मौत के मुंह से पानी लेकर आता है देहरादून का यह गांव
डोमकोट गांव में, गर्मियों में जिस स्रोत से पानी लाते हैं, उसके रास्ते पर जरा सा पैर फिसला नहीं, सीधा गहरी खाई में
राजेश पांडेय। न्यूज लाइव
“गर्मियों में पूरा गांव, पानी के लिए उस स्रोत पर जाने के लिए मजबूर है, जहां जंगली जानवर प्यास बुझाते हैं। हम पानी के लिए वहां इकट्ठे होकर जाते है, कभी वो (जंगली जानवर) हमें देखकर भाग जाते हैं और कभी हम उनको देखकर छिप जाते हैं। वो भी क्या करें, उनको भी पानी पीना है और हम इंसानों को भी,” संपत्ति देवी कहती हैं।
57 साल की संपत्ति देवी, देहरादून जिला के डोमकोट गांव में रहती हैं। खेतीबाड़ी और बकरीपालन उनके परिवार की आजीविका के प्रमुख स्रोत हैं। बकरियां चराने जा रही थीं, तभी उनसे हमारी मुलाकात हुई। संपत्ति हमें, गांव में पानी की कहानी सुनाती हैं। बताती हैं, इन दिनों सर्दियों में तो नलों में पानी आ रहा है, पर गर्मियां बहुत दुखदाई होती हैं। गर्मियों में जिस स्रोत से पानी लाते हैं, उसका रास्ता ऐसा है कि जरा सा पैर फिसला नहीं, सीधा गहरी खाई में।
स्रोत तक जाने का एक और रास्ता है, जो ‘गुफा’ से होकर जाता है। यहां दो बड़ी चट्टानों के बीच रास्ता है, जिसे लोग गुफा कहते हैं। यह रास्ता भी कम जोखिम वाला नहीं है।
उत्तराखंड की राजधानी देहरादून से लगभग 25 किमी. दूरी पर मालदेवता से आगे, डोमकोट गांव का कच्चा, ऊबड़ खाबड़ पगडंडीनुमा रास्ता है। बरसात में आपदा के बाद, यह रास्ता भी खराब हो गया था, जिस पर भूस्खलन से बड़े पत्थर गिर गए थे। गांववालों ने खुद ही इस रास्ते को आने जाने लायक बनाया। मालदेवता से छोटी छिमरौली मार्ग से इस गांव के लिए कच्चा रास्ता है।
इस कच्चे रास्ते के शुरू होने से थोड़ा पहले ही सोबन सिंह चाय और नाश्ते की दुकान चलाते हैं। सोबन और अन्य ग्रामीण गांव तक सड़क पहुंचाने के लिए जनप्रतिनिधियों से कई बार पत्राचार कर चुके हैं।
ऊंचाई पर करीब दो से ढाई किमी. पैदल चलने के बाद सरौना ग्राम पंचायत के डोमकोट गांव में पहुंचते हैं। डोमकोट गांव के राकेश खंदियाल, जो खेतीबाड़ी और निर्माण कार्यों में श्रम करते हैं, हमें बताते हैं, हमारा गांव सबसे ज्यादा पिछड़ा है, इसकी वजह यहां तक सड़क नहीं होना है। यहां न तो सिंचाई के लिए पानी है और न ही पीने के लिए। गर्मियों में पानी का इंतजाम करना हमारे लिए सबसे बड़ी चुनौती है। राकेश से हमारी मुलाकात, छोटी छिमरौली से पहले एक दुकान पर, उस समय हुई थी, जब हम डोमकोट जाने का रास्ता पूछ रहे थे। राकेश हमें अपने गांव ले गए।
“हम गर्मियों में जिस स्रोत से पानी ढोते हैं, वहां तक पहुंचने की हिम्मत न तो अफसरों के पास है और न ही कोई प्रतिनिधि या पत्रकार वहां पहुंचा है। यहां मीडिया के लोग और विभागों के अधिकारी आते हैं, पर स्रोत वाले रास्ते को देखकर वापस ही लौट जाते हैं। आप भी वहां नहीं जा पाओगे,” राकेश कहते हैं।
