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चिट्ठी ने अपना काम कर दिखाया और श्रेय कोई और लेने लगे

मैं सकुशल अपने घर पर था और बेरोजगार भी। मुझे बेरोजगार होने का इतना दुख नहीं था, जितना कि यह सोचकर कि दोबारा कभी मौका मिलेगा तो क्या मेरे साढ़े तीन साल का अनुभव गिना जाएगा या नहीं। हालांकि मैं ट्रेनी था। या यूं कहें कि वरिष्ठ लोगों की नजर में, मैं अभी प्रशिक्षण के लायक ही था। मुझे तो लगता है कि किसी ट्रेनी से दूसरे प्रदेश में जिला स्तर का दफ्तर स्थापित कराने और वहां पत्रकारिता कराने वाले वरिष्ठ लोगों को किसी ट्रेनिंग की जरूरत थी। अब सोचता हूं कि अगर मैं किसी मजबूत ग्रुप में शामिल होता तो, हो सकता है कि दो साल में ही स्टाफर हो जाता।

बड़ा बुरा लग रहा है, यह बताते हुए कि ट्रेनिंग के दौरान ही कई युवा अपने वरिष्ठ अधिकारियों ( पत्रकार तो कतई नहीं कहूंगा) के मुखबिर बन जाते हैं। इस तरह उन पर किसी न किसी ग्रुप में शामिल होने की मुहर लग जाती है। इनसे आफिस में होने वाली गपशप के बारे में पूछा जाता है।कौन क्या कर रहा था, कौन किससे बात कर रहा था, किसकी कंप्यूटर की स्क्रीन पर खबरों के अलावा कुछ और देखा जा रहा है। कौन किसके साथ चाय पीने बाहर जाता है। मैं यह बात फिर दोहरा देता हूं, यह काम वो वरिष्ठ अधिकारी ही कराते हैं, जो स्वयं को दूसरों से कमजोर महसूस करते हैं।
अखबारों में उन वरिष्ठ पत्रकारों की भी कोई कमी नहीं है, जो अपने संपादन और खबरों से युवाओं को बेहतर से बेहतर पत्रकारिता करने के लिए प्रेरित करते हैं।
एक किस्सा बताता हूं, एक अखबार के दफ्तर में हर व्यक्ति की गतिविधियां रिकार्ड होती थीं, खासकर उनकी, जो किसी भी ग्रुप से बाहर थे। तब मोबाइल फोन नहीं होते थे। रिसेप्शन से एक फोन कर लिया। उसी समय समझ गया था कि कल फोन को लेकर कुछ होने वाला है। सच मानिएगा, दूसरे दिन यह आदेश जारी हो गया कि रिसेप्शन पर कोई नहीं खड़ा होगा। फोन करने की भी मनाही हो गई। इसी तरह, एक बार दफ्तर के लॉन में नहीं खड़े होने का आदेश जारी हुआ। हमने समझ लिया कि यहां तो गतिविधियां रिकार्ड करने के लिए मुखबिरों की टीम है। हम जानते थे उन लोगों को, पर क्या कहना इन लोगों को, इनके लिए तो तरक्की पाने के मायने यही थे। इन पर विस्तार से चर्चा करूंगा।
मैं परेशान था, क्योंकि मुझ पर तो अखबार में नौकरी करने का जुनून ( पागलपन कहूं तो ज्यादा अच्छा रहेगा) सवार था। अगर, मैं उसी समय पत्रकारिता को छोड़कर फिर से ट्यूशन पढ़ाने या नौकरी की तैयारी करने में जुट जाता तो आज जैसे हालात नहीं होते। मैं आर्थिक हालातों की बात कर रहा हूं। मेरे पापा कहते थे, जितनी मेहनत अखबार में कर रहा हैं, इससे आधी भी कंपीटिशन की तैयारी में करता तो, जीवन संवार लेता। पापा का गुस्सा जायज था। जिस दिन मैंने उन्हें बताया था कि अखबार में लग गया हूं, वो केवल मुस्कराभर दिए थे। कोई ऐसी प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की थी, जिससे मैं बहुत ज्यादा खुश और प्रेरित होता।
मैं कभी देहरादून तो कभी ऋषिकेश के चक्कर लगाता। कंपीटिशन की तैयारी भी की, पर मन नहीं लगा। एक बार किसी वरिष्ठ ने मुझे दूसरे अखबार में भी भेजा। मैं वहां गया, वहां के संपादक ने मुझे दूसरे दिन अपनी फाइल दिखाने को कहा। उन्होंने आश्वासन दे दिया था कि कुछ न कुछ अच्छा होगा। मैं घर पहुंचा और यह सोचता रहा कि क्या इस अखबार में भी ट्रेनी बनना होगा। साढ़े तीन साल को यहां काउंट नहीं किया जाएगा। मैं तो उसी अखबार में फिर से ऋषिकेश या देहरादून में काम करने की इच्छा पाले था। मैं दूसरे अखबार के दफ्तर में नहीं पहुंचा। यह मेरी गलती थी। मुझे दूसरा अखबार ज्वाइन कर लेना था।
पत्रकारिता में आने वाले युवाओं से कहना चाहूंगा कि आप अपने कार्य में निष्ठा और लगन का परिचय दें। पूरी ईमानदारी से कार्य करें, लेकिन किसी भी मीडिया हाउस से भावुक होकर न जुड़े। यहां आपसे जमकर कार्य कराने वाले बहुत लोग मिल जाएंगे, पर जब आप किसी मुश्किल में होंगे तो सबसे पहले यही लोग आपका साथ छोड़ देंगे। अगर कोई अच्छा अवसर मिलता है तो तुरंत स्वीकार कर लें। हालांकि नई नौकरी ज्वाइन करने से पहले उन सभी बातों पर ध्यान देना जरूरी हैं, जो आपके जीवन को प्रभावित करती हैं।
