Blog LiveFeaturedTK DHINA DHINTK DHINA DHIN...TK DHINAA DHIN

अपर तलाई का चित्तौरः संभावनाओं की घाटी और चुनौतियों के पहाड़

देहरादून का रायपुर ब्लाक और उसके दूर-दूर तक फैले गांव, जहां दिक्कतें तो हैं, पर संभावनाओं की कोई कमी नहीं है। इनमें एक गांव है, चित्तौर, जो अपर तलाई ग्राम पंचायत का हिस्सा है। अपर तलाई को सड़क से जोड़ने का काम जारी है, इसके लिए प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना के तहत लगभग चार किमी. सड़क बनाई जा रही है, बताया जाता है कि यह सड़क पहले भी बनी थी, पर उखड़ गई।
चित्तौर गांव को सड़क से कब तक जोड़ा जाएगा, इस बारे में साफ तौर पर नहीं कहा जा सकता। हालांकि तीन बार सर्वे होने की जानकारी हमें मिली है और जगह-जगह पेड़ों पर सर्वे के नंबर लिखे हुए देखे जा सकते हैं। चित्तौर तक सड़क नहीं है तो कृषि उपज को बाजार तक पहुंचाना दिक्कत भरा है। वहीं, खेती के लिए उन्नत टूल्स एवं मशीनरी नहीं पहुंच पाती।
ग्रामीण बताते हैं कि अपर तलाई को धन्याड़ी गांव तक जोड़ दें तो गांव में आजीविका के स्रोत बढ़ेंगे और आय बढ़ेगी। युवा भी अपने गांव में रहकर ही जिंदगी को समृद्ध बनाएंगे। चित्तौर के आशीष कोठारी, लॉक डाउन से पहले एक ऑयल कंपनी के लिए गुजरात में सेवाएं दे रहे थे। अब आशीष देहरादून में जॉब करते हैं और देर रात ड्यूटी से घर लौटते हैं। बाइक से रोजाना 56 किमी. का सफर करते हैं। उनके गांव से मुख्य मार्ग लगभग छह किमी. दूर है, जो पूरी तरह से डैमेज है, जिस पर खासकर रात को चलना जोखिमभरा है।
आशीष कहते हैं, मजबूरी है, क्या कर सकते हैं। सड़क बन जाए तो मुश्किलें दूर हो सकती हैं। गांव में खेतीबाड़ी में संभावनाओं पर आशीष स्पष्ट कहते हैं कि पहले वाले लोग जो खेतीबाड़ी कर रहे हैं, उनके बराबर हम मेहनत नहीं कर सकते। खेतीबाड़ी में कई तरह के जानवर हैं। गांव से काफी युवा जॉब के लिए बाहर जा रहे हैं। हालांकि आशीष खेती में परिवार को सहयोग करते हैं। उनका कहना है कि खेती में परिवार के इस्तेमाल के लिए ही अनाज उगाते हैं।
दूर-दूर तक दिखते खेतों को देखकर कहा जा सकता है कि यहां कृषि, आजीविका का प्रमुख स्रोत है, पर कुछ ग्रामीणों का कहना है कि यहां कृषि तो नुकसान का विषय है। कई लोगों ने खेतों को खाली छोड़ दिया। अपर तलाई में सेवानिवृत्त शिक्षक श्रीप्रकाश कोठारी जी बताते हैं कि पहले खेती होती थी, लेकिन कुछ समय से यहां जंगली जानवर बड़ा नुकसान कर रहे हैं।
खेतों को खाली करने के कारण पर उनका कहना है कि खेतों में काम करो और हाथ कुछ न आए। समस्या बताने पर भी कोई कार्रवाई नहीं हो रही है, तो क्या कर सकते हो। वैकल्पिक उपाय पर बताते हैं कि आवेदन किया है कि यहां सोलर फेंसिंग लगा दी जाए, पर कुछ नहीं हो रहा। ऐसे में खेती तो छूटेगी ही।
