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आइए, सुसवा के लिए कुछ करें  

मुझे नदी से नाला बनाकर तुमने मेरा जेंडर बदल दिया। क्या प्रकृति की सौगात का आभार इस तरह व्यक्त किया जाता है। तुमने मुझे वेंटीलेटर पर पहुंचाया है और वहां से बाहर लाने की जिम्मेदारी भी तुम सबकी होगी। यह मेरा तुमसे आग्रह है, पर तुम्हें इसे अपना नैतिक कर्तव्य भी समझना होगा।
क्या सुसवा का पानी फिर से पीने लायक हो सकता है। अगर ऐसा संभव है तो वो कौन से जरूरी उपाय हैं, जिनसे जीवनदायिनी गंगा की सहायक सुसवा को अपने अतीत जैसा खूबसूरत जीवन मिल सके।  दृष्टिकोण समिति, क्लाइमेट चेंज और सुसवा क्षेत्र के निवासियों ने रविवार को सुसवा नदी के तट पर उन सभी मुद्दों पर बात की, जो सुसवा में प्रदूषण के लिए जिम्मेदार हैं। समस्या ही नहीं समाधान पर भी फोकस किया गया। जल्द ही आपको सुसवा के लिए कुछ होता दिखेगा, पर इसमें आप सभी को योगदान करना होगा।
दूधली घाटी में जैविक कृषि पर वर्षों से कार्य कर रहे किसान उमेद सिंह बोरा का कहना था कि पहले सुसवा नदी का पानी पीने लायक था। दूधली की बासमती पूरे देश में प्रसिद्ध थी। बासमती की खुश्बू इतनी कमाल की थी कि एक घर में बासमती पकती थी तो पूरे गांव को पता चल जाता था। स्वाद के क्या कहने। बासमती को इस लायक बनाने मे सुसवा का बड़ा योगदान था। अब यह नदी देहरादून शहर का कचरा ढोकर लाती है और हमारे खेतों को कैमिकल बांट रही है। मेरा एक सवाल है, अगर हमारी नदियां स्वच्छ और निर्मल नहीं रहीं तो खेती को जैविक कैसे बना सकते हैं। वो खुश्बू, स्वाद और सेहत बनाने वाली फसल कहां से पैदा होगी।
बोरा बताते हैं, यहां की बासमती एक कंपनी के माध्यम से जर्मन तक निर्यात होती थी, पर वहां इसका सैंपल फेल हो गया। बासमती में कैमिकल पाया गया। वजह जानी गई तो सुसवा का पानी जिम्मेदार निकला। आपको पता है कि सुसवा से सींचे जाने वाले खेतों में प्रदूषण की मोटी लाल रंग की लेयर बन गई हैं। वर्मी कंपोस्ट नहीं पनप पा रहा है। उपज में गिरावट आने लगी है, क्योंकि खेतों की उर्वरा शक्ति कम होती जा रही है। प्याज तक नहीं उग रहा है खेतों में। कभी महाशीर मछलियों से भरी रहने वाली सुसवा से मछलियों ने विदा ले ली है।
बारिश का पानी जमीन में जाने की बजाय सतह पर बहता है और बाढ़ का कारण बनता है। भूजल स्तर कम हो रहा है। यहां तक आते आते सुसवा में छह नालें मिल चुके होते हैं। किसान पॉलीथिन का इस्तेमाल नहीं करता। किसान खेतों में कैमिकल नहीं डालता, पर जब नदी के पानी में इतना कैमिकल मिला आ रहा हो तो क्या किया जाए।
सुसवा के संरक्षण पर कई वर्ष से जागरूकता अभियान चला रही दृष्टिकोण समिति के अध्यक्ष व क्षेत्रीय कास्तकार मोहित उनियाल का कहना है कि नागल ज्वालापुर, बड़ोवाला में हमारे पैतृक घर के बीच से एक नहर गुजरती है, जिसके पानी में हम नहाते थे। पानी को छानकर पीया जाता था। यह नहर सुसवा से निकाली गई थी। उस समय ट्यूबवैल नहीं होते थे तो गांववाले सुसवा का पानी पीते थे। सिंचाई में भी इसी पानी को इस्तेमाल करते थे। अब तो यह सिंचाई के लायक भी नहीं है। राजाजी टाइगर रिजर्व पार्क के जानवर भी यही प्रदूषित पानी पी रहे हैं। देहरादून शहर में नाले में बदल गईं नदियां रिस्पना, बिंदाल का प्रदूषित पानी सुसवा में मिलता है और हालात यह हैं कि इसमें पैर रखने का मतलब बीमार हो जाना है। शहर का कचरा सुसवा में मिलने से रोका जाना चाहिए।
