राजेश पांडेय। न्यूज लाइव
“मैं पढ़ाई करके पुलिस में भर्ती होना चाहती थी। अपने पापा के कपड़े पहनती थी कि मैं भी पुलिस बन जाऊं, कुछ कर के दिखाऊं। किसी महिला को पुलिस की यूनीफार्म में देखती हूं तो सोचती हूं कि हमारे ख्वाब दिल में ही रह गए। जिनके सपने पूरे हो गए, उनको देखकर अच्छा लगता है।”
करीब 40 वर्षीय निर्मला देवी, रुद्रप्रयाग के संसारी गांव में रहती हैं। उनका कहना है, “मैं तो यही कहूंगी कि पढ़ना अच्छी बात है। मैं अपने बच्चों की किताबों को पढ़कर भी सीखी हूं। बच्चों को पढ़ाते पढ़ाते थोड़ा बहुत जान लिया। आर्थिक मजबूरी थी, इसलिए आठवीं तक ही पढ़ पाई, पर चाहती हूं कि हमारे बच्चे पढ़ लिखकर आगे बढ़ें। हमारे सपनों को साकार करें।”
उत्तराखंड के गांवों में महिलाओं से संवाद के दौरान उनकी पढ़ाई लिखाई और घर परिवार की जिम्मेदारियों के बारे में बात की, तो अधिकतर महिलाओं का यही कहना था कि पढ़ लिखकर कुछ बनने की उनकी इच्छा अधूरी रह गई। हालांकि, अब बेटियों की शिक्षा को लेकर काफी बदलाव आया है। वो अपनी बेटियों को स्कूल, कॉलेज भेज रही हैं। खासकर दूर के गांवों की बेटियों के सामने इंटरमीडियेट के बाद पढ़ाई जारी रखना चुनौती है।
खड़पतिया गांव की गौरी ने करीब दो साल पहले इंटर पास कर लिया था। उनके लिए सबसे नजदीकी डिग्री कॉलेज रुद्रप्रयाग है, जो घर से करीब 25 किमी. दूर है। रुद्रप्रयाग तक सीधी सड़क है, पर गौरी के लिए प्रतिदिन बस या टैक्सी का किराया देकर वहां जाना संभव नहीं हो पा रहा है, क्योंकि परिवार की आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं है कि वो इस खर्चे को वहन कर सकें। गौरी अन्य बच्चों की तरह शहर में किराये का कमरा लेकर रहने की आर्थिक स्थिति में नहीं हैं। उनके पास या तो पढ़ाई बंद कर देने या फिर ओपन यूनिवर्सिटी से पढ़ाई करने का विकल्प है। फिलहाल गौरी ग्रेजुएशन नहीं कर पा रही हैं। खेतीबाड़ी में परिवार को सहयोग कर रही हैं।
रुद्रप्रयाग जिले के जखोली ब्लाक के पाट्यो गांव की महिलाएं मानती हैं कि पढ़ाई लिखाई के बिना जीवन में कुछ भी नहीं। वो पढ़ना चाहती थीं, पर पारिवारिक परिस्थितियों की वजह से वो स्कूल नहीं जा पाईं। पाट्यो की शिवदेई देवी नेगी, जिनकी उम्र लगभग 45 वर्ष है, बताती हैं, “पांचवीं तक ही पढ़ाई कर पाई। मैं 12वीं कक्षा तक पढ़कर नौकरी करना चाहती थी, पर ऐसा नहीं हो सका। जब भी समय मिलता है, बेटियों की किताबें पढ़ती हूं। जब बच्चे स्कूल चले जाते थे, तब भी उनकी किताबों को पढ़ती रही। हंसते हुए कहती हैं, मुझे पढ़ना अच्छा लगता है, पर अब आंखें साथ नहीं देती। पढ़ाई लिखाई बहुत जरूरी है।”