कोठारी जी ने बताया कि यहां मोबाइल फोन कनेक्टिविटी नहीं है, फोन डेड हैं। टावर लगाने की मांग जिलाधिकारी से की है, पर कुछ नहीं हुआ। कोठारी जी स्पष्ट करते हैं कि अगर समस्याएं सॉल्व हो जाती है, तो सभी लोग खेती करेंगे, यहां तो सभी अनाज होते हैं। बाहर पर निर्भर नहीं रहेंगे। जब खेती नहीं तो पलायन की स्थिति आ गई है, जो जहां सर्विस कर रहे हैं, वहीं अपने बच्चों को ले जा रहे हैं।
अपर तलाई के ही निवासी चिरंजी लाल जी तो साफ कहते हैं कि यहां मेहनत करके भी उपलब्धि नहीं है। यहां जंगली जानवर बीज बोते ही खेतों को खोदना शुरू कर देते हैं। हल्दी, जिसे जानवर नहीं खाते, उसमें ज्यादा लाभ नहीं है। उनके गांव में सिंचाई एवं पीने के पानी की कोई दिक्कत नहीं है।
बताते हैं कि गांव में पशुओं का व्यापार होता था। पहले यहां लोग पशुओं की तलाश में आते थे। पशु बिकते थे। अब पशुओं की बिक्री नहीं होती, क्योंकि अब हाथ वाले ट्रैक्टर (पावर टिलर) से खेती हो रही है। हालांकि इनको जगह-जगह उठाकर ले जाने में दिक्कतें आती हैं। बताते हैं कि यहां दूध इकट्ठा करने वाली गाड़ी भी नहीं आती।
कोठारी जी कहते हैं कि थानो से धारकोट औऱ धारकोट से अपर तलाई तक सड़क बन रही है, लेकिन तलाई से धन्याड़ी तक रोड नहीं बनी। इसके आगे लगभग छह-सात किमी. सड़क बन जाए तो देहरादून नजदीक हो जाएगा। जितने में हम यहां थानो पहुंचेंगे, उतने मे तो रायपुर पहुंच जाएंगे। धन्याड़ी से सीधा रायपुर वाले रोड पर पहुंच जाएंगे। आपको मालूम होगा कि रायपुर वाला रोड थानो होते हुए देहरादून को देहरादून एयरपोर्ट से कनेक्ट करता है। आप यहां से ऋषिकेश, हरिद्वार की ओर आगे बढ़ सकेंगे।
आपको बता दें कि डुगडुगी पाठशाला के संस्थापक एवं सामाजिक कार्यकर्ता मोहित उनियाल, वरिष्ठ शिक्षक एवं सामाजिक कार्यकर्ता जगदीश ग्रामीण, मानवभारती स्कूल में कक्षा 10 के छात्र सार्थक पांडेय के साथ गांव दर गांव घुमक्कड़ी का मौका मिलता है तो मेरा तन औऱ मन रीचार्ज हो जाते हैं।
अपर तलाई में हमने जैसे ही सुना कि यहां चित्तौर नाम का भी कोई गांव है, जिसको सड़क से जोड़ना बहुत जरूरी है तो हमने तुरन्त मन बना लिया कि अब हम चित्तौर गांव का भ्रमण करके ही वापस घर लौटेंगे। दरअसल, हम गांवों में चुनौतियों को महसूस करना चाहते हैं। हम संभावनाओं पर चर्चा करना चाहते हैं। हम वहां के आर्थिक परिदृश्य को समझना चाहते हैं। हम उन कारणों को भी जानना चाहते हैं, जो किसी गांव को समृद्ध एवं आदर्श बनाने में बाधा बनते हैं।

हम निकल पड़े चित्तौर गांव की ओर। मैं जानता था कि मैं अब दिक्कतें झेलने वाला हूं, पर जब आप कुछ कहते हैं, किसी क्षेत्र की तकलीफ का जिक्र करते हैं, तो एक बार उसको महसूस करना चाहिए, क्योंकि इस पर आप ज्यादा अच्छे से बात कर सकते हैं।
