पैरों में दर्द सहते, बारिश में भींगने वाले इन स्कूली बच्चों की तरफ भी देखो
उत्तराखंड की राजधानी देहरादून के पास डोमकोट गांव तक सड़क नहीं

राजेश पांडेय। न्यूज लाइव
उत्तराखंड की राजधानी देहरादून से 25 किमी. दूरी पर डोमकोट गांव जाने के लिए दो रास्ते हैं, पर इनमें से एक भी ऐसा नहीं है, जिस पर आसानी से चला जा सके। कुछ माह पहले इस इलाके में आई आपदा से कच्चे, ऊबड़ खाबड़ रास्ते और ज्यादा जोखिम वाले हो गए। गांव तक सड़क बनाने की मांग वर्षों से की जा रही है, घोषणा भी हो चुकी है, पर अभी तक निर्माण की शुरुआत नहीं हो पाई। इस गांव में प्राइमरी स्कूल और आंगनबाड़ी केंद्र नहीं हैं, इसलिए कक्षा एक से पांचवीं तक पढ़ाई करने वाले बच्चे भी इसी खराब रास्ते पर प्रतिदिन लगभग दस किमी. पैदल चलते हैं।

डोमकोट गांव के बुजुर्ग घनश्याम शाम करीब पांच बजे दो छोटे बच्चों के साथ, सड़क के पास स्थित घर पर जा रहे थे। बताते हैं, “उनके दो बेटों ने सड़क किनारे मकान बना लिया है। रोज-रोज इस रास्ते पर चलना उनके बस में नहीं है। अधिकतर समय गांव वाले घर पर ही रहते हैं। उनका कहना है, स्कूल से घर लौट रहे छोटे बच्चों के सामने दस-दस किमी. पैदल चलना सबसे बड़ी चुनौती है। कुछ बच्चे तो एक दिन छोड़कर स्कूल जाते हैं, क्योंकि वो थक जाते हैं। हमारे गांव में आंगनबाड़ी केंद्र और प्राइमरी स्कूल नहीं हैं।
कक्षा एक से पांच वाले बच्चे भी सरखेत, जो कि गांव से लगभग पांच किमी. है, वहां जाते हैं। रास्ते के हाल तो आप देख ही रहे हो। शाम तीन बजे स्कूल से घर की ओर चलने वाले छोटे बच्चे शाम करीब छह बजे तक घर पहुंच पाते हैं।”

ग्रामीण राकेश से हमारी मुलाकात, सड़क किनारे डोमकोट का सैरा स्थित सोबन सिंह की दुकान पर होती है। राकेश हमें पास ही एक रास्ते से गांव की ओर ले जाते हैं। यहां से गांव तक जाने का रास्ता पत्थरों से भरा है। बड़ी मुश्किल से हम आगे बढ़ पा रहे थे। राकेश बताते हैं, “इस रास्ते से हम सैरा तक आते हैं। वो हमें एक रास्ता दिखाते हैं, जो घन्तू का सैरा से मिलता है। इसी रास्ते से होकर गांव के बच्चे स्कूल जाते हैं। तीखी ढलान वाला संकरा रास्ता चट्टान के पास से होकर जाता है, जिस पर रपटने की आशंका बनी रहती है।”

राकेश बताते हैं, “गांव से 13 बच्चे यहीं से होकर सरखेत, पीपीसीएल स्थित स्कूल जाते हैं। आपदा में यह रास्ता तहस नहस हो गया था। गांववालों ने इसकी मरम्मत की, ताकि बच्चे आ जा सकें। घन्तू का सैरा का पुल भी आपदा में बह गया था। बच्चे इसी पुल से होकर आते जाते थे। अभी तो रास्ता पार हो रहा है, पर बरसात में बच्चों का स्कूल छूटने की आशंका है।”