गांव में राकेश हमारी मुलाकात अपने भाई राजेश और पिता करीब 65 वर्षीय घनश्याम जी से कराते हैं। राजेश, लॉकडाउन से पहले देहरादून में प्राइवेट जॉब कर रहे थे। अब घर पर ही हैं और खेतीबाड़ी के अलावा, राजमिस्त्री का काम भी करते हैं। जबकि घनश्याम जी, घर पर रहकर खेतीबाड़ी संभालते हैं।
घनश्याम बताते हैं, इन दिनों आप नलों में पानी देख रहे हैं, यह पानी यहां से लगभग पांच किमी. दूर स्रोत से आ रहा है। हम एक टैंक में स्रोत का पानी इकट्ठा करते हैं, जहां से यह गांव तक सप्लाई होता है। आपदा में पेयजल लाइन टूट गई थी, जिसे गांववालों ने कई दिन की मरम्मत के बाद ठीक किया। यहां गर्मियों में सबसे ज्यादा दिक्कत है, क्योंकि तब नलों में पानी नहीं आता। इस स्रोत पर पानी बहुत कम होता है या फिर सूख जाता है।
राकेश हमें, गांव से करीब आधा किमी. चलकर उस स्थान पर ले जाते हैं, जहां से बहुत गहराई में घना जंगल दिखता है। इसी जंगल में एक जल स्रोत की ओर इशारा करते हुए कहते हैं, हम गर्मियों में वहां से पानी लाते हैं। वहां तक जाने के लिए, पहले आपको इस चट्टान में बनाए गए सीढ़ीनुमा रास्ते से नीचे उतरना होगा।
पहली बार तो उस चट्टानी रास्ते को, जो खड्ड की ओर जाता है, देखकर मैं घबरा गया। पर, हम ग्रामीणों की दिक्कतों को सुनने नहीं, बल्कि समझने और कुछ समय उनको जीने के लिए आए थे, इसलिए इस जोखिम को उठाने का मन बना लिया। गजेंद्र रमोला और राकेश ने मुझे सतर्कता से कदम रखने की हिदायत दी। साथ ही, यह आश्वासन भी दिया कि वो मुझे वहां तक पहुंचने में मदद करेंगे।
एक बार में एक ही व्यक्ति इन टूटी सीढ़ियों पर चढ़ या उतर सकता है। एक तरफ गहरी खाई और दूसरी तरफ चट्टान वाले इस संकरे रास्ते पर लोग, जिनमें महिलाएं, बच्चे, युवा शामिल हैं, कैसे पानी से भरे बरतन लेकर आते-जाते होंगे, सोचकर ही मेरी बेचैनी बढ़ जाती है। क्योंकि इन पर कई बार मैं बैठकर नीचे उतरा हूं।
मैं सोच रहा था, इसी रास्ते से होकर वापस कैसे लौटूंगा। क्या एक बार फिर मुझे जोखिम उठाना पड़ेगा। कभी राकेश तो कभी गजेंद्र रमोला ने मेरा हाथ पकड़कर सीढ़ियों से नीचे उतरने में मदद की।
फिर हम पहुंच गए उस स्थान पर, जो पहले से ज्यादा सुरक्षित था, पर हमें जंगली झाड़ियों के बीच से होते हुए पगडंडी पर आगे बढ़ना था। लगभग दो किमी. का रास्ता लगभग एक घंटे में पार हो सका। रास्ते में पड़े बड़े पत्थरों को चढ़कर पार करना पड़ा।
आखिरकार हम उस स्रोत तक पहुंच गए, जहां तक पहुंचने के लिए ग्रामीण बड़ा जोखिम उठाते हैं। यह झरना है, जो किसी चट्टान से नीचे उतर रहा है। यहां पानी बहुत ज्यादा नहीं है, पर इतना अवश्य है कि दस-बारह परिवारों की प्रतिदिन की पूर्ति हो सके। राकेश बताते है,यहां जंगली जानवर भी पानी पीने आते हैं। इस रास्ते में बघेरा ( गुलदार), भालू, जंगली सूअर और छोटे जीव हैं। हालांकि, सौभाग्य से अभी तक कोई घटना नहीं हुई। यह इसलिए भी, क्योंकि ग्रामीण यहां समूह में पानी लेने के लिए आते हैं।
डोमकोट गांव की ही, संपत्ति देवी बताती हैं, हम लोगों ने यहां जंगली जानवरों को देखा है, पर यह कोई बताने वाली बात इसलिए भी नहीं है, क्योंकि वो जंगल के ही जीव है, इसलिए जंगल में ही रहेंगे। हम ही उनके पानी वाले स्थान तक जाते हैं। कई बार ऐसा हुआ कि वो हमें देखकर भागे और हम उनको देखकर छिप गए।