पाट्यो गांव की ही, हेमंती देवी का कहना है, “बिना पढ़ाई के तो कुछ भी नहीं है। मैंने सोचा था कि इंटर करूंगी, नौकरी लग जाएगी। कम उम्र में माता पिता ने शादी कर दी। पढ़ाई लिखाई बीच में ही छूट गई। “अगर आपसे पढ़ाई फिर से शुरू करने के लिए कहा जाए, तो क्या आप ऐसा करेंगे, पर कहती हैं, “अब बच्चे बड़े हो गए हैं, अब नहीं पढ़ सकती।”
गुड्डी नेगी, भी पाट्यो गांव में ही रहती हैं, कहती हैं, “मैं भी पढ़ाई करना चाहती थी, पर जब मैं 12 वर्ष की थी, मेरी मां अस्वस्थ हो गई थीं। पढ़ाई छूट गई थी, मुझे माता पिता ने 16 वर्ष की उम्र में ससुराल भेज दिया। बहुत कठिनाइयों का सामना किया। यहां बहुत काम था, ऐसे में कहां से पढ़ाई कर पाती। आज मैं अपनी बेटियों को पढ़ाई करके जीवन में आगे बढ़ने के लिए कह रही हूं।”
इसी गांव की पुष्पा देवी कहती हैं, “हम सभी महिलाएं, जो यहां बैठी हैं, अधिकतर पांचवीं पास हैं। शिक्षा को लेकर पहले और अब में काफी बदलाव आया है। अब माता पिता बच्चों को पढ़ाई के लिए प्रोत्साहित कर रहे हैं।”
चंद्रापुरी बुटोल गांव की सतेश्वरी गोस्वामी कहती हैं, “पहले के लोग बेटियों को पढ़ाना नहीं चाहते थे। अब तो काफी बदलाव आ गया है।”
बुटोल गांव की सुंदरी देवी, जिनकी आयु लगभग 45 वर्ष है, बहुत सुंदर गाती हैं। आसपास के गांवों में भजन कीर्तनों में उनको आमंत्रित किया जाता है। बताती हैं, “मैंने आठवीं तक पढ़ाई की। घर से स्कूल चार-पांच किमी. दूर था, वो भी सीधी चढ़ाई पर। छोटे बच्चे बड़ी मुश्किल से स्कूल पहुंच पाते थे। मेरी पढ़ने की बहुत इच्छा थी, पर माता पिता ने आठवीं के बाद नहीं पढ़ने दिया। मेरा ऐसा कोई सपना नहीं था कि मैं कुछ बन जाऊं, पर मैं खूब पढ़ना चाहती थी। अब भी लगता है कि पढ़ाई करूं, पर घर परिवार की जिम्मेदारियां हैं और आंखें भी साथ नहीं देती।”
“मेरा स्कूल छूट गया तो मन गाने भजन में लगा लिया। मैंने गीत, भजन गाने का काफी अभ्यास किया। ढोलक बजानी सीखी। मुझे गीतों में बुलाया जाता है। बहुत अच्छा लगता है। मैं पशु पालती हूं, खेती करती हूं। हम दूसरे लोगों के खेतों में भी काम करते हैं। बेटियों को बीए, एमए पढ़ा दिया। बेटा इंटर कक्षा में है। उस समय बेटियों की पढ़ाई पर ध्यान नहीं दिया जाता था,” सुंदरी देवी कहती हैं।
उनका कहना है, “मैं तो कहती हूं वो मां बाप दुश्मन होते हैं, जो अपने बच्चों को नहीं पढ़ाते। अब तो काफी बदलाव आया है। बेटे बेटियों के बीच भेद खत्म होता जा रहा है। बेटियों को भी बेटों की तरह स्कूल- कॉलेज भेजा जा रहा है। यह अच्छी बात है।”
रुद्रप्रयाग जिला के भणज की रहने वालीं किरण की ससुराल बुटोल गांव चंद्रापुरी में है। उन्होंने इंटरमीडिएट तक पढ़ाई की है। किरण स्कूल के समय में खेलकूद प्रतियोगिताओं में सबसे आगे रहती थीं। दौड़, खो-खो, कबड्डी में उन्होंने ब्लाक व जिला स्तर तक मेडल व पुरस्कार हासिल किए हैं। बताती हैं, उनकी शिक्षक मीना बिष्ट हमेशा प्रोत्साहित करती थीं कि “किरण तुम क्रीड़ा के क्षेत्र में नाम रोशन करना।”