मैं लगातार छह महीने तक बेरोजगार रहा। ऋषिकेश में एक वरिष्ठ पत्रकार ने मुझसे कहा, अगर अखबार में ही नौकरी करनी है तो तुम सीधा मालिक को पत्र लिखो। मुझे मालूम है कि तुम्हारी बात सुनने के बाद भी कोई उसको मालिक तक नहीं पहुंचा रहा। यहां लोगों को अपनी फिक्र है, किसी दूसरे की नहीं। दूसरों की याद तो तब आती है, जब कोई काम होता है। मुझे उनका सुझाव पसंद आ गया। मैंने एक अच्छा पैन खरीदा, क्योंकि किसी अखबार के मालिक को चिट्ठी जो लिख रहा था।
मैंने भी सोचा, देखा जाएगा। ज्यादा से ज्यादा क्या करेंगे, जवाब नहीं देंगे। नौकरी खोने का कोई खतरा भी नहीं था, वो तो मैंने पहले ही खो दी थी। अगर भूखे प्यासे धर्मशाला में नौकरी करता। सुबह शाम फोन करके मुखबिरी करता। हर आदेश निर्देश को सिर माथे पर लगाता, तो नौकरी कहीं नहीं जाने वाली थी। हम तो ठहरे भावुक लोग। अखबार की नौकरी भावुक होने वालों के लिए कोई होती है। रही बात स्वाभिमान की, वो तो घर में छोड़कर जाना होता है।
खैर, मैंने चिट्ठी लिखी, आपने मेरी शादी पर शुभकामनाएं दी थीं। आपकी शुभकामनाओं को असर दो माह में ही हो गया। मैं बिना किसी दोष के आपके ही संस्थान से बाहर हो गया। पूरी ईमानदारी और निष्ठा के साथ पत्रकारिता की। आपके संस्थान ने मुझे पत्रकारिता में कुछ करने, आगे बढ़ने का मौका दिया था। मेरा किसी और अखबार मेंं जाने का कोई इरादा नहीं है। मुझे तो बस आपके संस्थान में फिर से नौकरी चाहिए।
चिट्ठी को बेहद भावुक करने वाले अंदाज में लिखा था। सुझाव देने वाले वरिष्ठ पत्रकार ने मुझे कुछ शब्द दिए थे। जब अखबारों की भाषा अपने पाठकों को भावुक कर देती है, तो मैं क्या एक चिट्ठी भी नहीं लिख सकता था। मैंने चिट्ठी को दो तीन बार पढ़कर सीधे पोस्ट कर दिया। उस पर लिख दिया व्यक्तिगत।
चिट्ठी काम कर गई और एक सप्ताह बाद ही मुझे फोन आ गय़ा। मंडी का हिसाब किताब लेकर पहुंच जाओ एकाउंट डिपार्टमेंट में। अप्रैल 2000 की बात है, मैं तय दिन और तय समय पर तड़के ही बस पकड़कर सीधा अखबार के दफ्तर में। मैं अपने एक इंचार्ज से हिसाब किताब रखने और बिलों को संभालना सीख चुका था। यही अभ्यास मैंने मंडी में भी किया था, जो काम आया। एक नोट बुक, जिसमें आप कार्बन लगाकर रोजाना का हिसाब लिखो। मूल कॉपी संस्थान को भेज दो और कार्बन कॉपी अपने पास रखो। बिलों की फोटो स्टेट का पूरा बंडल तैयार रखना चाहिए। एक-एक पैसे का हिसाब रखो।
मेरे पास एक -एक पैसे का हिसाब था। यह हिसाब तो संस्थान के एकाउंट डिपार्टमेंट के पास भी था, पर वो तो मुझे चेक करना चाह रहे थे। उन्होंने पूरा हिसाब लिया और फिर बोले, उन पांच हजार रुपये का हिसाब भी दो, जो तुम्हें पहली बार मंडी जाते समय दिए थे। मैंने कहा, उस समय कहा गया था कि इस पैसे का कोई हिसाब नहीं लिया जाएगा। उन्होंने कहा, आप रफ हिसाब बना दीजिए। इसमें देहरादून से मंडी तक का किराया, वहां कमरा मिलने तक किसी होटल में रहने का बिल, खाने का बिल आदि का हिसाब देना था। मेरे पास लिखा हुआ था, मैंने 4995 रुपये का हिसाब लिखकर दे दिया। जो टिकट बगैरह मेरे पास थे, वो भी पेश कर दिए।
मेरा सुझाव है कि आप किसी भी संस्थान में रहें, वहां के हिसाब किताब को साफ सुथरा रखें। बिलों को तिथि के अनुसार रखें। सभी बिलों का विवरण तैयार रहना चाहिए। यह सही बात है कि जो भी कंपनी या संस्था आपको कहीं जाने, रहने, खाने के लिए पैसे दे रही है, उसको हिसाब तो देना होगा। आप ईमानदारी से हिसाब किताब रख रहे हों तो आपको कोई भी परेशान नहीं कर सकता। वहां मुझसे कहा गया, सारा हिसाब ठीक है। आपको कुछ दिन में फोन किया जाएगा।
मुझे एक माह से थोड़ा ज्यादा दिन तक फोन का इंतजार करना पड़ा। मुझे एक जून को ऋषिकेश ज्वाइन करने को कह दिया गया। एक माह इसलिए लगा, क्योंकि वहां कोई वैकेंसी नहीं थी। एक रिपोर्टर ने यूपी में ट्रांसफर लिया था, इसलिए उनकी जगह मैं विराजमान हो गया।
मुझे फिर से अखबार में नौकरी दिलाने में कुछ लोग फिर से अपना योगदान बताने लगे। मुझे तरह तरह की नसीहत दी जाने लगी। मैं ठहरा वेबकूफ, जो एक बार फिर यह मान बैठा कि इन लोगों ने मेरे लिए कितना कुछ किया है। आज महसूस करता हूं कि चिट्ठी ने किसी दवा की तरह काम किया था। अगर मैं चिट्ठी नहीं लिखता तो मेरे शुभचिंतक, मुझे तब तक टहलाते, जब तक मैं हाथ जोड़कर यह नहीं कह देता कि पत्रकारिता में टिके रहना मेरे वश की बात नहीं है। मैं तो चला अपने घर।
अभी आपको यह भी बताना है कि मेरी ट्रेनिंग कितनी लंबी चली। इतनी अवधि में तो कोई संपादक बन जाता। आपको कल बताऊंगा, अखबार में एक नया पदनाम, जिसका अखबार में काम करने वालों ने भी नाम नहीं सुना होगा। कल मिलते हैं, मेरी बातों को झेलने के लिए आपका शुक्रिया।

