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दिमाग हैक कर गए ये रोबोट

जब मैं छठीं क्लास में था, तब मेरे घर पर बिजली का कनेक्शन लगा था। मुझे अच्छी तरह याद है कि घर पर बल्ब जलने की खुशी में मां ने मोहल्ले में लड्डू बांटे थे और घर- घर जाकर लोगों को यह बताने में मुझे काफी खुशी हो रही थी कि मेरा घर भी बिजली से रोशन हो गया। इससे पहले हम मिट्टी तेल (केरोसिन) से जलने वाले लैंप के सहारे थे। कई बार शीशे के लैंप को तोड़ने पर डांट भी खाई थी। 

बिजली हो या न हो, गर्मियों की दोपहर बिना किसी परेशानी के घर के आसपास खड़े पेड़ों के नीचे कट जाती थी। इतनी गर्मी नहीं होती थी तब देहरादून और आसपास के इलाकों में। गिनती के घर होते थे और घरों के आसपास खेत और उनके बीच से होकर निकलते रास्तों पर दौड़ना हमारा रोजाना का काम था। 1985 का जिक्र कर रहा हूं मैं। पढ़े- आपकी रसोई में हीट के बंडल 

शाम को पिट्ठू चाल या फिर चोर सिपाही जैसे खेल हमको खूब दौड़ाते थे। घर के पास ही स्कूल के मैदान में तब तक दौड़ते थे, जब तक कि थक न जाएं या घर से बुलावा न आ जाए। पुरानी बातों का जिक्र इसलिए कर रहा हूं, क्योंकि हम उस समय अपने मन की जिंदगी जीते थे। बचपन को जीने का पूरा मौका मिला हमें।

भले ही सुविधाएं कम थीं, लेकिन हम आज की तरह किसी गैजेट या संसाधन या फिर सेवाओं पर निर्भर नहीं थे।क्योंकि उस समय आज जैसी भौतिक सुविधाओं के आदी नहीं हुए थे या यूं कहें कि हमें इनकी लत नहीं पड़़ी थी। सुविधाएं और सेवाएं बढ़ने के साथ-साथ हम उन रोबोटों के हवाले हो गए, जो हमारे आसपास हमेशा मौजूद हैं। सोते -जागते हम इनके हवाले हो गए।

इसके बारे में सुनता रहा हूं कि वो कुछ भी कर सकता है। कुछ दिन पहले रोबोटिक्स के बारे में जानने का मौका मिला था, तो मालूम हुआ कि आपके पास जो भी कुछ दिख रहा है, आपका मोबाइल फोन, कंप्यूटर, लैपटॉप, प्रिंटर, मोटर साइकिल और न जाने कितने तरह के रोबोटों से काम ले रहे हैं हम रोजाना। ये भी एक तरह के रोबोट हैं, जिनको हम अपनी सुविधा के अनुसार इस्तेमाल और कंट्रोल कर रहे हैं।

मोबाइल फोन हमेशा साथ चाहिेए, टिफिन बॉक्स भले ही न हो। मोबाइल बंद न हो जाए, चार्जर भी बैग में रहता है। कब फोन आ जाए, कहा नहीं जा सकता। नेट के बिना काम नहीं चलता अब। स्मार्ट फोन नहीं है तो क्या बिजनेस और क्या दफ्तर, सब कुछ अस्त व्यस्त। एक पल भी साथ नहीं छोड़ता यह फोन।

कुछ लोगों को यह कहते सुना है कि फोन की घंटी से डर लगने लगा है। इसलिए दो दिन में ही बेल की आवाज बदल देता हूं। इसको बंद करने में ही भलाई है। जब फोन पास में नहीं रहता तो सुकून मिलता है, लेकिन डर सताता है कि कहीं कोई इंपोर्टेंट कॉल न आ जाए।  अब आप समझ लीजिए, हमें इन रोबोट में ही जिंदगी और तरक्की दिखती है। खासकर युवाओं पर इनका नशा चढ़ गया है। पढ़ें- खूंटे पर बंधी रस्सी को तोड़ना ही होगा 

इनमें से कुछ हमें कंट्रोल करने लगे हैं। सीधे शब्दों में कहें तो हम इनके रोबोट बन गए हैं और ये हमारे संचालनकर्ता। स्मार्ट फोन के फीचर्स हमें लुभा रहे हैं। सोशल मीडिया में खोने के बाद हमें यह मालूम नहीं होता कि हमारे आसपास क्या हो रहा है। एक क्लिक में दुनिया से जुड़ने वाले अपने ही घर में अकेले हो जाते हैं। दुनिया से संवाद करने की जद्दोजहद में लगे लोगों को अपने बुजुर्गों और बच्चों से बात करने का समय नहीं मिलता।

