कहानी झंगोरा मंडुवा कीः फसल पैसे में नहीं, सामान के बदले बिक जाती है
किसान मंडी तक नहीं पहुंचा पाते फसल, नहीं मिल पाता सही दाम
राजेश पांडेय। न्यूज लाइव
उत्तराखंड में मंडुवा (Finger millet) की फसल काटी जा रही है और इस बार अभी तक फसल का कोई रेट निर्धारित नहीं किया गया है। पर, किसान मन बना रहे हैं कि पिछली बार से ज्यादा दाम लिया जाए। इसी बीच गढ़वाल के इन गांवों में वस्तु विनिमय (Barter System) आज भी चल रहा है। वस्तु विनिमय का मतलब, वस्तु के बदले वस्तु देना, इसमें पैसा प्रचलन में नहीं होता। बड़ी संख्या में किसान व्यापारियों से मंडुवा के बदले, राशन और खानपान की सामग्री ले रहे हैं।
स्थानीय कुछ लोग देहरादून, ऋषिकेश के बड़े व्यापारियों के संपर्क में हैं। इन्हीं के माध्यम से किसानों से मंडुवा, झंगोरा, दालों को इकट्ठा किया जाता है। मलाऊं गांव में एक संवाद के दौरान महिलाएं बताती हैं, हम लोग नजदीकी चोपता बाजार में एक दुकान पर मंडुवा, झंगोरा और दालें बेचने जाते हैं। इसके बदले, घर की जरूरतों का सामान मिल जाता है। किसान इन दुकानदारों से अनाज का पैसा नहीं लेते।
पिछली बार मंडुवा किस रेट पर बेचा, पर मलाऊं गांव की, कृषक गंगा देवी का कहना है, यही कोई 20 से 22 रुपये प्रति किलो के हिसाब से बिका था, यह रेट तब मिला था, जब हम खुद दुकान तक अनाज लेकर गए थे। उनके पास पिछली बार ढाई कुंतल मंडुवा था। हिसाब लगा लो, यही कोई पांच हजार रुपये की उपज बिकी। लागत की बात करें तो कम से कम तीन हजार रुपये का खर्चा हो गया। इस तरह छह माह की खेती की बचत दो हजार रुपये है, जबकि इसमें हमने अपना पारिश्रमिक नहीं जोड़ा है। वहीं, मलाऊं गांव की दुर्गा देवी का कहना है, “हमें खेत से मंडुवा के साथ अन्य फसलें, जैसे झंगोरा, रयास, सोयाबीन, चौलाई भी मिलते हैं। अनाज के साथ, पशुओं के लिए चारा भी इन्हीं खेतों से मिलता है। ये सब भी छह माह की खेती का उत्पादन हैं। ”
मलाऊं गांव में, कुछ महिलाओं ने इस बात का भी जिक्र किया कि, “हमारे यहां एक ही दुकान है, जहां किसान उपज बेचते हैं। वहां ज्यादा मोलभाव नहीं होता।”
ढौंडिक गांव के करीब 56 वर्षीय किसान मकर सिंह, पहले देहरादून में, एक कंपनी में ड्राइवर की जॉब करते थे। अब वापस गांव लौट आए हैं और खेतीबाड़ी व पशुपालन करते हैं। बताते हैं, “उनके पास लगभग चार कुंतल मंडुवा उत्पादन हो जाता है। स्थानीय स्तर पर ही, कुछ लोग, जिनका देहरादून की मंडी में संपर्क रहता है, किसानों से फसल खरीदते हैं।”
मकर सिंह के अनुसार,”मेहनत के हिसाब से मंडुवा का रेट कम है, यह कम से 40 रुपये प्रति किलो होना चाहिए। अगर, हम खुद की मेहनत का पैसा जोड़ने लगे तो खेती की लागत बहुत ज्यादा हो जाती है। छह माह की इस फसल को हासिल करने के लिए किसान और उसके परिवार को लगभग तीन माह खेतों में ही दिन गुजारना पड़ता है। अब आप पारिश्रमिक जोड़ सकते हैं। पर, किसान कभी अपनी मेहनत का मूल्यांकन नहीं करता।”
