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माई का संघर्षः जब हाथी ने मुझे फुटबाल बनाकर इधर उधर फेंका

राजेश पांडेय। न्यूज लाइव

करीब 50 साल के वन गुर्जर गुलाम रसूल, सुबह सात बजे पशुओं को जंगल ले जाने की तैयारी कर रहे हैं। उनके पास छोटे बड़े मिलाकर 50 भैंसे और गाय हैं, जिनमें भैंसों की संख्या ज्यादा है। यह उनका रोजाना का काम है। गुलाम रसूल जंगल से पशुओं को लेकर शाम करीब सात बजे घर पहुंचते हैं। पूरे 12 घंटे पशुओं के साथ जंगल में रहते हैं।

गुलाम रसूल सहित वो सभी लोग, जिनके पास अपने पशुओं को पालने, उनको चराने के लिए जंगल ले जाने की जिम्मेदारी है, उनको वन गुर्जर समुदाय में ‘माई’ कहा जाता है। गुलाम रसूल बताते हैं, खैरी बनवाह क्षेत्र के डेरे में हर परिवार में एक ‘माई’ है। ‘माई’ शब्द में आत्मीयता है, ममत्व है और भरपूर स्नेह है। हमें माई बनकर बड़ा गर्व महसूस होता है। आप इसको ऐसे समझे, जैसे परिवार का मुखिया, जो पशुपालन से परिवार की आजीविका चलाता है, उसको ‘माई’ कहा जाता है।

देहरादून जिला के डोईवाला नगर से लगभग आठ किमी. दूर खैरी गांव के वन क्षेत्र में स्थित गुर्जर बस्ती को खैरी वनबाह क्षेत्र के नाम से जाना जाता है। 1975 के आसपास बसी इस बस्ती में अभी तक बिजली और पानी के कनेक्शन नहीं हैं।

गुलाम रसूल, अपने बेटे हनीफ के साथ, पशुओं को लेकर सुसवा नदी के किनारे एक जंगल में जा रहे हैं, जहां बरसात के सीजन में काफी घास हो जाती है। गुलाम रसूल बताते हैं, उनके पशुओं को रास्ता पता है। पशु हमारे से आगे चलते हैं। एक बरसाती स्रोत को पार करके पशु जंगल में घुसते हैं।

सुसवा नदी में मिलने वाली  नहर में गुलाम रसूल की भैंसे। फोटो- सार्थक पांडेय

उनको माई क्यों कहा जाता है, पर बताते हैं, हम अपने पशुओं की बहुत देखभाल करते हैं। हमारे पास खाने के लिए कुछ हो या न हो, पर हम अपने पशुओं को भूखा नहीं रहने देते। बरसात हो या फिर गर्मियां या फिर कड़ाके की ठंड, पशुओं को चराने के लिए ले जाना, हमारी सबसे पहली ड्यूटी है। मुझे याद नहीं है कि जब से मैंने होश संभाला, तब से किसी भी दिन छुट्टी की हो। पहले मेरे दादाजी, फिर पिता जी और अब मैं माई की ड्यूटी निभा रहा हूं।

भैंस ने शोर मचाकर बचा लिया मुझेः गुलाम रसूल

” मैं उस समय दस- बारह साल का था, जब पशुओं को चराने के लिए जंगल ले जा रहा था। आप नदी के पार, साल का पेड़ देख सकते हैं। सारे डंगर (पशु) हमारे पीछे-पीछे चलते हैं, वो इसलिए कि हम उनको पेड़ों से पत्तियां तोड़कर खिलाते हैं। मैं पेड़ पर चढ़कर उनके लिए पत्तियां छांट रहा था कि अचानक नीचे गिर गया। मेरी हालत काफी खराब हो गई, कुछ हड्डियां टूट गई थीं। मैं किसी को आवाज लगाने की स्थिति में भी नहीं था। मेरे साथ चल रही भैंस,जो काफी समझदार थी, बहुत तेज आवाज में रंभाने लगी। मुझे पशुओं ने घेर लिया था। भैंस के बार-बार रंभाने से काफी पीछे आ रही मेरी दादी को शंका हो गई कि शायद कोई खतरे में है। दादी और एक और युवक दौड़ लगाते हुए मेरे पास पहुंच गए। डेरे से और लोगों को भी बुला लिया गया। मैं कई दिन अस्पताल में भर्ती रहा। इस तरह भैंस ने मेरी जान बचाई, ” गुलाम रसूल बताते हैं।

