Blog LiveFeaturedUttarakhand

रिंगाल की तलाश में जंगलों में कभी कभी भूखे भी रहते हैं हम

रिंगाल से टोकरियां बनाने वाले कारीगरों के संघर्ष को जानिए

राजेश पांडेय। रेडियो केदार

हम रिंगाल से बनी छोटी बड़ी टोकरियों को बेचने के लिए गांव-गांव जाते हैं। धूप हो या सर्दियां या फिर बारिश ही क्यों न हो, टोकरियों की बिक्री करना हमारे लिए बहुत जरूरी है। जब ये नहीं बिकती तो मुझे रोना आ जाता है। बड़ी टोकरियों (कंडियों) की बिक्री कम होने का कारण, कृषि का लगातार कम होना भी है। लोग खेती नहीं कर रहे, खेत बंजर हो रहे हैं, ऐसे में इन्हें कौन खरीदेगा। इनका इस्तेमाल खेती में ज्यादा होता है। वैसे छोटी टोकरियां बिक जाती हैं, जिनमें गांव में लोग रोटियां रखते हैं।

रुद्रप्रयाग जिला के खड़पतिया गांव में मकानी देवी ने रिंगाल से बनी टोकरियों की बिक्री के बारे में जानकारी दी। फोटो- दिनेश सिंह/रेडियो केदार

रुद्रप्रयाग के खड़पतिया बुजुर्ग गांव की मकानी देवी रिंगाल से टोकरियां बनाने की कला और इससे जुड़ी आजीविका पर बात कर रही थीं। खड़पतिया बुजुर्ग गांव चोपता से करीब आठ किमी. पोखरी रोड पर है। यहां रहने वाले कई परिवार टोकरियां बनाने के हस्तशिल्प से जुड़े हैं। कुछ लोग रोजगार के सिलसिले में जिला और प्रदेश से बाहर भी रह रहे हैं। मुख्य मार्ग से करीब एक किमी. पर बसे गांव में रहने वालीं मकानी देवी बताती हैं, वो अभी टोकरियां बनाना सीख रही हैं, उनकी सास टोकरियां बनाती हैं। उनका काम टोकरियों को गांवों में जाकर बेचना है। पर, यह काम मुझे पसंद नहीं है। हमें कपड़ों की सिलाई जैसे अन्य विकल्पों पर सोचना होगा।

“सबसे मुश्किल और खतरे वाला काम है रिंगाल की तलाश। यहां से लगभग 35-40 किमी. दूर श्रीतुंगनाथ जी के पास के जंगल में रिंगाल लेने के लिए गांव के लोग जाते हैं। वहां घनघोर जंगल में कई किमी. पैदल चलते हैं। वहां ‘शेर’ जैसे जानवरों का डर है। रातभर आग जलाकर खुले आसमान के नीचे बैठना होता है। बारिश में भी भींग जाते हैं। हम रिंगाल के लिए कितने कष्ट सहते हैं, यह तो या हम जानते हैं या फिर हमारा भगवान जानता है। तीन दिन की कड़ी मेहनत के बाद रिंगाल के तनों को पीठ पर लादकर सड़क तक लाते हैं। फिर इनको बनाते हैं। इतनी मेहनत और जोखिम उठाकर बनाई टोकरियां या तो बिकती नहीं हैं या फिर इनको कम पैसों में खरीदा जाता है,” मकानी देवी कहती हैं।

गांव में ही करीब 40 साल से रिंगाल की टोकरियां बनाकर आजीविका चला रहे सुनील बताते हैं, जंगलों से रिंगाल लाकर घर में सामान बनाते हैं, काफी समय लगता है। गांवों में फेरी लगाते हैं। कभी पूरा माल निकल जाता है, कभी नहीं भी। पर इस काम से गुजारा चल रहा है। उनके पिताजी इसी काम को करते थे।

“किसी भी कला को सीखना जीवन में काम आता है। कोई भी काम हो, सीखना पड़ता है। कला से व्यक्ति आगे बढ़ता है। नौकरी मिल गई तो ठीक है, नहीं तो किसी कला या कौशल से रोजगार चलाना चाहिए। इस काम को आगे बढ़ाने में काफी समय लगेगा, कोशिश करेंगे। रिंगाल से टोकरियां, कंडियां बनाने की कोई मशीन नहीं है। मशीन बन भी जाए तो बढ़िया है, काम अच्छा चलेगा,” सुनील कहते हैं।

रुद्रप्रयाग जिला के खड़पतिया गांव में सुनील ने रिंगाल की तलाश में जंगल जाने और फिर टोकरियों की बिक्री पर विस्तार से चर्चा की। फोटो- दिनेश सिंह/रेडियो केदार

सावन भादौ में रिंगाल नहीं मिलने से होने वाली दिक्कतों का जिक्र करते हुए सुनील ने बताया, बरसात में जंगलों में नहीं जा पाते। दो महीने कोई काम नहीं होता। रोजगार बंद रहता है। उनके घर में दो लोग इस हस्तशिल्प से जुड़े हैं, महीने में लगभग सात-आठ हजार रुपये की आय हो जाती है। यानी एक व्यक्ति की आय लगभग साढ़े तीन हजार है।