वैसे, आपको बता दूं कि अपर तलाई और चित्तौर बहुत सुंदर गांव हैं। वापसी पर, हमने अपर तलाई गांव से धारकोट के रास्ते पर सूर्यास्त के दर्शन किए, मैं अविस्मरणीय क्षण को शब्दों में बताने की हैसियत नहीं रखता। आप समझ सकते हैं कि मैं यह अपनी हैसियत नहीं होने की बात क्यों कर रहा हूं। प्रकृति की हर कारीगरी इतनी महीन है कि आप उसका संपूर्ण विश्लेषण नहीं कर सकते, ऐसा मेरा मानना है।
हम चित्तौर की ओर बढ़ गए। हम कुछ दूरी ऊंचाई पर चढ़े, लेकिन इसके बाद लगातार ढलान पर रहे। मैं बहुत खुश हो रहा था कि मेरी सांसें नहीं फूल रही हैं और प्रकृति के गांव में कुछ समय जीने का मौका मिलेगा। करीब एक किमी. चले होंगे, हमें एक घर दिखाई दिया, पता चला कि यह चित्तौर गांव है। मैंने मन ही मन सोचा कि वाह, यहां तो कुछ भी नहीं चले और पहुंच गए चित्तौर गांव।
चित्तौर गांव में रमेश चंद कोठारी जी से मुलाकात की, जिन्होंने बताया कि चित्तौर गांव के कई घर यहां से आगे भी हैं। कोठारी जी खेती करते हैं और यह उनकी आजीविका का स्रोत है। बचपन से यहीं रहने वाले रमेश चंद जी बताते हैं कि वो जैविक खेती करते हैं, केवल गोबर की खाद इस्तेमाल करते हैं। धान (बासमती भी), अदरक, हल्दी, मिर्च, गागली, राजमा आदि उगाते हैं। गांव में केलों और आम का काफी उत्पादन होता है। अपने इस्तेमाल के बाद जो बचता है, उसको देहरादून मंडी में बेचने के लिए ले जाते हैं।
धन्याड़ी तक कच्चे पगडंडीनुमा रास्ते से लेकर उपज को कई किमी. ढोना आसान काम नहीं है। यहां से खच्चरों पर लादकर फसल को पक्की सड़क तक पहुंचाते हैं और फिर लोडर से देहरादून पहुंचते हैं। सिंचाई के लिए गूल है और वर्षा पर भी निर्भरता है।
सरिता कोठारी जी बताती हैं कि सुबह सात बजे उठकर पशुओं के लिए चारा, पानी की व्यवस्था, घर के बहुत सारे कामकाज निपटाती हैं। खेती में भी हाथ बंटाती हैं। पशुपालन पर उनका कहना है कि यहां से दूध की बिक्री की कोई व्यवस्था नहीं है। बताया कि पहले उनको बहुत दूर गदेरे तक पानी लेने जाना पड़ता था, अब पेयजल लाइन आने से दिक्कत नहीं होती। उनका कहना है कि गांव तक सड़क पहुंच जाए तो उपज को बाजार तक पहुंचाने, बाजार से सामान लाने में होने वाली समस्याएं दूर हो जाएंगी।
रमेश जी कहना है कि अगर कालीमाटी से तलाई तक रोड बन जाएगी तो दूध वाली गाड़ी आएगी और हम डेयरी खोल लेंगे। बताते हैं कि गांव से काफी लोग बाहर जाकर बस गए, बच्चों को पढ़ाने के लिए। क्योंकि यहां से लेकर तलाई तक स्कूल नहीं है। पहले तलाई में राजकीय प्राइमरी स्कूल था, जो बंद कर दिया गया। अब यह स्कूल तलाई से करीब चार किमी. दूर धारकोट में है। चित्तौर में रमेश चंद जी के घर से स्कूल की दूरी लगभग पांच किमी. होगी, जिसमें लगभग एक किमी. हिस्से में सड़क नहीं है।