प्रतिदिन लगभग 25 किमी. पैदल चलते

बशीर अहमद, जो लगभग 35 साल के हैं, कहते हैं हम रोजाना सुबह सात बजे घर से पशु लेकर निकलते हैं और शाम को इतने ही टाइम यानी सात बजे पशुओं को जंगल से ला पाते हैं।

बशीर अहमद (हाथ में लाठी लिए हुए) , 35 साल के हैं। कहते हैं माई के रूप में पशुओं के साथ दिनभर जंगल में समय बिताना मेरे लिए बड़े गर्व की बात है। फोटो- सार्थक पांडेय

बरसात में रैन कोट होता है या फिर कंबल। कंबल की खासियत बताते हुए गुलाम रसूल बताते हैं, इसमें पानी नहीं घुसता। उन्होंने नीलकंठ के पास गद्दी समुदाय के लोगों से कंबल खरीदा था, जो वर्षों बाद भी बारिश और ठंड से बचा रहा है। क्या बारिश में कंबल गीला होकर भारी नहीं होता, पर गुलाम रसूल बताते हैं, कंबल की वजह से शरीर पानी से बचा रहता है। सर्दियों में ठंड से बच जाते हैं और जब कभी जंगल में आराम करना चाहो तो इसे बिछाकर लेट जाओ, वो हंसते हुए कहते हैं।

एक सवाल पर कहते हैं, पशु हमारे से आगे-आगे चलते हैं। पशु रोजाना एक जगह नहीं चरते। मान लो आज वो इस तरफ गए हैं, तो ठीक दूसरे दिन उस जगह पर नहीं जाएंगे। दूसरे दिन, वो किसी और जगह चरना चाहते हैं। पशु चरने की जगह खुद तलाशते हैं, हमारा काम उनकी देखरेख करना होता है कि उनको कोई तकलीफ न हो। हम पशुओं को किसी खतरे वाली जगह पर जाने से रोकते हैं। जंगल में इतनी सारी जड़ी बूटियां होती हैं, यदि कोई रोग पशुओं को होने की आशंका हो तो, उनका इलाज अपने आप हो जाता है।

गुलाम रसूल बताते हैं, उनको अंदाजा नहीं है कि कितने किलोमीटर रोजाना पैदल चलते हैं, पर यह दूरी लगभग 20 से 25 किमी. तो होगी।

सबसे ज्यादा दिक्कत गर्मियों में

बशीर बताते हैं, गर्मियों में जंगल में भी पत्तियां नहीं मिल पातीं। पानी की दिक्कत भी बढ़ जाती है। पशुओं को चराने जंगल ले जाते हैं, पर वहां उनका पेट नहीं भर पाता। इनके लिए भूसा और दाना पहले से ज्यादा खरीदना पड़ता है। इन दिनों तो डेरे के पास से जा रही नहर में साफ पानी है, पर गर्मियों में इसमें पानी नहीं मिल पाता, तब हम हैंडपंप चलाकर एक-एक पशु के लिए पानी जुटाते हैं।