वहीं, किरमोड़ू के नरेंद्र भी पहले टैक्सी ड्राइवर थे, पर इन दिनों खेतीबाड़ी और पशुपालन कर रहे हैं। उनके पास हर साल लगभग दो से ढाई कुंतल मंडुवा होता है, पर वो इसको बेचने की बजाय घर में इस्तेमाल करते हैं। इसकी वजह, रेट ज्यादा नहीं मिलना है। नरेंद्र इस बात से इनकार करते हैं कि “मंडुवा का रेट 20 से 22 रुपये प्रति किलो है, उनके अनुसार यह 15 रुपये प्रति किलो खरीदा जाता है। बड़े व्यापारियों के संपर्क में रहने वाले लोग, किसानों से मंडुवा इकट्ठा करके ट्रकों से ले जाते हैं।”
बताते हैं, “मंडुवा और झंगोरा, दोनों ताकत देने वाले अनाज हैं। इनकी अहमियत लोगों को कोरोना के समय में पता चली थी। उनका बताते हैं, अनाज के बदले पैसा लेना चाहिए, न कि तेल, चावल, गुड़, नमक। तेल की क्वालिटी बहुत अच्छी नहीं होती। पर, लोग इस बात से खुश हो जाते हैं कि उनको कनस्तर भरकर तेल मिल गया। हमारे बुजुर्ग पहले अनाज के बदले सामान लेते थे, पर वो जमाना कुछ और था।”
बारहनाजा में मंडुवा के साथ और भी फसलें
उत्तराखंड में गन्ना और मंडुवा (रागी) तीसरे नंबर की फसलें हैं। राज्य में कुल कृषि क्षेत्रफल के नौ फीसदी हिस्से में ये फसलें उगाई जाती हैं। मंडुवा पर्वतीय और गन्ना मैदानी व तराई वाले इलाकोंं में प्रमुखता से उगाया जाता है। पर्वतीय इलाकों में गेहूं कटने के बाद मार्च से मई तक बारहनाजा की खेती शुरू होती है।
बारहनाजा यानी मंडुवा, कौणी, सोयाबीन, रयास दाल, तोर, सुंटा (लोबिया), नौरंगी दाल, चौलाई (मारसा), राजमा, काला भट्ट, काली दाल (उड़द)। मिश्रित खेती का इससे बेहतर उदाहरण नहीं हो सकता। झंगोरा भी इसी सीजन में बोया जाता है, जिसके खेत पास में ही होते हैं। किसानों का कहना है, एक साथ एक ही खेत में इतनी फसलें बोने से हमें सभी तरह का अनाज व दालें मिल जाती हैं, भले ही ये थोड़ा थोड़ा ही क्यों न हो।
मंडुवा की पौष्टिकता का जवाब नहीं
पर, क्या मंडुवा, झंगोरा और उसके साथ उगने वाली फसलें पर्वतीय इलाकों के किसानों की आर्थिकी को बेहतर बना सकते हैं। इसकी पौष्टिकता और मेडिसनल वैल्यू के बारे में बीज बचाओ आंदोलन के प्रणेता विजय जड़धारी अपनी पुस्तक “उत्तराखंड में खान पान की संस्कृति” में विस्तार से बताते हैं। वो जिक्र करते हैं कि मंडुवा यानी कोदा को उपेक्षित मोटे अनाज की श्रेणी में रखा गया है जबकि यह सबसे बारीक है और दुनिया में जितने अनाज हैं, उनमें पौष्टिकता की दृष्टि से मंडुआ सबसे शिखर पर है।