शाम करीब साढ़े पांच बजे, हम गांव से वापस लौट रहे थे। रास्ते में, हमारी मुलाकात स्कूल से घर लौट रहे कक्षा छह के छात्र शेखर, कक्षा सात में पढ़ने वाले सागर कठैत और अंशिका से होती है। स्कूल यूनीफॉर्म में बस्ते लेकर बच्चे डोमकोट जा रहे थे। हमने उनसे पूछा, आप बहुत पैदल चलते हो, उनका जवाब था, “चलना ही पड़ता है। थक जाते हैं, पैरों में दर्द होता है। बारिश में छाता ले जाते हैं। किताबें भींग जाती हैं।” बच्चों से उनका सपना पूछा तो वो बोले, “हम फौजी बनना चाहते हैं।”
इससे पहले हम दोपहर को डोमकोट गांव पहुंचे थे। गांव में सबसे पहला घर कुसुम का है। हमने उनके घर पर पास पड़ोस के बच्चों को खेलते हुए देखा। ये सभी बच्चे स्कूल नहीं गए थे। वजह बताई गई, स्कूल दूर है। बच्चे एक या दो दिन स्कूल जाते हैं और फिर एक दिन घर पर आराम करते हैं। स्कूल इतना दूर है कि बच्चे थक जाते हैं।

डोमकोट गांव की आरती व दीपा ने बताया, “आंगनबाड़ी केंद्र सरोना है। सरोना उनके गांव से लगभग दो किमी. पैदल रास्ते पर है। डोमकोट सरौना ग्राम पंचायत का एक गांव है। छोटे बच्चों को वहां नहीं ले जा सकते, इसलिए वो घर पर ही रहते हैं। बरसात में बच्चे अक्सर भींगते हुए घर पहुंचते हैं।”
राकेश बताते हैं, “गांव के सरकारी राशन की दुकान भी सरोना में ही है। वैसे तो सरोना तक सड़क है, पर सीधे उनके गांव से नहीं। सरौना में छिमरोली, सहस्रधारा, मसूरी और मालदेवता से पक्की रोड हैं।”

सोबन सिंह कठैत, जो गांव के रास्ते के पास ही दुकान चलाते हैं, का कहना है, “छोटी छमरोली से डोमकोट तक चार किमी. सड़क की घोषणा हो चुकी है, पर निर्माण शुरू नहीं हो सका। इस वजह से ग्रामीणों को काफी समस्याएं उठानी पड़ रही है। सड़क नहीं होने से पलायन भी होने लगा है।”
ग्रामीण राजेश बताते हैं, “कोरोना से पहले देहरादून शहर में एक निजी नौकरी कर रहे थे। बच्चे भी शहर में ही पढ़ रहे थे। अब घर लौट आए, पर कोई रोजगार नहीं है। राज मिस्त्री का काम करते हैं। बहुत ज्यादा काम नहीं मिल पाता है। गांव में घर है। यहां सड़क नहीं है, इसलिए कामधंधे के सिलसिले में शहर नहीं जा पाते। इतना रोजगार नहीं है कि शहर में किराये का कमरा लेकर रह पाएं। उनका छोटा बेटा, आंगनबाड़ी दूर होने की वजह से वहां नहीं जा पाता।”

रास्ते में हमें कक्षा दस के छात्र राहुल कठैत मिले, जो मालदेवता के राजकीय इंटर कॉलेज में दसवीं के छात्र हैं। राहुल, साढ़े बजे स्कूल से चले थे, करीब साढ़े पांच बजे हमें डोमकोट के रास्ते पर मिले। राहुल वाया डोमकोट का सैरा गांव वाले रास्ते से आ रहे हैं। राहुल बताते हैं, “स्कूल से आने-जाने में काफी समय लग जाता है। पढ़ाई के लिए समय निकालना पड़ता है। सड़क बन जाती तो काफी सुविधा होती। वो स्कूल के लिए करीब 12 किमी. पैदल चलते हैं। राहुल कहते हैं, रास्ते में शाम को डर लगता है, पर हम क्या कर सकते हैं। वो बताते हैं, यह जो रास्ता आपको दिख रहा है, उसे भी गांववालों ने ठीक किया है।”