पशुओं को भूखा कैसे छोड़ दें, इसलिए कोई छुट्टी नहीं 

किसी दिन मन नहीं किया, मौसम खराब है, तो क्या पशुओं को जंगल चराने नहीं लाते, ऐसा कभी हुआ है। पर गुलाम रसूल कहते हैं, हम कभी छुट्टी नहीं करते। हां, जब कभी किसी शादी समारोह में जाना होता है तो हम रात को जाते हैं और सुबह होते ही डेरे पर पहुंच जाते हैं। अगर स्वास्थ्य खराब है, तो घर से कोई न कोई पशुओं को चराने ले जाता है। हम भूखे रह सकते हैं, पर पशुओं को भूखा नहीं रख सकते।

बशीर बताते हैं, माई के रूप में काम करना मेरे लिए बड़े गर्व की बात है। हम कभी धूप में, कभी छांव में तो कभी बारिश में पशुओं के साथ जंगल में समय बिताते हैं। कई बार हमें जंगली जानवर हाथी, गुलदार दिख जाते हैं।

हाथी ने सूंड़ से उठाकर फेंका था मुझे

गुलाम रसूल बताते हैं, “कुछ साल पहले की बात है, मैं अपने साथी के साथ, पशुओं को लेकर जंगल में जा रहा था। हमें हाथी, जिसके साथ तीन-चार बच्चे थे, दिखाई दिया। हम उससे बचने के लिए झाड़ियों के पीछे से जाने लगे, पर हाथी ने मुझे पकड़ लिया। उसे देखकर मेरा साथी भाग गया।

माई गुलाम रसूल ने पशुओं के साथ अपने अनुभवों को साझा किया। फोटो- सार्थक पांडेय

पर, हाथी मुझे अपनी सूंड़ से कभी इधर तो कभी उधर हिलाने लगा, जैसे कि वो मुझे फुटबाल बनाकर खेल रहा था। थोड़ी देर में उसे पता नहीं क्या सूझा, मुझे सूंड़ से थोड़ी दूर तक फेंका और वहां से चला गया। उसके जाते ही, मेरा साथी पास आया और मुझे अस्पताल में भर्ती कराया गया। उसने मेरी हड्डियां तोड़ दी थी। उस दिन तो ऐसा लग रहा था, मैं अब नहीं बचूंगा, पर किसी तरह बच गया।”

सोशल एक्टिविस्ट मोहित उनियाल और नियोविजन संस्था के संस्थापक गजेंद्र रमोला, जो माई के साथ कुछ समय बिताने और उनके संघर्ष को जानने के लिए माई गुलाम रसूल के घर सुबह ही पहुंच गए थे। सभी स्थानीय निवासी शबीर अहमद के साथ माई से मिलने पहुंचे थे।

शबीर अहमद, जो गुर्जर समुदाय से हैं और माई से मुलाकात कराने के लिए हमारे साथ डेरे पर पहुंचे। शबीर गुर्जर समुदाय के मुद्दों को उठाते रहे हैं। फोटो- सार्थक पांडेय

शबीर भी वन गुर्जर हैं और स्वरोजगार करते हैं। शबीर वन गुर्जर समुदाय के संघर्ष और चुनौतियों को सबके सामने लाना चाहते हैं। उनका कहना है, आने वाले समय में पशुपालन काफी कम होने की आशंका है, क्योंकि आने वाली पीढ़ियां इस काम में ज्यादा रूचि नहीं ले रही हैं, क्योंकि इसमें फायदा नहीं है। बहुत मुश्किल से गुजर बसर हो पाती है।

सोशल एक्टीविस्ट मोहित उनियाल का कहना है, हमारे घरों तक पहुंचने वाले दूध के उत्पादन के लिए, जो संघर्ष किया जाता है, वो माई से बातें करके जानने को मिला। पशुओं के साथ दिनभर कई किमी. पैदल चलना कोई आसान काम नहीं है। माई से बातें करके बहुत अच्छा लगा। मोहित बताते हैं, यहां बह रही सुसवा नदी काफी प्रदूषित नदी है। पहले कभी इसमें साफ पानी बहता था। यह नदी हमारे गांव सिमलास से होकर आगे बढ़ती है। एक समय में, हम लोग गांव में इस नदी में नहाते थे, पर अब इसके पानी में पैर रखने का मतलब बीमार होना है।