मोहित कहते हैं कि जागरूकता तो जरूरी है ही, साथ ही पुख्ता योजना का भी महत्वपूर्ण योगदान होता है। सुसवा में वाटर ट्रीटमेंट प्लांट लगाने के लिए क्षेत्र के युवाओं, छात्र-छात्राओं, किसानों ने हस्ताक्षर अभियान चलाया था। छोटे स्तर के कार्य संस्थाओं के माध्यम से होते हैं। हम स्थानीय स्तर पर लोगों को जागरूक कर सकते हैं कि सुसवा में कूड़ा न फेंका जाए। नदी को साफ रखा जाए। कुछ दिन स्वच्छता के लिए अभियान चला सकते हैं, पर क्या एक या दो दिन से अभियान से सुसवा साफ हो जाएगी, शायद नहीं। हां, यह बात तो सही है कि हमें अपना कर्तव्य निभाते रहना है पर जहां कोई भी बड़ी आवश्यकता होती है, वहां सरकार की भूमिका अहम होती है।
पर्यावरण के पैरोकार आयुष जोशी ने उन सभी तकनीकी और कानूनी उपायों पर चर्चा की, जिनसे हिमालयी क्षेत्र, वनों, नदियों और प्रकृति की सौगातों को संरक्षित करने में मदद मिल सकती है। ईको सेंसिटिव जोन के लिए जरूरी तत्वों पर चर्चा करने के साथ ही उन्होंने इस बात पर भी जोर दिया कि जब तक किसी क्षेत्र के लोग नहीं चाहेंगे, तब तक वहां की नदियों और वनों को संरक्षित नहीं किया जा सकता। पहल हमें करनी होगी, तभी सुसवा को पुराने स्वरूप में लाने के प्रयास शुरू हो पाएंगे।
आयुष ने उस प्रक्रिया पर भी बात की, जिसमें नदी में फैले प्लास्टिक कचरे को आय का जरिया बनाया जा सकता है। नदी में प्लास्टिक, पॉलीथिन सहित शहर से आने वाले कचरे को रोकने तथा पानी को कम से कम सिंचाई के लायक बनाने की प्रक्रिया और जरूरी संसाधनों व प्रयासों पर भी फोकस किया। बताते हैं कि 2003 से लेकर सुसवा पर तमाम अध्ययन हो रहे हैं। स्टडी के साथ नदी को प्रदूषणमुक्त करने की दिशा में भी पहल होनी चाहिए।
एक बात और कि सॉलिड वेस्ट मैनेजमेंट प्लांट्स के नदियों के किनारे बने होने की वजह से बरसात में कचरा नदियों में बहता है। समाधान पर बात करें तो नदियों का कचरा इकट्ठा करने के साथ चैक डेम बनाकर कचरे का आगे बढ़ने से रोका जाए, साथ ही अवेयरनैस कैंपेन के माध्यम से लोगों को नदियों में कचरा फेंकने से रोक सकते हैं। इस प्लास्टिक कचरे को रोड बनाने में इस्तेमाल किया जा सकता है। इस कार्य में स्थानीय निकायों का योगदान अहम है। पर्यावरणविद् आयुष जोशी ने सुसवा में प्रदूषण की स्थिति, प्रदूषण की वजह, समाधान की प्रक्रिया और तंत्र, प्रदूषण के प्रभाव और उपायों का अध्ययन करने की बात कही।
डोईवाला स्थित पब्लिक इंटर कालेज के प्रिंसिपल जितेंद्र कुमार कहते हैं कि मुझे याद है कि करीब 20-25 साल पहले हम सुसवा नदी में नहाते थे। अब नदी में पैर रख दो, तो फफोले पड़ जाएंगे। सुसवा का प्रदूषित होने का अर्थ है, इसके किनारे बसे गांवों की आर्थिक स्थिति पर प्रहार होना भी है। खेती में प्रदूषित पानी मिलने से उपज पर असर पड़ रहा है। फसल के माध्यम से कैमिकल हमारे शरीर में जा रहा है। स्वास्थ्य प्रभावित हो रहा है। रोगों की आशंकाएं बढ़ रही हैं।
दिल्ली विश्वविद्यालय से ग्रेजुएशन कर रहीं क्लाइमेट चेंज ग्रुप की प्रमुख सदस्य सलोनी रावत कहती हैं कि जब हम जानेंगे ही नहीं तो सुसवा नदी के बारे में सोचेंगे भी नहीं। सबसे पहले तो हमें ज्यादा से ज्यादा लोगों को सुसवा नदी के बारे में बताना होगा। सुसवा कैसी नदी थी, उस पर कितने गांवों की आर्थिक स्थिति निर्भर करती है। स्वच्छता और स्वास्थ्य कैसे प्रभावित हो रहे हैं। यह सब हमें बताना होगा।
