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अखबारों में पत्रकारिता से बढ़ती हैं आपकी क्षमताएं

आप ऊर्जावान हैं। सकारात्मक सोच रखते हैं। कुछ अभिनव करना चाहते हैं। कुछ सीखने और समझने की कोशिश करते हैं। किसी खास विषय पर आपका फोकस है। सबसे अच्छी बात तो आपको अपने कार्य और सामाजिक जीवन में ईमानदार होना बहुत जरूरी है। पत्रकारिता में आपके लिए बहुत सारी संभावनाएं हैं। आप किस अखबार को भी ज्वाइन कर सकते हैं। आप जैसे लोगों को ही अखबार से जुड़ना चाहिए।

यहां आपको विषयों को समझने और लिखने का अवसर प्राप्त होगा। अखबार में काम करने से आपका मल्टीपल इंटेलीजेंस भी वक्त के साथ डेवलप होता है। यहां तर्क करने के साथ विश्लेषण और आकलन करने की क्षमता का भी विकास होता है। समन्वय और प्रबंधन क्षमता बढ़ती है, आपका सोशल इंटेलीजेंस बढ़ता है। आपका व्यवहारिक ज्ञान पहले से ज्यादा बढ़ जाता है। मेरी बात पर विश्वास नहीं है तो सीनियर्स महसूस करें कि पत्रकारिता में आने से उनकी किन क्षमताओं का विकास हुआ है। पर, यह महसूस वहीं करें, जो खुद को मेहनत के बल पर आगे बढ़ता देखना चाहते हैं, वो नहीं, जिनके लिए प्रगति के मायने सिर्फ और सिर्फ परिक्रमा हैं।

वैसे मुझे अखबारों में पत्रकारिता कम और नौकरी ज्यादा होेने का अनुभव हासिल है। इन सबके बीच, मैंने बहुत से संवाददाताओं के ऐसे कार्य देखें, जो सद्भाव को बढ़ाते हैं। पहले भी कहा है कि अभिव्यक्ति का प्रसार ही मीडिया की शक्ति है। इस शक्ति का इस्तेमाल कोई पत्रकार समाज की तरक्की के लिए संतुलित भाषा व मर्यादा में रहते हुए अच्छे व्यवहार, नैतिकता और ईमानदारी के साथ करता है तो निश्चित तौर पर उसको अखबार में रहने के दौरान भी और अखबार में नहीं रहने के दौरान भी याद किया जाता है।

यह बात तय है कि किसी नये शहर में रिपोर्टर अपनी पहचान अपने अखबार के माध्यम से कराता है। धीरे-धीरे अपनी कार्यशैली से उसकी व्यक्तिगत पहचान हो जाती है। यह पहचान या छवि अच्छी भी हो सकती है और खराब भी, यह उसके व्यक्तित्व पर निर्भर करता है।

वैसे तो मीडिया में काम करने का सबसे बड़ा फायदा, खासकर जब आप रिपोर्टिंग में होते हैं, व्यक्तित्व विकास है, जो आपको किसी से बात करना तक सिखाता है। व्यवहारिक अनुभवों के साथ आत्मविश्वास बढ़ता है। रिपोर्टर का लॉजिकल इंटेलीजेंस वक्त के साथ बढ़ता जाता है। उसमें इंटरपर्सनल इंटेलीजेंस यानी सामाजिकता का भाव पहले से कहीं ज्यादा होता है। खबरों को प्लान करना, अपने साथियों के साथ कोआर्डिनेट करना, किसी टास्क को समय के भीतर पूरा करने का दबाव उसकी प्रबंधन क्षमता को बढ़ाता है। खबरों का भी अपना प्रबंधन होता है। मसलन कोई टास्क कहां से कंपलीट होगा, इसका आकलन करना होता है।