यह महिलाओं, पुरुषों, बच्चों एवं बूढ़ों सबके लिए यह बहुत उपयोगी है। बढ़ते बच्चों के लिए तो यह और भी उपयोगी है, क्योंकि इसमें सबसे ज्यादा कैल्शियम पाया जाता है। पुराने जमाने में जब उत्तराखंड के निवासी मंडुवा को अपने दैनिक खानपान में जरूरी मानते थे तब उनका शरीर पूर्ण स्वस्थ और इतना बलिष्ठ होता था कि कभी दुर्घटनावश ऊंची चोटी या पेड़ से गिरने पर भी उनकी हड्डी नहीं टूटती थी। बीमारियां उनके पास नहीं फटकती थीं और कभी जंगली जानवर भालू आदि से यदि भिड़ंत हो गई तो बिना किसी हथियार के ही अपने भुजा बल से उसे मौत के घाट उतार देते थे।
किसानों को कम रेट,बाजार में कई गुना कीमत
रुद्रप्रयाग जिला में मंडुवा-झंगोरा की खेती खूब होती है। क्या ये किसानों के लिए लाभ की फसल हैं, को जानने के लिए रुद्रप्रयाग खड़पतिया, क्यूड़ी गांव में फसल काटने के दौरान महिला किसानों से बात की। करीब 55 वर्षीय सुबोधिनी, जो लगभग 30 साल दिल्ली में रहने के बाद, कुछ वर्ष पहले गांव आई हैं, का कहना है, “पहाड़ में कृषि चुनौती है। बताती हैं, किसानों से मंडुवा, जिस कीमत पर खरीदा जाता है, बहुत कम है। पिछले कुछ वर्षों में, यह 15 रुपये प्रति किलो के हिसाब से बिका था। कहीं-कहीं 20 से 22 रुपये प्रति किलो भी बिका था। जबकि देहरादून जैसे शहरों में यह 60 रुपये प्रति किलो से कम नहीं मिलता। बेहतर पैकेजिंग के साथ इसका रेट सौ रुपये भी अधिक हो जाता है। इसके बिस्किट, चॉकलेट, माल्ट, केक, लड्डू भी बनाए जाते हैं।”
सुबोधिनी देवी कहती हैं, “मंडुवा उनकी मेहनत के हिसाब से अच्छे दाम पर नहीं लिया जाता, जबकि हमारे से खरीदा गया अनाज बड़े शहरों में कई गुना कीमत पर बेचा जाता है। इसकी वजह क्या होगी, पर उनका कहना है, हमारे पास उतने संसाधन और जानकारियां नहीं हैं, जबकि हम मंडुवा को खेतों से काटने के बाद हाथों से कूटते हैं, साफ करते हैं और इसका साफ दाना व्यापारियों को उपलब्ध कराते हैं। बाजार में भी ऐसा ही बिकता है। हम भी इसको पिसवाकर आटा तैयार कर सकते हैं।”
खड़पतिया में ही रहने वाले युवा किसान धर्वेंद्र बिष्ट बताते हैं, “एक नाली खेत में मंडुवा- 45 से 50 किलो तक हो सकता है, पर जंगली जानवर नुकसान पहुंचाते हैं,इसलिए यह 30 से 40 किलो प्रति नाली भी मिल जाए तो अच्छी बात है। पिछले साल देहरादून, ऋषिकेश सहित शहरों से आए व्यापारियों ने किसानों से 20 से 22 रुपये प्रति किलो की दर से मंडुवा खरीदा था। बताते हैं, दस से 15 रुपये प्रति किलो का भाव आज से लगभग चार- पांच साल पहले का है। किसान जागरूक हो रहा है और मंडुवा का रेट बढ़ गया है। इस बार किसान पहले से अधिक रेट की मांग कर रहे हैं, क्योंकि पहाड़ में खेती आसान काम नहीं है। मंडुवा की खेती सरल नहीं है। बरसात में इसकी निराई गुड़ाई करना, खरपतवार हटाना आसान काम नहीं है। मंडुवा बहुउपयोगी अनाज है।”