Rajesh Pandey

राजेश पांडेय, देहरादून (उत्तराखंड) के डोईवाला नगर पालिका के निवासी है। पत्रकारिता में  26 वर्ष से अधिक का अनुभव हासिल है। लंबे समय तक हिन्दी समाचार पत्रों अमर उजाला, दैनिक जागरण व हिन्दुस्तान में नौकरी की, जिनमें रिपोर्टिंग और एडिटिंग की जिम्मेदारी संभाली। 2016 में हिन्दुस्तान से मुख्य उप संपादक के पद से त्यागपत्र देकर बच्चों के बीच कार्य शुरू किया।   बच्चों के लिए 60 से अधिक कहानियां एवं कविताएं लिखी हैं। दो किताबें जंगल में तक धिनाधिन और जिंदगी का तक धिनाधिन के लेखक हैं। इनके प्रकाशन के लिए सही मंच की तलाश जारी है। बच्चों को कहानियां सुनाने, उनसे बातें करने, कुछ उनको सुनने और कुछ अपनी सुनाना पसंद है। पहाड़ के गांवों की अनकही कहानियां लोगों तक पहुंचाना चाहते हैं।  अपने मित्र मोहित उनियाल के साथ, बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से डेढ़ घंटे के निशुल्क स्कूल का संचालन किया। इसमें स्कूल जाने और नहीं जाने वाले बच्चे पढ़ते थे, जो इन दिनों नहीं चल रहा है। उत्तराखंड के बच्चों, खासकर दूरदराज के इलाकों में रहने वाले बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से ई पत्रिका का प्रकाशन किया।  बाकी जिंदगी की जी खोलकर जीना चाहते हैं, ताकि बाद में ऐसा न लगे कि मैं तो जीया ही नहीं। शैक्षणिक योग्यता - बी.एससी (पीसीएम), पत्रकारिता स्नातक और एलएलबी, मुख्य कार्य- कन्टेंट राइटिंग, एडिटिंग और रिपोर्टिंग

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