रमेश जी का सबसे छोटा बेटा आकाश कक्षा आठ में पढ़ता है और करीब पांच किमी. पैदल स्कूल जाता है। स्कूल जाने और आने के लिए आकाश करीब दस किमी. पैदल चलता है। वो अकेला बच्चा है, जो यहां से धारकोट जाता है, यह बताते हुए आकाश मुस्कराता है। आकाश बहुत हंसमुख बच्चा है और पढ़ लिखकर फौजी बनना चाहता है। इसके लिए रेस और अन्य तैयारियां करता है। आकाश खेतीबाड़ी में पापा की मदद करता है। आकाश ने बताया कि खेत में हल चलाते हैं। उनके गांव तक ट्रैक्टर नहीं आ सकता, इसलिए बैलों औऱ लकड़ी के हल से खेतों को जोतते हैं।
हमें बताया गया कि चित्तौर गांव में करीब दस घर और हैं, जो यहां से आगे हैं। हम आगे बढ़े, ढलान के रास्ते पर बहुत आनंद आ रहा था। पर, बता दूं कि यह सोचकर मैं चिंता में भी पड़ गया कि जितना ढलान पर पैरों को जमा जमाकर नीचे उतर रहे हो, आते समय उतना ही चढ़ाई के लिए भी तैयार रहना। सांस फूला देगा पहाड़ पर चढ़ाई वाला कच्चा रास्ता। यह रास्ता बखरोटी की तरह नहीं है। बखरोटी का रास्ता जंगल के बीच से है, पर यहां रास्ते में छाया नहीं है। इसलिए यह चलना कठिन है।
सच बताऊं तो चित्तौर गांव से अपर तलाई आते हुए मेरे साथ ऐसा हुआ भी, करीब तीन किमी. के इस सफर में तीन जगह पर जमीन पर ही लेटकर तेजी तेजी से सांस ली। पानी की पूरी बोतल खत्म कर दी मैंने। जबकि मोहित उनियाल जी, जगदीश ग्रामीण जी और सार्थक तो आसानी से चल रहे थे।
हम ढाल पर उतरते हुए पहुंच गए चित्तौर गांव में। क्या बताऊं, इतना आकर्षक गांव, चारों तरफ गेहूं से भरे खेत और उनमें खड़े पेड़ों का नजारा। घर बहुत सुंदर लग रहे थे। पर्वतीय क्षेत्रों के अन्य गांवों की तरह लगभग सभी घर दोमंजिला। नए और पुराने निर्माण साथ-साथ। वरिष्ठ शिक्षक जगदीश ग्रामीण बताते हैं कि गांवों में सभी सुविधाएं स्थापित हो जाएं तो रिवर्स माइग्रेशन को प्रोत्साहित किया जा सकता है। पर, विकास की रफ्तार धीमी है। घरों में बेरोजगार बैठे व्यक्तियों के पास लंबे इंतजार के लिए समय नहीं है। तेजी से कार्य करना होगा।
सामाजिक कार्यकर्ता मोहित उनियाल कहते हैं कि हमने देखा है कि यहां खेत खाली पड़े हैं। कुछ युवाओं से बात हुई, जिनकी कोरोना काल में नौकरियां चली गईं। जब तक सड़क नहीं होगी, तो संभावनाएं प्रभावित होंगी। पलायन की मुख्य वजह स्वास्थ्य एवं शिक्षा हैं। अगर कोई व्यक्ति अस्वस्थ हो जाए तो सिर्फ और सिर्फ थानो जाना होगा, जो यहां से 15 से 20 किमी होगा। जंगली जानवरों ने फसलों को नुकसान पहुंचाया है। यहां सड़क बन जाए तो टूरिज्म को बढ़ावा मिलेगा। होम स्टे योजना को प्रोत्साहन मिलेगा।
हमने चित्तौरगांव के दूसरे हिस्से में प्रवेश से पहले ही गदेरे पर वर्षों पुराना पुल देखा। यहां हरियाली के बीच से गुजरता रास्ता देखकर मुझे तो एक बार अपने बचपन की याद आ गई। हमने भी बचपन में हरेभरे खेतों के बीच पगडंडियों पर दौड़ लगाई है, जिन पर कई बार संतुलन नहीं होने से खेत में धड़ाम हुए। जहां भी कहीं मैं इस तरह के अनुपम नजारों के बीच होता हूं तो मन खुश होकर कहता है कि यहीं का होकर रह जा।