किसी रिपोर्ट का विश्लेषण करना और उसको पाठकों से कनेक्ट करते हुए लिखना भी वक्त के साथ रिपोर्टर सीखते हैं। कोई भी लेख, जो पाठकों से कनेक्ट नहीं है, उसको खबर नहीं कहा जा सकता है। ऐसे में उसको लिखना बेकार है। यह आपको देखना होगा कि आप जो भी कुछ लिख रहे हैं, वो आपके शहर, जिले या राज्य के लोगों के लिए खबर है या नहीं।

खबरों को प्लान करते समय आपकी तार्किक, प्रबंधन व समन्वय की क्षमता कैसे काम आती है, इस पर चर्चा करते हैं। मान लीजिए, आपको देहरादून की सड़कों पर यातायात के दबाव को लेकर खबर प्लान करनी है। आप पहले उन सवालों की लिस्ट तैयार करेंगे, जिनकी वजह से देहरादून की सड़कों पर ट्रैफिक प्रेशर बढ़ रहा है। आपको इस टास्क को पूरा करने के लिए किन विभागों के किन अधिकारियों से बात करनी होगी। आपके सवाल क्या होंगे।

आप राज्यभर में हो रहे वाहनों के रजिस्ट्रेशन की वर्षवार जानकारी हासिल करेंगे। इससे आपको यह जानकारी मिल सकती है कि किस कैटेगरी की गाड़ियां राज्य में सबसे ज्यादा रजिस्टर्ड हो रही हैं। आप वर्षवार उनमें हो रही वृद्धि का विश्लेषण करेंगे। यह आंकड़ा यह बताने में मदद कर सकता है कि औसतन राज्य में किस कैटेगरी के कौन से वाहनों की संख्या किस दर से बढ़ रही है।

अगर सार्वजनिक परिवहन कम है और प्राइवेट वाहनों की संख्या तेजी से बढ़ रही है, तो ट्रैफिक प्रेशर का बड़े कारण और उसके समाधान को स्पष्ट किया जा सकेगा। प्राइवेट व्हीकल में भी कौन से वाहन बढ़ रहे हैं, जैसे फोर व्हीलर या टू व्हीलर। क्या वजह है कि प्राइवेट वाहन बढ़ रहे हैं। इसके लिए आप उन लोगों से बात कर सकते हैं, जो शहर में प्रतिदिन रोजगार के सिलसिले में करीब दस या 20 किमी. दूरी से आवागमन कर रहे हैं। ये लोग आपको दफ्तरों में मिल सकते हैं। वो बताएंगे कि वो प्रतिदिन अपने वाहन से ही सफर क्यों करते हैं। इससे आपको सार्वजनिक परिवहन पर निर्भर रहने वालों की दिक्कतों पर जानकारी मिल सकेगी। आपको इन सभी जानकारियों से संबंधित अधिकारियों से बात करनी होगी।

हो सकता है, उनके पास कोई सर्वे रिपोर्ट हो, जिसमें आपके तमाम सवालों के जवाब मिल जाएं। इस दौरान आपको बहुत सारी खबरें मिलेंगी, जिनको सिलसिलेवार लिख सकेंगे। रिपोर्टिंग में अनुभवों और फील्ड रिपोर्टिंग के आधार पर कुछ अनुमान लगाए जाते हैं। इनको पुष्ट करने के लिए आपको बेहतर प्लान के साथ मेहनत करनी होती है। राज्यभर में कारों के रजिस्ट्रेशन से आपको उनकी बिक्री का अनुमानित आंकड़ा मिल सकता है। यह एक शानदार खबर बन सकती है।