किरण बताती हैं, इंटर पास करने के बाद मेरी शादी हो गई। मैं घर के कामकाज, खेतीबाड़ी में सहयोग करती हूं और पढ़ाई के लिए भी समय निकालती हूं। मैं मोबाइल पर समाचार देखती हूं। अभी कल की ही बात है, मैं मोबाइल पर बष्टा गांव की खबर पढ़ रही थी, जहां बाघ ने एक बच्चे को मार दिया है। ऐसा नहीं है कि हम महिलाएं, पूरा समय घर परिवार व खेतीबाड़ी के काम ही करते रहते हैं। हम अपने लिए समय निकालते हैं। मैंने तो कामकाज को इस तरह मैनेज किया है कि अपने लिए भी समय निकल जाता है।
हमारे पूछने पर किरण बताती हैं, मुझे नहीं मालूम कि यहां बैठी महिलाओं को खेलकूद में मेरी प्रतिभा के बारे में पता है या नहीं, पर मेरी शिक्षिका मुझे प्रोत्साहित करती थीं। अभी भी, अगस्त्यमुनि में महिलाओं की कोई क्रीड़ा रैली होगी, तो मैं उसमें जरूर प्रतिभाग करूंगी। मैं इस बात का ध्यान जरूर रखूंगी कि खेल प्रतियोगिता में शामिल होने से, घर का कोई कामकाज प्रभावित न हो। महिलाओं को चाहिए कि वो घर के काम भी करें और साथ ही, अपने भविष्य पर भी ध्यान दें।
ऊखीमठ के पास संसारी गांव की विमला ने पढ़ाई नहीं की। कहतीं हैं, खेतीबाड़ी का काम बहुत किया। पशु बहुत पाले। लोग गरीब होते थे। पढ़ाने के लिए पैसे नहीं थे। कहते थे, पढ़ कर क्या करना। घास काटो, भैंस पालो, खेती करो। पहले लोग घर के काम करना, पशु पालना और खेती करना अच्छा मानते थे। संसारी गांव में शिवदेई देवी बताती हैं, मैं पांचवीं पढ़ी हूं। अपने बच्चों की किताबों को पढ़ती थी। मैं इंगलिश भी जानने लगी हूं। डिक्शनरी साथ रखती हूं।
संसारी की ही, शिवानी ग्रेजुएशन कर रही हैं, अभी उनकी उम्र पुलिस में भर्ती की नहीं है। वो पुलिस बनना चाहती हैं। कहती हैं, मैं पुलिस भर्ती की तैयारी कर रही हूं। उनका कहना है, पढ़ाई से ज्ञान बढ़ता है। हमें अपने अधिकारों की जानकारी होती है। हम अपनी बात रख सकते हैं। वहीं, इसी गांव की रंजना हाईस्कूल पास हैं, वो और पढ़ना चाहती थीं, पर उनकी शादी कर दी गई। इसलिए पढ़ाई बीच में रुक गई। रंजना कहती हैं, पढ़ाई भी करो, खेती भी करो। दोनों बातों को साथ में लेकर चलो। जरूरी नहीं है कि नौकरी के लिए ही पढ़ाई की जाए।
बीए पास अनीता देवी खुमेरा गांव की प्रधान हैं। अनीता बीएड करके शिक्षिका बनना चाहती थीं। कहती हैं, “उन्होंने पौड़ी से बीए किया है, यहां डिग्री कॉलेज दूर है। बीएड नहीं कर पाई, पर एक जनप्रतिनिधि होने के नाते उनका पूरा प्रयास रहता है कि शिक्षा व्यवस्था में संसाधनों की कोई कमी न रह पाए। बेटियों की शिक्षा के लिए लोगों को जागरूक करती हूं, कि हमारी पीठ का बोझ बेटियों तक न पहुंचे। बेटियों को पढ़ाना, लिखाना है और जीवन में आगे बढ़ाना है।”