झंगोरा है पौष्टिक रेशे का बड़ा भंडार
बीज बचाओ आंदोलन के प्रणेता विजय जड़धारी अपनी पुस्तक “बारहनाजा” में झंगोरा पर चर्चा करते हैं, झंगोरा पौष्टिकता की दृष्टि से रेशे का बड़ा भंडार है, इसमें 9.8 फीसदी रेशा पाया जाता है, जो मधुमेह रोगियों के लिए बहुत उपयोगी है। इसमें वसा, खनिज और लौह तत्व चावल की तुलना में ज्यादा पाए जाते हैं। पोषण की दृष्टि से यह चावल व गेहूं से ज्यादा उपयोगी है। गढ़वाल-कुमाऊं में झंगोरा की आठ-दस प्रजातियां पाई जाती हैं।
धूप निकलने पर खेतों से उठ रही नयार
तल्ला नागपुर के रुद्रपुर- पोखरी रोड के गांवों में करीब दो सप्ताह पहले झंगोरा काटा जा चुका है, पर उसके तने, जिसको स्थानीय बोली में नयार कहा जाता है, खेतों में ही पड़े थे। धूप नहीं निकलने की वजह से इसको खेतों में ही छोड़ दिया गया था। यहां किसान झंगोरा कूटने और नयार सूखने के लिए धूप का इंतजार कर रहे थे। इस बीच खेतों में मंडुवा की कटाई भी पूरी कर ली गई। मंडुवा भी धूप में सुखाने के बाद कूटा जाना था। पिछले रविवार से दिन में धूप निकल रही है, जिससे किसानों को राहत मिली है, हालांकि शाम को यहां बारिश हो रही है।
धूप में सूखे नयार को खेतों से घर पहुंचाया जा रहा है। यहां नयार का भारी बोझ पीठ पर लादकर घरों की ओर जाती महिलाओं की कतार देखी जा सकती है। वहीं, कुछ किसानों ने धूप में सुखाए गए झंगोरा और फिर मंडुवा की कुटाई शुरू कर दी है। इसके बाद दालों, जिनमें सोयाबीन, रयास प्रमुख हैं, की बेलों को काटकर, सुखाकर पशुओं को खिलाएंगे।
खड़पतिया गांव के आशीष बिष्ट बताते हैं, “हमारे घर पर झंगोरा कूटा जा रहा है। नयार को पेड़ों पर टांग दिया गया है, जिसे समय-समय पर पशुओं को खिलाया जाएगा। यहां दिसंबर से जनवरी के महीने में बर्फ पड़ती है। उस समय पशुओं को चरने के लिए बाहर नहीं भेज सकते। उस समय यही नयार पशु खाएंगे। झंगोरा और मंडुवा के तने हमारे लिए काफी काम के होते हैं, पर बारिश में खेतों में पड़े रहने इसको नुकसान पहुंचा है।”
झंगोरा और मंडुवे की कुटाई बड़ी चुनौती
कुछ दिन धूप में सुखाने के बाद किसान शूरवीर सिंह और उनकी बेटी आरती झंगोरा की कुटाई कर रहे हैं। इस दौरान काफी धूल उड़ रही है। शूरवीर बताते हैं, “इस धूल से जुकाम हो जाता है। इससे गले में खरांस और सांस लेने में दिक्कत भी हो जाती है। इसलिए हमने नाक-मुंह ढंके है। हमारे बैल इतने दक्ष नहीं है कि वो अनाज की कुटाई के लिए गोल चक्कर में घूम सकें, इसलिए हम लाठियों से अनाज कूट रहे हैं।” बीच-बीच में आरती छत पर सूख रहे झंगोरा को कंडी में भरकर आंगन में लाती हैं और लाठी से कुटाई करती हैं।