पर, सच तो यह है कि प्राकृतिक सौंदर्य के धनी इन पर्वतीय गांवों में मेरा जैसा शहर में रहने वाला कोई व्यक्ति कुछ दिन में ही वापस लौट जाएगा। मैं ज्यादा दिन तक विषम भौगोलिक परिस्थितियां होने तथा संसाधनों एवं सेवाओं तक आसान पहुंच नहीं होने के कारण कठिनाइयों का सामना करने की स्थिति में नहीं रहूंगा।
हमने यहां शरद कुमार कोठारी जी से बात की, जो जन्म से यहीं रह रहे हैं। शरद जी गेहूं, धान, मक्का, मंडुआ, झंगोरा, हल्दी की खेती करते हैं। बताते हैं कि हल्दी को जंगली जानवर नुकसान नहीं पहुंचाते,यह सब कहने की बात है, जानवर सबकुछ खोद देते हैं। गांव में पशुपालन हो रहा है, पर कोई भी दूध नहीं बेचता, घर में ही इस्तेमाल करते हैं। उनको अपने गांव में बहुत अच्छा लगता है, वो गांव छोड़कर कहीं नहीं जाएंगे।
बताते हैं कि उनके गांव से बहुत कम लोग बाहर गए हैं। उन्होंने बताया कि किसी व्यक्ति को अस्पताल तक ले जाने के लिए चौपहिया वाहन मंगाना पड़ता है, जो गांव तक आ जाता है, पर बहुत ज्यादा मुश्किलें व जोखिम उठाकर। किराया भी सामान्य से ज्यादा देना पड़ता है।
चित्तौर में सभी घर दूर दूर हैं, शरद कोठारी जी के घर से दिखता है एक और घर। कुछ आगे बढ़े तो रास्ते में एक खाली घर दिखा, जिसमें लगता है वर्षों से कोई नहीं रह रहा। हो सकता है कि यहां रहने वाले कहीं और जाकर बस गए। बच्चों की शिक्षा के लिए या फिर जॉब की वजह से उन्होंने ऐसा किया हो।
हमें अपरतलाई में स्कूल नहीं होने का जिक्र किया था। ठीक इसी तरह चित्तौर गांव में भी पांचवीं तक के बच्चों के लिए भी कोई स्कूल नहीं है। बड़ासी लगभग डेढ़ किमी. है, जहां इंटर कालेज है। छोटे बच्चों को दूर के स्कूलों में रोजाना भेजना और वहां से लाना, वो भी जोखिम वाले रास्ते से होते हुए, मुश्किल भरा काम है। सड़क नहीं होने से परिवहन का भी कोई साधन नहीं है। इसलिए अपर तलाई और चित्तौर गांव में छोटे बच्चों की पढ़ाई के लिए लोगों ने शहर में रहना शुरू कर दिया है।
छुट्टियों में घर आ जाते हैं। हमने गांव में कुछ और लोगों से इस मुद्दे पर बात की तो, उनका कहना था कि जब बच्चों की संख्या ज्यादा नहीं होगी तो सरकार स्कूल क्यों खोलेगी। इसलिए अपरतलाई का स्कूल बंद कर दिया गया। धारकोट में स्कूल है। पर, हमारा मानना है कि हम एक भी बच्चे को शिक्षा के अधिकार से वंचित नहीं कर सकते। बच्चों की संख्या एक हो या दो या फिर सैकड़ों में, उनको शिक्षा तो मिलनी ही चाहिए। छोटे बच्चों के लिए आंगनबाड़ी केंद्र तक नहीं होना, उनको अधिकारों एवं सुविधाओं से वंचित करता है। यह चर्चा का विषय है, इस पर बात होनी ही चाहिए।