सलोनी ने कहा कि अपनी प्राकृतिक धरोहरों के प्रति संवेदनशील होकर ही हम उनके संरक्षण की बात कर पाएंगे। खासकर युवाओं को इस मुहिम का हिस्सा बनाना होगा। किसी नदी को उसके पुराने स्वरूप में लाना, आसपास का वातावरण जैवविविधता के मुफीद बनाने के लिए जागरूकता के साथ वो उपाय भी जरूरी हैं, जिनसे आवश्यक संसाधनों की व्यवस्था हो। हमें जागरूकता अभियान पर कार्य करना होगा।  सुसवा के स्वरूप में क्या परिवर्तन आया है। उसमें प्रदूषण के कारक क्या हैं। इस नदी को पुनर्जीवित करने में हमारा क्या योगदान हो सकता है,इन सब पर ठोस प्लान बनाना होगा। पूरी तैयारी के साथ सरकार और प्रदूषण नियंत्रण से संबंधित सरकारी एजेंसियों से बात की जाए।
हिमगीरी जी यूनिर्वसिटी में शिक्षक रविद्र ने कहा कि नदियां धरा का सौंदर्य हैं और उनका सौंदर्य बरकरार रखना हमारी जिम्मेदारी है। हमें यह समझना होगा कि व्यक्तिगत क्या है और सार्वजनिक क्या होता है। उन्होंने झारखंड की स्वर्णरेखा नदी का जिक्र करते हुए कहा कि एल्गी से प्रदूषित नदी हरे रंग की दिखती है पर यहां रिस्पना, बिंदाल और यहां सुसवा नदी प्लास्टिक कचरा, पॉलीथिन से भरी हैं। नदियों में प्रदूषण का मतलब उसके किनारे रहने वाले लोगों के स्वास्थ्य पर असर से भी हैं। उन्होंने सुझाव दिया कि हम सुसवा के उद्गम तक जाएं और फिर वहां से वाक करते हुए उसके जल में होते बदलाव का अध्ययन करें। सक्षम पांडेय ने। इस पूरी चर्चा को कवरेज किया।
इस दौरान तकधिनाधिन की ओर से सुसवा की चिट्ठी सुनाई गई, जिसमें नदी ने अपने सुनहरे अतीत और वर्तमान दुर्दशा का जिक्र किया है। नदी ने अपने उपहार भी बताए। साथ ही, उसमें बह रहे जहर को बाहर निकालने का आग्रह भी किया। इस मौके पर आसिफ, आरिफ, शुभम कांबोज आदि उपस्थित रहे।

Rajesh Pandey

राजेश पांडेय, देहरादून (उत्तराखंड) के डोईवाला नगर पालिका के निवासी है। पत्रकारिता में  26 वर्ष से अधिक का अनुभव हासिल है। लंबे समय तक हिन्दी समाचार पत्रों अमर उजाला, दैनिक जागरण व हिन्दुस्तान में नौकरी की, जिनमें रिपोर्टिंग और एडिटिंग की जिम्मेदारी संभाली। 2016 में हिन्दुस्तान से मुख्य उप संपादक के पद से त्यागपत्र देकर बच्चों के बीच कार्य शुरू किया।   बच्चों के लिए 60 से अधिक कहानियां एवं कविताएं लिखी हैं। दो किताबें जंगल में तक धिनाधिन और जिंदगी का तक धिनाधिन के लेखक हैं। इनके प्रकाशन के लिए सही मंच की तलाश जारी है। बच्चों को कहानियां सुनाने, उनसे बातें करने, कुछ उनको सुनने और कुछ अपनी सुनाना पसंद है। पहाड़ के गांवों की अनकही कहानियां लोगों तक पहुंचाना चाहते हैं।  अपने मित्र मोहित उनियाल के साथ, बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से डेढ़ घंटे के निशुल्क स्कूल का संचालन किया। इसमें स्कूल जाने और नहीं जाने वाले बच्चे पढ़ते थे, जो इन दिनों नहीं चल रहा है। उत्तराखंड के बच्चों, खासकर दूरदराज के इलाकों में रहने वाले बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से ई पत्रिका का प्रकाशन किया।  बाकी जिंदगी की जी खोलकर जीना चाहते हैं, ताकि बाद में ऐसा न लगे कि मैं तो जीया ही नहीं। शैक्षणिक योग्यता - बी.एससी (पीसीएम), पत्रकारिता स्नातक और एलएलबी, मुख्य कार्य- कन्टेंट राइटिंग, एडिटिंग और रिपोर्टिंग

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