राजकीय में छात्राएं ज्यादा, निजी स्कूलों में छात्र अधिक
उत्तराखंड आर्थिक सर्वेक्षण 2020-21 की रिपोर्ट के अनुसार, उत्तराखंड में माध्यमिक विद्यालयों में ड्रापआउट रेट 8.3 फीसदी है। राज्य के 2718 राजकीय एवं सहायता प्राप्त अशासकीय माध्यमिक विद्यालयों में 551977 छात्र-छात्राएं हैं, जिनमें बालिकाओं की संख्या 292250 है, जो बालकों की संख्या 259727 से अधिक है। यदि हम प्राइवेट स्कूलों में नामांकन पर ध्यान दें, तो वहां बालिकाओं की संख्या 275867 है, जबकि इन स्कूलों में 378129 बालक पढ़ाई करते हैं। राज्य में 1083 माध्यमिक स्तरीय निजी विद्यालय हैं।
ठीक ऐसी ही स्थिति प्राथमिक शिक्षा में देखने को मिलती है। उत्तराखंड के 14183 राजकीय प्राथमिक विद्यालयों में बालिकाओं की संख्या 228076 है, जो बालकों की संख्या 213381 से ज्यादा है, पर जब हम राज्य के 4313 प्राइवेट स्कूलों की बात करते हैं, तो वहां बालिकाओं की संख्या 238755 बालकों की संख्या की तुलना में बहुत कम है। प्राइमरी लेवल पर निजी स्कूलों में 299744 बालकों का पंजीकरण है।
यह बात सही है कि बालिकाओं की पढ़ाई को लेकर हालात सकारात्मक रूप से बदले हैं, उनको भी स्कूल भेजा जा रहा है, पर जब निजी विद्यालयों में पढ़ाने की बात होती है, तो अक्सर बालकों को ही प्राथमिकता मिलती है। वहीं, बेटियों को गांव से दूर शहर में रहकर निजी विद्यालयों में पढ़ाई का अवसर कम ही मिलता है।
वरिष्ठ पत्रकार गौरव मिश्रा, जिन्होंने दो दशक तक विभिन्न मीडिया संस्थानों में एजुकेशन को कवर किया, का कहना है, राज्य की विषम भौगोलिक परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए भी शिक्षा पर बात होनी चाहिए। उत्तराखंड के दूरस्थ गांवों, जहां स्कूल दूर हैं, कई किमी. पैदल चलने की मजबूरी है, वहां बेटियों की शिक्षा अधूरी छूट जाती हैं। प्राइमरी के बाद यदि स्कूल ज्यादा दूर नहीं है,आठवीं तक पढ़ाई हो जाती है, पर हाईस्कूल या इससे ऊपर की कक्षाओं के लिए स्कूल जाना, चुनौती बन जाता है। उत्तराखंड में ज्यादा दूर जाने की जरूरत नहीं है, देहरादून राजधानी से 30 से 35 किमी. के दायरे में ऐसे गांव मिल जाएंगे।
वरिष्ठ पत्रकार मिश्रा बताते हैं, हम यह मानते हैं कि गांव-गांव माध्यमिक से लेकर डिग्री कॉलेज नहीं बनाए जा सकते, पर उन उपायों पर तो काम होना चाहिए, जिससे हर बच्चा शिक्षा के अधिकार को हासिल कर सके। दूरस्थ गांवों के बच्चों को स्कूलों के पास हॉस्टल की सुविधा दी जा सकती है। ऑनलाइन पढ़ाई पर फोकस किया जा सकता है, पर इससे पहले गांवों तक इंटरनेट पहुंचाना होगा। सरकार को इस दिशा में गंभीरता से कार्य करना चाहिए।