जंगल वाले पानी के झरने से थोड़ा पहले ही राकेश ने चप्पलें उतार दीं। हाथ जोड़े और फिर पानी पिया। हमने झरने के सामने हाथ जोड़ने की वजह पूछी, तो राकेश बताते हैं, यह भगवान का पानी है। हम गांव वाले किसी भी शुभ कार्य से पहले यहां पूजा भी करते हैं। यह झरना आज से नहीं बल्कि हमारे पूर्वजों के समय से है। वो भी इसको भगवान का पानी कहते थे।
“आप पहले मीडिया वाले हैं, जो हमारे स्रोत तक पहुंचे और इस पूरे रास्ते को देखा। जिस रास्ते से हम लोग यहां आए हैं, इसके अलावा एक और रास्ता है, यहां तक आने के लिए। उस रास्ते में एक गुफा भी है। पर, वो रास्ता थोड़ा लंबा है। जोखिम उतना ही है। गांव के बुजुर्ग लोग, गुफा वाले रास्ते से होकर इस स्रोत तक पहुंचते हैं। हम ग्रामीणों को तो दोनों रास्तों पर चलने की आदत है। आप यहां गर्मियों में आओगे, तो पानी के बर्तन रखे हुए मिलेंगे। इस रास्ते पर पानी से भरे बरतन लेकर जाते हुए लोग दिखाई देंगे,” राकेश कहते हैं।
राकेश हाथ जोड़कर कहते हैं, “हमारी सरकार से मांग है कि हमारे गांव को सड़क और पानी की समस्या से मुक्ति दिला दे। हमें पूरे सालभर पानी मिल जाए, चाहे इस स्रोत से पानी मिले या किसी और से। हम गर्मियों में पानी ढोते-ढोते थक जाते हैं। बच्चों की पढ़ाई का हर्जा होता है। घर के कामकाज प्रभावित होते हैं। कामधंधा छूट जाता है। हम अपने पशुओं को प्यासा नहीं देख सकते।”
नियोविजन संस्था के गजेंद्र रमोला, जो हमारे साथ स्रोत पर पहुंचे थे, का कहना है, “वास्तव में यह रास्ता बहुत खतरनाक है। आते समय अगर मैं हिम्मत खो देता या फिर रास्ते को जोखिम वाला बताकर पीछे हट जाता तो, शायद आप भी यहां नहीं पहुंचते। जब हम यहां नहीं पहुंचते तो इतनी बड़ी समस्या को समझने का अवसर नहीं मिलता। हमने रास्ते में देखा कि जंगली सुअरों ने रास्ते में मिट्टी खोदी हुई थी। जैसा कि गांववाले बता रहे हैं कि पानी ढोते हुए लोगों को यहां शाम तक हो जाती है। यहां जंगली जीवों की आवाजें भी सुनाई देती हैं। हम महसूस कर सकते हैं, ग्रामीणों को कितना हौसला जुटाना होता है।”
स्रोत से आते समय हम ‘गुफा’ की तरफ से आए। रास्ते में हमें डोमकोट गांव की दीपा, आरती व लक्ष्मी मिले। दीपा बताती हैं, गर्मियों के दिन में पांच-छह चक्कर पानी के स्रोत तक लगाने पड़ते हैं। पशुओं के लिए भी पानी वहीं से लाना पड़ता है।
हम घास लेने पास के जंगल में जाते हैं। घास लाने के लिए ‘गुफा’ वाला रास्ता नजदीक है और पानी के लिए चट्टान वाला रास्ता। चट्टान वाला रास्ता कम दूरी का है, पर ज्यादा कठिन है। वैसे, ये दोनोंं ही रास्ते ही मुश्किल वाले हैं। गर्मियों में स्रोत से पानी लाना पूरे गांव की मजबूरी है। एक चक्कर में कम से एक घंटा लग जाता है।
हमें स्रोत से वापस लौटने में काफी समय लग गया। शाम हो गई थी। करीब पांच बजे, हम वापस लौटने लगे, उस गांव से जो उत्तराखंड की राजधानी के पास होने के बाद भी, पानी के लिए जोखिम उठा रहा है।