किसी भी शहर में ट्रैफिक प्रेशर की वजह से वहां के अधिकतर तिराहों और चौराहों पर जाम लगता है। क्या बार-बार जाम में फंसने से मानसिक तनाव बढ़ता है। क्या इससे व्यवहार मे ंकोई नकारात्मक असर पड़ सकता है। इन सभी सवालों के जवाब आपको मनोविज्ञानियों से मिल सकते हैं। शहर में सड़कों पर गड्ढों में गाड़ियों, खासकर बाइकों के हिचकोले खाने से क्या हड्डी संबंधी रोग बढ़ते हैं, बात करिएगा, किन्हीं हड्डी रोग विशेषज्ञों से। इन जैसे तमाम मुद्दों पर आप खबरें लिख सकते हैं। ये खबरें तभी तथ्यपरक और पठनीय होंगी, जब आप लॉजिकली प्लान करके इन पर काम करेंगे।

खबरों को लेकर सेंस तभी होगा, जब आप मुद्दों और उनके समाधान के लिए जिज्ञासु होंगे। सवालों की लिस्ट तैयार रखिएगा। अपनी फील्ड के अनुभवी लोगों से मिलते रहिए। यह जरूरी नहीं है कि किसी भी विषय के जानकार कोई अधिकारी या बहुत पढ़े लिखे लोग ही होंगे। सभी से बात करते रहिएगा, संवाद बनाकर रखिएगा, आपकी जानकारियां बढ़ती रहेंगी। कहने का मतलब है कि रिपोर्टिंग में सेंस डेवलप होता है। यह बात सही है कि आप किसी अखबार से जुड़कर ही संबंधित लोगों से बात कर पाएंगे।

सेंस डेवलप होने का मतलब है कि किसी भी व्यक्ति के लिए, जो बात सामान्य हो सकती है, वो किसी रिपोर्टर के लिए खबर। रिपोर्टिंग की एक बात जो कमाल की है, वो आपको संवेदनशील बनाती है। मैं फिर दोहराऊंगा, यह बात केवल उन रिपोर्टर के लिए है, जो वास्तव में कुछ बड़ा करने की इच्छा से पत्रकारिता में आए हैं। यहां बड़ा करने का मतलब अपने आर्थिक हालातों को सुधारने से कतई नहीं है। एक किस्से के साथ आज की बात को विराम दूंगा।

बात ऋषिकेश की है। त्रिवेणीघाट चौराहे एक बच्चा, उम्र सात या आठ साल होगी। एक ठेली से खाने का सामान उठाकर दौड़ा। ठेलीवाला कुछ देर तक उसके पीछे दौड़ा और फिर अपनी ठेली के पास खड़ा हो गया। इस बच्चे के गाल पर खरोंच के निशान दिखाई दे रहे थे। मैंने ठेलीवाले से पूछा, क्या यह बच्चा यही का है। उन्होंने कहा, मैं इसे दो दिन से ही देख रहा हूं। आसपास से खाने का सामान उठाकर दौड़ता है।

एक बार मन किया, होगा कोई… यहीं रहता होगा। मन नहीं माना…। पास में ड्यूटी कर रहे होमगार्ड के जवान से कहा, क्या आप इसको देखते रह सकते हो। वह मुझे जानते थे, उन्होंने कहा, ठीक है, हम देखते रहेंगे। मैंने उनसे कहा, पहले इसको कोतवाली ले चलते हैं। कोतवाली की देखरेख में इसके लिए एक आश्रम में रहने की व्यवस्था की जा सकती है। इसको इस तरह सड़क पर घूमने नहीं दे सकते। मैंने एक आश्रम में बात कर लेता हूँ।

मैं अपने दफ्तर चला गया। वापस लौटा तो बच्चा वहां नहीं मिला। मैंने कोतवाली में पता किया तो मालूम हुआ कि होमगार्ड बच्चे को कोतवाली ले आए थे। सूचना पर उस समय ऋषिकेश निवासी लायंस क्लब के पदाधिकारी गोपाल नारंग बच्चे के लिए कपड़े ले आए। उन्होंने स्वयं बच्चे का मुंह और हाथ पैर धोए। उसको कपड़े पहनाए। पुलिस ने अपनी मैस में से उसको खाना खिलाया। बच्चा खाना खाकर, कपड़े पहनकर बहुत खुश था।