सोशल एक्टीविस्ट मोहित उनियाल, जो गुर्जर समुदाय के माई के साथ कुछ समय बिताने पहुंचे। फोटो- सार्थक पांडेय

मोहित उनियाल की बात को आगे बढ़ाते हुए गुलाम रसूल कहते हैं, मैंने इसका साफ पानी देखा है। यहां पास में ही साफ पानी की धारा को नील धारा कहते थे। पर, अब इसमें काफी गंदगी बहकर आती है। इसमें घुसने से पैरों की खाल उचटने लगती है। पैरों में खुजली हो जाती है। माई बशीर बताते हैं, मैंने तो जबसे होश संभाला इस नदी को ऐसे ही गंदगी से भरा हुआ पाया।

नियो विजन संस्था के संस्थापक गजेंद्र रमोला, जो गुर्जर समुदाय के माई के साथ कुछ समय बिताने पहुंचे। फोटो- सार्थक पांडेय

नियो विजन संस्था के संस्थापक गजेंद्र रमोला कहते हैं, मैं सोच रहा था, माई कोई बूढ़ी मां होंगी, जिनके साथ बैठकर बातें करेंगे, उनके बहुत सारे अनुभवों को जानेंगे। पर, यहां आकर जब गुलाम रसूल और बशीर से मिला तो पता चला, माई वो शख्स होते हैं, जिनके सामने पशुओं को पालने, उनको चराने के लिए 12-12 घंटे जंगलों में बिताने की जिम्मेदारी है। उनको अपने हर पशु के बारे में पूरी जानकारी होती है। मैं तो शहर में पढ़ने वाले कुछ बच्चों को माई से मिलाने के लिए यहां लेकर आऊंगा।

Rajesh Pandey

राजेश पांडेय, देहरादून (उत्तराखंड) के डोईवाला नगर पालिका के निवासी है। पत्रकारिता में  26 वर्ष से अधिक का अनुभव हासिल है। लंबे समय तक हिन्दी समाचार पत्रों अमर उजाला, दैनिक जागरण व हिन्दुस्तान में नौकरी की, जिनमें रिपोर्टिंग और एडिटिंग की जिम्मेदारी संभाली। 2016 में हिन्दुस्तान से मुख्य उप संपादक के पद से त्यागपत्र देकर बच्चों के बीच कार्य शुरू किया।   बच्चों के लिए 60 से अधिक कहानियां एवं कविताएं लिखी हैं। दो किताबें जंगल में तक धिनाधिन और जिंदगी का तक धिनाधिन के लेखक हैं। इनके प्रकाशन के लिए सही मंच की तलाश जारी है। बच्चों को कहानियां सुनाने, उनसे बातें करने, कुछ उनको सुनने और कुछ अपनी सुनाना पसंद है। पहाड़ के गांवों की अनकही कहानियां लोगों तक पहुंचाना चाहते हैं।  अपने मित्र मोहित उनियाल के साथ, बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से डेढ़ घंटे के निशुल्क स्कूल का संचालन किया। इसमें स्कूल जाने और नहीं जाने वाले बच्चे पढ़ते थे, जो इन दिनों नहीं चल रहा है। उत्तराखंड के बच्चों, खासकर दूरदराज के इलाकों में रहने वाले बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से ई पत्रिका का प्रकाशन किया।  बाकी जिंदगी की जी खोलकर जीना चाहते हैं, ताकि बाद में ऐसा न लगे कि मैं तो जीया ही नहीं। शैक्षणिक योग्यता - बी.एससी (पीसीएम), पत्रकारिता स्नातक और एलएलबी, मुख्य कार्य- कन्टेंट राइटिंग, एडिटिंग और रिपोर्टिंग

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