हमने अपर तलाई में कक्षा चार के छात्र आदित्य एवं कक्षा दो के छात्र अभय से बात की, जो रहने वाले तो अपर तलाई गांव के हैं, पर पढ़ाई के लिए ऋषिकेश- हरिद्वार मार्ग पर स्थित गुमानीवाला में रहते हैं। अभय ने हमें ऊंठ चला भाई ऊंठ चला… और अमन ने बादल पर शानदार कविताएं सुनाईं। उन्होंने हमें यह भी बताया कि पेड़ घूमने क्यों नहीं जाते।
हां तो, मैं बात कर रहा था चित्तौरगांव की। चित्तौरगांव में शरद जी से मुलाकात के बाद आगे बढ़ने पर हमने भगवान सिंह मनवाल जी को खेत की सिंचाई करते हुए देखा। मनवाल जी स्रोत से सीधे पाइप के जरिये खेतों तक पानी पहुंचा रहे हैं। उनको किसी योजना के तहत यह पाइप मिला है, ताकि खेतों की सिंचाई कर सकें।
करीब पचास वर्षीय भगवान सिंह जी, जन्म से यहीं रह रहे हैं। उनको शहर में रहना अच्छा नहीं लगता। कहते हैं, मेरा बचपन तो यहीं बीता। गांव में पहले तो लैंप जलाते थे, अब बिजली पहुंच गई। बस, अगर सड़क बन जाए तो सबसे अच्छा इलाका है हमारा। स्वच्छ हवा, स्वच्छ पानी, स्वच्छ खानपान… और क्या चाहिए। भगवान सिंह जी के बेटे पंकज ने डीबीएस कालेज, देहरादून से बीएससी किया है। इन दिनों पिता के साथ खेती में हाथ बंटा रहे हैं।
करीब सत्तर वर्षीय सुंदर लाल सकलानी जी का घर भी पास में ही है। उनका जन्म इसी गांव में हुआ। गांव में ही खेतीबाड़ी करते हैं। राजमा, प्याज, आलू, धान, गेहूं की फसल उगाते हैं। कहते हैं कि यहां कृषि में बहुत सारी संभावनाएं हैं, पर जंगली जानवर नुकसान पहुंचाते हैं। उनका कहना है कि अपने गांव में आजीविका के लिए बहुत संभावनाएं हैं, पर मेहनत तो करनी पड़ेगी। अगर, आप मेहनत नहीं करोगे तो विदेश में भी आपके लिए कुछ नहीं है।
एक और खास बात यह है कि अपर तलाई से लेकर चित्तौर तक हर व्यक्ति ने हमें बड़ा सम्मान दिया। सभी ने चाय-पानी और भोजन के लिए पूछा। भगवान सिंह जी ने हमें अरसे खिलाए। अखबार में डेस्क पर ड्यूटी के दौरान मैंने अपने साथियों द्वारा लाए गए अरसे खूब खाए हैं। अरसे देखकर मैं यह भी भूल गया कि मुझे डायबिटिज है, मीठा ज्यादा नहीं खाना है। पहाड़ के व्यंजन बहुत स्वादिष्ट व पौष्टिक होते हैं, ऐसा मुझे पता है।
अपर तलाई की ओर वापस लौटते हुए हमने ब्रजेश सेमवाल जी और बीना देवी सेमवाल जी को खेत में निराई करते हुए देखा। हमने उनसे बात की। रिवर्स माइग्रेशन के बाद खेतीबाड़ी को आजीविका का जरिया बनाकर समृद्धता की ओऱ कदम बढ़ाने की प्रेरणा तो हमें इनसे मिलती है। बीना देवी जी कहती हैं खेती में मेहनत तो करनी पड़ती है। मैं अपनी मातृभूमि, इस धरती मां से बहुत स्नेह करती हूं, इन्होंने हमें जिंदगी दी है। उन्होंने बताया कि पांच साल पंजाब में रहे। पर, मैंने वापस अपने गांव लौटने का मन बना लिया। हम वापस आ गए और यहां जैविक खेती में संभावनाएं देखीं।