बताते हैं, एक दिन में छोटी वाली चार-पांच टोकरियां बना लेते हैं, पर बड़ी टोकरी (कंडी) एक ही बन पाती है। छोटी टोकरियां 80 से सौ रुपये प्रति पीस बिक जाती है। बड़ी टोकरियां साइज के अनुसार तीन सौ से पांच सौ रुपये तक में बिकती हैं। एक बड़ी टोकरी बनाने में चार घंटे से ज्यादा समय लगता है। इसमें रिंगाल लाने के लिए लगा समय नहीं जोड़ा है। यहां से हम छह-सात, कभी आठ या दस लोग  रिंगाल लेने जाने के लिए गाड़ी बुक करते हैं। प्रति व्यक्ति सात-आठ सौ रुपये का खर्चा आता है। यह जंगल चमोली जिला में है। तीन से चार दिन लग जाते हैं रिंगाल लाने में। एक समय में आठ से दस टोकरियां बनाने का रिंगाल ही ला पाते हैं। दो दिन जंगल में रुकना होता है। एक आध हफ्ते में फिर जाएंगे। ज्यादा रिंगाल लाने के लिए ताकत चाहिए। हम रिंगाल को पीठ पर लादकर 15 से 20 किमी. पैदल चलते हैं। इसके लिए परमिशन लेनी होती है।

रुद्रप्रयाग के खड़पतिया बाजार में जगदीश अपनी दुकान पर रिंगाल की कंडियों के साथ। फोटो-  राजेश पांडेय/रेडियो केदार

इसी गांव में रिंगाल हस्तशिल्प से जुड़ीं एक और महिला, जिनका नाम भी मकानी देवी हैं, ने बताया कि टोकरियां बनाते समय हाथ में चोट लगने का खतरा रहा है। रिंगाल को छीलने में काफी सावधान रहना पड़ता है। इसको बनाने में बहुत ताकत लगती है। रिंगाल के छीले हुए धारदार तने हाथ से खींचकर कसे जाते हैं। टोकरी बनाने के लिए पहले आधार बनाना होता है और फिर बुनाई करनी होती है। इससे हमारी आजीविका चलती है, पर मेहनत के हिसाब से पैसा नहीं मिल पाता। हमारे पूर्वज भी यही कार्य करते थे। यहां आसपास रिंगाल नहीं मिलता। रिंगाल को लाना सबसे बड़ी चुनौती है।

रुद्रप्रयाग जिला के खड़पतिया गांव स्थित अपने घर में मकानी देवी रिंगाल से बनी टोकरी बना रही हैं। फोटो- राजेश पांडेय/रेडियो केदार

जब हम गांव में पहुंचे, तब मकानी देवी घर के आंगन में टोकरियां बना रही थीं। उन्होंने घर के पास बड़ी टोकरियां रखी थीं। बताती हैं, गांवों में फेरी लगाने के लिए आठ-दस टोकरियां लेकर जाते हैं। कभी सभी टोकरियां बिक जाती हैं और किसी दिन एक भी नहीं बिकती। हमारे पास खेतीबाड़ी नहीं है। हमारा परिवार इसी कला पर निर्भर है। मकानी देवी हमें रिंगाल को दरांती से छीलकर दिखाती हैं, जिसमें काफी सावधानी बरतने की आवश्यकता है। टोकरी बनाने के लिए रिंगाल को लकड़ी के हथोड़े से पीटकर चपटा किया जाता है।

कुल मिलाकर हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे, रिंगाल हस्तशिल्प को आगे बढ़ाने के लिए उत्पादों को बाजार उपलब्ध कराने की आवश्यकता है। विभिन्न उपयोगों के लिए रिंगाल उत्पादों के आकर्षक डिजाइन का प्रशिक्षण देने, कारीगरों को रिंगाल उपलब्ध कराने, उनके कार्यों को पहचान दिलाने की जरूरत है। मेहनत के लिहाज से कारीगरों की आय में वृद्धि के लिए अभिनव प्रयोगों की दरकार है।

साभार- रेडियो केदार

What is Ringal handicraft?, Ringal basketry, Ringal Bamboo Basketry, Uttarakhand Ringal Craft, Craft of the Mountains,The Ringal Weavers of Uttarakhand, Ringal: A Green Alternative To Plastic

 

Rajesh Pandey

राजेश पांडेय, देहरादून (उत्तराखंड) के डोईवाला नगर पालिका के निवासी है। पत्रकारिता में  26 वर्ष से अधिक का अनुभव हासिल है। लंबे समय तक हिन्दी समाचार पत्रों अमर उजाला, दैनिक जागरण व हिन्दुस्तान में नौकरी की, जिनमें रिपोर्टिंग और एडिटिंग की जिम्मेदारी संभाली। 2016 में हिन्दुस्तान से मुख्य उप संपादक के पद से त्यागपत्र देकर बच्चों के बीच कार्य शुरू किया।   बच्चों के लिए 60 से अधिक कहानियां एवं कविताएं लिखी हैं। दो किताबें जंगल में तक धिनाधिन और जिंदगी का तक धिनाधिन के लेखक हैं। इनके प्रकाशन के लिए सही मंच की तलाश जारी है। बच्चों को कहानियां सुनाने, उनसे बातें करने, कुछ उनको सुनने और कुछ अपनी सुनाना पसंद है। पहाड़ के गांवों की अनकही कहानियां लोगों तक पहुंचाना चाहते हैं।  अपने मित्र मोहित उनियाल के साथ, बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से डेढ़ घंटे के निशुल्क स्कूल का संचालन किया। इसमें स्कूल जाने और नहीं जाने वाले बच्चे पढ़ते थे, जो इन दिनों नहीं चल रहा है। उत्तराखंड के बच्चों, खासकर दूरदराज के इलाकों में रहने वाले बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से ई पत्रिका का प्रकाशन किया।  बाकी जिंदगी की जी खोलकर जीना चाहते हैं, ताकि बाद में ऐसा न लगे कि मैं तो जीया ही नहीं। शैक्षणिक योग्यता - बी.एससी (पीसीएम), पत्रकारिता स्नातक और एलएलबी, मुख्य कार्य- कन्टेंट राइटिंग, एडिटिंग और रिपोर्टिंग

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button