गिर गए। मेढ़कों का दल तुरंत गड्ढे के चारो ओर इकट्ठा हो गया। सभी मेढ़क अपने-अपने हिसाब से गड्ढे की गहराई और इसमें गिरे मेढ़कों की क्षमता का आकलन करने में लगे थे।

फिर वो सभी उनकी मदद करने की बजाय दोनों की ओर देखकर शोर मचाने लगे कि तुम दोनों के बचने की कोई आशा नहीं है। इसलिए प्रयास करना भी बेकार है। लेकिन दोनों मेढ़क यह तय कर चुके थे कि अंतिम दम तक प्रयास करते रहेंगे। वे बार-बार जोर लगाकर ऊपर की ओर कूद रहे थे, ताकि गड्ढे से बाहर निकल सकें। उनका प्रयास जारी था और गड्ढे को घेरकर खड़े हुए मेढ़कों का शोर भी लगातार बढ़ रहा था। जरूर पढ़े- चीन की कहानीःराजा की बिल्ली का नामकरण

आखिर हुआ भी वही, जो बाहर खड़े मेढ़क कह रहे थे। गड्ढे में फंसे एक मेढ़क पर निराशा हावी हो गई और उसने हथियार डाल दिए। वह ऊपर कूदा और फिर गड्ढे में गिरकर मर गया। लेकिन दूसरे मेढ़क ने प्रयास जारी रखे और जितनी ताकत से ऊपर की ओर कूद सकता था, वह कूदता रहा। जबकि मेढ़कों की भीड़ उससे लगातार कहती रही, वह ज्यादा दर्द न झेले और गड्ढे में ही पड़ा रहे, आखिर में उसे मरना ही है।

दूसरे क्या कह रहे हैं, इसकी परवाह किए बिना कड़ी मेहनत करने वाला मेढ़क आखिरकार गड्ढे से बाहर आ ही गया। बाहर मौजूद मेढ़कों की भीड़ ने उससे पूछा कि क्या तुमको हमारी आवाज सुनाई दे रही थी। इस पर मेढ़क ने उनसे कहा कि वह सुन नहीं सकता। उसने सोचा कि आप लोग जोर जोर से आवाज लगाकर पूरे समय उसका साहस बढ़ा रहे थे। मैंने ऐसा सोचा और आखिरकार गड्ढे से बाहर आ ही गया।

कहने का मतलब यह है कि किसी के भी जीवन पर शब्दों का बड़ा प्रभाव होता है। इसलिए कहा जाता है कि मुंह से कोई शब्द बाहर निकालने से पहले सोचना बहुत जरूरी है। यह किसी को भी जीवन और किसी को भी मृत्यु दे सकते हैं।

Rajesh Pandey

राजेश पांडेय, देहरादून (उत्तराखंड) के डोईवाला नगर पालिका के निवासी है। पत्रकारिता में  26 वर्ष से अधिक का अनुभव हासिल है। लंबे समय तक हिन्दी समाचार पत्रों अमर उजाला, दैनिक जागरण व हिन्दुस्तान में नौकरी की, जिनमें रिपोर्टिंग और एडिटिंग की जिम्मेदारी संभाली। 2016 में हिन्दुस्तान से मुख्य उप संपादक के पद से त्यागपत्र देकर बच्चों के बीच कार्य शुरू किया।   बच्चों के लिए 60 से अधिक कहानियां एवं कविताएं लिखी हैं। दो किताबें जंगल में तक धिनाधिन और जिंदगी का तक धिनाधिन के लेखक हैं। इनके प्रकाशन के लिए सही मंच की तलाश जारी है। बच्चों को कहानियां सुनाने, उनसे बातें करने, कुछ उनको सुनने और कुछ अपनी सुनाना पसंद है। पहाड़ के गांवों की अनकही कहानियां लोगों तक पहुंचाना चाहते हैं।  अपने मित्र मोहित उनियाल के साथ, बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से डेढ़ घंटे के निशुल्क स्कूल का संचालन किया। इसमें स्कूल जाने और नहीं जाने वाले बच्चे पढ़ते थे, जो इन दिनों नहीं चल रहा है। उत्तराखंड के बच्चों, खासकर दूरदराज के इलाकों में रहने वाले बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से ई पत्रिका का प्रकाशन किया।  बाकी जिंदगी की जी खोलकर जीना चाहते हैं, ताकि बाद में ऐसा न लगे कि मैं तो जीया ही नहीं। शैक्षणिक योग्यता - बी.एससी (पीसीएम), पत्रकारिता स्नातक और एलएलबी, मुख्य कार्य- कन्टेंट राइटिंग, एडिटिंग और रिपोर्टिंग

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