सामने पहाड़ की ओऱ इशारा करते हुए कहती हैं हमारा घर वहां टॉप पर भी है। बाद में हमने यहां थोड़ी सी जमीन ली। कहती हैं हमने तिरपाल लगाकर जीवन यापन किया। इस धरती मां ने हमें बहुत कुछ दिया है। यहां जीवन की बहुत सारी संभावना है, धरती मां हमें ईमानदारी सिखाती हैं। हमारे पास सात पशु हैं। हमारे पास बैल भी हैं। यहां दूध नहीं बिकता, घी बनाकर बेचते हैं। दिक्कतें तो जीवन में आती है। यहां रोड नहीं है, पर पानी की कोई कमी नहीं है। बिजली 10 -11 साल पहले आई है।
खेती पूरी तरह जैविक है, केवल गोबर की खाद का प्रयोग करते हैं। यहां प्याज, धनिया, पालक, राजमा, गेहूं, धान, मटर, मूली की उपज को घर में भी इस्तेमाल करते हैं और बेचते भी हैं। उन्होंने बताया कि उपज बेचने के लिए हमें कहीं नहीं जाना पड़ता। उपज खरीदने वाले आसपास के गांवों के लोग ही हैं।
चित्तौर गांव से विदा लेकर हम खेतों की पगडंडियों से होते हुए उस रास्ते तक पहुंच गए, जो अपर तलाई ले जाता है। अब हमें चढ़ाई पर विजय हासिल करनी थी, जो मेरे लिए बड़ा मुश्किल टास्क था, पर मैंने किया, क्योंकि मुझे घर जाना था और आपसे यह सब जानकारी साझा करनी थी। वैसे भी, मेरे सामने कोई विकल्प नहीं था कि वापस लौट चलो। वापस लौटकर कहां जाता।
हम अपर तलाई पहुंच गए। यहां पहुंचते ही मुझे राहत मिली। ठंडी शांत हवाओं ने मुझे एक बार फिर रीचार्ज कर दिया। यहां से हम धारकोट की ओर आगे बढ़े। रास्ते में बुद्ध देव जी, रवि दत्त जी से मिले। चाय का आनंद लिया। सूर्यास्त के दर्शन किए। अंधेरा हो गया था, कुछ देर बारिश भी हुई।
हां, एक बात बताना तो भूल ही गया, जब हम अपर तलाई जा रहे थे, धारकोट में हमारी मुलाकात युवा राजेश राठौर जी से हुई, जो लॉकडाउन में यहां नजदीक ही भगवानपुर स्थित अपने घर लौट आए। राजेश जी होटल इंटस्ट्री में बतौर शेफ जॉब कर रहे थे। बताते हैं यहां संभावनाएं बहुत हैं, पर रोड की दिक्कत है। थानो से धारकोट तक मोटरमार्ग बहुत खराब है। गाड़ियां भी समय पर नहीं मिलती। यहां गेहूं, मक्का, जौ आदि की फसल है। सिंचाई भी रेन वाटर पर निर्भर है। अभी बन रही सड़क कई गांवों को जोड़ रही है।
राजेश जी आजीविका के लिए जैविक खेती को आगे बढ़ाएंगे। अपने क्षेत्र के नाम को आगे बढ़ाएंगे। कहते हैं कि लोग यहां से पलायन करके कहां जाएंगे। अपने क्षेत्र में ही रहकर ही कुछ करना चाहिए।
हमने धारकोट ग्राम पंचायत की प्रधान हंसो देवी जी के पति भरत सिंह जी से मुलाकात की, जिनका कहना है कि धारकोट क्षेत्र से पलायन नहीं हो रहा है। सड़कें बनने से पलायन रूका है। धारकोट इंटर कालेज 18 साल पहले बना है, जहां आसपास के गांवों से बच्चे आते हैं। यहां पानी मिल जाता है, पर फिर भी समस्या है। जल जीवन मिशन में फर्स्ट फेज में पानी कनेक्शन हो चुके हैं। पानी स्रोतों से आता है। अलग-अलग गांवों के लिए पानी के अलग-अलग स्रोत हैं, जो लगभग एक-डेढ़ किमी. है। पानी नहीं आने पर स्रोतों से पानी लाना पड़ता है। गर्मियों में दिक्कत है।