रात काफी हो गई थी। हम बच्चे को कोतवाली मे छोड़कर अपने घरों की ओर चले गए। सुबह दस बजे सीधे कोतवाली पहुंचा तो वहां बच्चा नहीं था। पूछा तो, हमें पुलिस की सजगता का बहुत बड़ा प्रमाण मिला। हमें नहीं पता था कि एक छोटी सी पहल कितना बड़ा काम कर सकती है। मालूम हुआ कि बच्चे को उसके पिता अपने घर चरथावल, मुजफ्फरनगर लेकर चले गए। जानकारी मिली कि एसएसआई कुकरेती जी ने बच्चे से बात की थी। वह बहुत कुछ जानकारी नहीं दे पा रहा था।

एसएसआई साहब ने उसके हाथ पर किसी का नाम और स्थान का नाम लिखा हुआ पाया। उन्होंने तुरंत संबंधित नाम के बारे में वहां के थाने से संपर्क किया। पता चला कि बच्चे के हाथ पर उसके पिता का नाम लिखा हुआ था। यह बच्चा करीब कुछ माह से गायब चल रहा है। बस फिर क्या था, पुलिस से सूचना मिलने पर उसके पिता तड़के ही ऋषिकेश पहुंच गए। बच्चे को देखकर पिता बहुत खुश हुए। दोनों एक दूसरे को देखकर रोने लगे। इस तरह एक पिता को बच्चा और बच्चे को पिता का प्यार फिर से मिलने लगा।

यह जानकारी साझा करने का उद्देश्य सिर्फ यह बताना है कि रिपोर्टिंग के दौरान मिले अनुभव आपमें सेंस विकसित करते हैं। यही बात एक रिपोर्टर को सामान्य व्यक्ति से कुछ अलग दर्शाती है। कल फिर मिलते हैं… पत्रकारिता के ऐसे ही एक शानदार संस्मरण के साथ।

Rajesh Pandey

राजेश पांडेय, देहरादून (उत्तराखंड) के डोईवाला नगर पालिका के निवासी है। पत्रकारिता में  26 वर्ष से अधिक का अनुभव हासिल है। लंबे समय तक हिन्दी समाचार पत्रों अमर उजाला, दैनिक जागरण व हिन्दुस्तान में नौकरी की, जिनमें रिपोर्टिंग और एडिटिंग की जिम्मेदारी संभाली। 2016 में हिन्दुस्तान से मुख्य उप संपादक के पद से त्यागपत्र देकर बच्चों के बीच कार्य शुरू किया।   बच्चों के लिए 60 से अधिक कहानियां एवं कविताएं लिखी हैं। दो किताबें जंगल में तक धिनाधिन और जिंदगी का तक धिनाधिन के लेखक हैं। इनके प्रकाशन के लिए सही मंच की तलाश जारी है। बच्चों को कहानियां सुनाने, उनसे बातें करने, कुछ उनको सुनने और कुछ अपनी सुनाना पसंद है। पहाड़ के गांवों की अनकही कहानियां लोगों तक पहुंचाना चाहते हैं।  अपने मित्र मोहित उनियाल के साथ, बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से डेढ़ घंटे के निशुल्क स्कूल का संचालन किया। इसमें स्कूल जाने और नहीं जाने वाले बच्चे पढ़ते थे, जो इन दिनों नहीं चल रहा है। उत्तराखंड के बच्चों, खासकर दूरदराज के इलाकों में रहने वाले बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से ई पत्रिका का प्रकाशन किया।  बाकी जिंदगी की जी खोलकर जीना चाहते हैं, ताकि बाद में ऐसा न लगे कि मैं तो जीया ही नहीं। शैक्षणिक योग्यता - बी.एससी (पीसीएम), पत्रकारिता स्नातक और एलएलबी, मुख्य कार्य- कन्टेंट राइटिंग, एडिटिंग और रिपोर्टिंग

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