हाल ही में सामने आई एक रिपोर्ट ने चौंका दिया। यह रिपोर्ट कहती है कि सोशल मीडिया पर बतियाने वालों में डिप्रेशन का रिस्क तीन गुना ज्यादा हो गया है। साइ ब्लाग में प्रकाशित रिपोर्ट में एक अध्ययन के हवाले से यह बात कही गई है। इस अध्ययन में सोशल मीडिया के 11 सर्वाधिक लोकप्रिय प्लेटफार्म- फेसबुक, यू ट्यूब, गूगल प्लस, इंस्टाग्राम, स्नैप चैट, रेडडिट, टंबलर, वाइन, लिंक्डइन और पिंटेरेस्ट के यूजर्स को शामिल किया गया था। इनमें से 7 से 11 तरह के सोशल मीडिया प्लेटफार्म इस्तेमाल करने वालों में अवसाद का जोखिम 3.1 गुना था। वहीं इनमें एंजाइटी का खतरा 3.3 गुना पाया गया।

अध्ययन टीम को लीड करने वाले प्रोफेसर ब्रायन ए प्रायमैक के हवाले से रिपोर्ट में कहा गया है कि सोशल मीडिया और अवसाद में सहसंबंध बताने के लिए यह काफी है। चिकित्सक अपने रोगियों से उनके कई तरह के सोशल मीडिया प्लेटफार्म इस्तेमाल करने के बारे में पूछ सकते हैं। वो उनको बता सकते हैं कि सोशल मीडिया का लगातार इस्तेमाल भी इनके लक्षणों मे ंहो सकता है।

हालांकि उन्होंने यह भी कहा कि हम अपने अध्ययन से यह नहीं बता सकते कि क्या उदास और चिंतित लोग सोशल मीडिया के कई प्लेटफार्म को इस्तेमाल करते है या नहीं। यह भी हो सकता है कि कई तरह के प्लेटफार्म पर यूजर्स होने से अवसाद और चिंता हावी होते हैं। लेकिन इन दोनों तरह के ही नतीजों को उपयोग में लाया जा सकता है।

Rajesh Pandey

राजेश पांडेय, देहरादून (उत्तराखंड) के डोईवाला नगर पालिका के निवासी है। पत्रकारिता में  26 वर्ष से अधिक का अनुभव हासिल है। लंबे समय तक हिन्दी समाचार पत्रों अमर उजाला, दैनिक जागरण व हिन्दुस्तान में नौकरी की, जिनमें रिपोर्टिंग और एडिटिंग की जिम्मेदारी संभाली। 2016 में हिन्दुस्तान से मुख्य उप संपादक के पद से त्यागपत्र देकर बच्चों के बीच कार्य शुरू किया।   बच्चों के लिए 60 से अधिक कहानियां एवं कविताएं लिखी हैं। दो किताबें जंगल में तक धिनाधिन और जिंदगी का तक धिनाधिन के लेखक हैं। इनके प्रकाशन के लिए सही मंच की तलाश जारी है। बच्चों को कहानियां सुनाने, उनसे बातें करने, कुछ उनको सुनने और कुछ अपनी सुनाना पसंद है। पहाड़ के गांवों की अनकही कहानियां लोगों तक पहुंचाना चाहते हैं।  अपने मित्र मोहित उनियाल के साथ, बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से डेढ़ घंटे के निशुल्क स्कूल का संचालन किया। इसमें स्कूल जाने और नहीं जाने वाले बच्चे पढ़ते थे, जो इन दिनों नहीं चल रहा है। उत्तराखंड के बच्चों, खासकर दूरदराज के इलाकों में रहने वाले बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से ई पत्रिका का प्रकाशन किया।  बाकी जिंदगी की जी खोलकर जीना चाहते हैं, ताकि बाद में ऐसा न लगे कि मैं तो जीया ही नहीं। शैक्षणिक योग्यता - बी.एससी (पीसीएम), पत्रकारिता स्नातक और एलएलबी, मुख्य कार्य- कन्टेंट राइटिंग, एडिटिंग और रिपोर्टिंग

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