बताते हैं कि यहां जैविक खेती ही होती है। उपज को गांव से देहरादून मंडी तक पहुंचाया जाता है। धारकोट क्षेत्र में खेती में बहुत संभावना है, पर पानी नहीं है। यहां सिंचाई वर्षाजल पर आधारित है। वैकल्पिक व्यवस्था के लिए उडालना गदेरा से पानी को लिफ्ट कराया जा सकता है, इसके लिए मांग कर रहे हैं। हमारे पूछने पर बताते हैं कि कई लोगों ने अपने खेतों को खाली छोड़ दिया है, पानी नहीं होना और जंगली जानवरों का फसलों को उजाड़ना इसकी प्रमुख वजह है।
बहुत सारी जानकारियां लेकर हम वापस लौट आए, डोईवाला की ओर। समय-समय पर आपके साथ बहुत सारी वीडियो, फोटोग्राफ साझा करते रहेंगे। माफी चाहता हूं कि यह लेख काफी लंबा हो गया, पर मैं आपसे इस घुमक्कड़ी की हर बात को शेयर करना चाहता था। फिर मिलेंगे, किसी और पड़ाव पर, तब तक के लिए बहुत सारी शुभकामनाओं का तक धिनाधिन।

ई बुक के लिए इस विज्ञापन पर क्लिक करें

Rajesh Pandey

उत्तराखंड के देहरादून जिला अंतर्गत डोईवाला नगर पालिका का रहने वाला हूं। 1996 से पत्रकारिता का छात्र हूं। हर दिन कुछ नया सीखने की कोशिश आज भी जारी है। लगभग 20 साल हिन्दी समाचार पत्रों अमर उजाला, दैनिक जागरण व हिन्दुस्तान में नौकरी की, जिनमें रिपोर्टिंग और एडिटिंग की जिम्मेदारी संभाली। बच्चों सहित हर आयु वर्ग के लिए सौ से अधिक कहानियां एवं कविताएं लिखी हैं। स्कूलों एवं संस्थाओं के माध्यम से बच्चों के बीच जाकर उनको कहानियां सुनाने का सिलसिला आज भी जारी है। बच्चों को कहानियां सुनाने, उनसे बातें करने, कुछ उनको सुनने और कुछ अपनी सुनाना पसंद है। रुद्रप्रयाग के खड़पतियाखाल स्थित मानव भारती संस्था की पहल सामुदायिक रेडियो ‘रेडियो केदार’ के लिए काम करने के दौरान पहाड़ के गांवों की अनकही कहानियां लोगों तक पहुंचाने का प्रयास किया। सामुदायिक जुड़ाव के लिए गांवों में जाकर लोगों से संवाद करना, विभिन्न मुद्दों पर उनको जागरूक करना, कुछ अपनी कहना और बहुत सारी बातें उनकी सुनना अच्छा लगता है। ऋषिकेश में महिला कीर्तन मंडलियों के माध्यम के स्वच्छता का संदेश देने की पहल की। छह माह ढालवाला, जिला टिहरी गढ़वाल स्थित रेडियो ऋषिकेश में सेवाएं प्रदान कीं। बाकी जिंदगी की जी खोलकर जीना चाहता हूं, ताकि बाद में ऐसा न लगे कि मैं तो जीया ही नहीं। शैक्षणिक योग्यता: बी.एससी (पीसीएम), पत्रकारिता स्नातक और एलएलबी संपर्क कर सकते हैं: प्रेमनगर बाजार, डोईवाला जिला- देहरादून, उत्तराखंड-248140 राजेश पांडेय Email: rajeshpandeydw@gmail.com Phone: +91 9760097344

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button

Adblock Detected

Please consider supporting us by disabling your ad blocker