शूरवीर सिंह कूटे गए झंगोरा के दानों को छानकर अलग कर रहे हैं। आंगन में झंगोरा और उससे उठती धूल ही दिखाई देते हैं। आरती का कहना है, “मेहनत को ध्यान में रखते हुए झंगोरा का रेट 40 से 45 रुपये प्रति किलो होना चाहिए। किसान गांव में ही अनाज बेच देते हैं, जिसका उनको सही रेट नहीं मिल पाता। उनके पिता शूरवीर सिंह उनकी बात पर सहमति व्यक्त करते हैं।”
जैविक हैं मंडुवा, पर जैविक बिकता नहीं
इन गांवों की खेती जैविक (Orgnic Farming) है, वो इसलिए, क्योंकि किसान गोबर और पत्तियों की खाद इस्तेमाल करते हैं। सिंचाई वर्षा जल पर निर्भर है। पर, जब भी मंडुवा और झंगोरा को बेचने का समय आता है, तब आर्गेनिक शब्द ही कहीं खो जाता है। शहर में आर्गेनिक खाद्य पदार्थों की कीमत सामान्य उत्पादों से कहीं ज्यादा होती है। खड़पतिया निवासी आरती का कहना है, “यहां अनाज आर्गेनिक के रेट पर नहीं बिकता। जबकि खेती को जैविक बनाने के लिए किसान बहुत परिश्रम करते हैं। ऊंचाई पर स्थित खेतों तक गोबर की खाद पहुंचाने के लिए भारी बोझ लादकर कम से कम एक से दो किमी. चढ़ाई पार करनी पड़ती है।”
अनाज सरकार की व्यवस्था से मंडी तक पहुंचे
करीब 30 साल दिल्ली में प्राइवेट कंपनी में जॉब करके लौटे करीब 60 वर्षीय मातबर सिंह बिष्ट और उतनी पत्नी हमें अपने आंगन में मंडुवा की कुटाई और छनाई करते दिखे। मातबर सिंह बताते हैं, “कोरोना के समय परिवार सहित गांव के मकान में शिफ्ट हो गए थे। पर, खेतीबाड़ी में कुछ हासिल नहीं होता, क्योंकि जंगली जानवर फसल को बहुत नुकसान पहुंचा रहे हैं। मंडुवा-झंगोरा का दाम मेहनत के हिसाब से अच्छा नहीं है। सरकार पर्वतीय क्षेत्रों के किसानों की उपज को सीधा मंडी तक पहुंचाने की व्यवस्था करे और रेट भी निर्धारित किया जाए। किसान स्थानीय स्तर पर अनाज बेच रहे हैं, जिससे उनको मनमाने रेट मिल पाते हैं।”
वरिष्ठ पत्रकार एसएमए काजमी का कहना है, “यह सुनकर बड़ी हैरत होती है कि आज भी पर्वतीय क्षेत्र में वस्तु विनिमय (Barter System) चल रहा है। पुराने जमाने की यह व्यवस्था वर्तमान में किसानों की आर्थिक प्रगति के लिए सही नहीं है, क्योंकि इस सिस्टम में रुपये का आदान प्रदान नहीं होता। यह पैसों के डिजीटल लेन-देन और बैंकिंग व्यवस्था को भी हतोत्साहित करता है। अनाज के बदले सामान लेने वाले किसानों के पास गुणवत्ता वाली वस्तुओं के चयन और वस्तुओं का मोलभाव करने का विकल्प भी नहीं होता। संभवतः अनाज को मंडी तक पहुंचाने के लिए परिवहन साधन नहीं होने से, यह व्यवस्था आज भी प्रचलन में है। जहां तक अनाज के मूल्य की बात है, किसानों को लाभ मिलना चाहिए। इसके लिए सरकार उस व्यवस्था को निर्धारित करे, जिसमें मुनाफा पाने वाले बिचौलियों की भूमिका न हो। कोआपरेटिव व्यवस्था के तहत किसान खुद उत्पादों के परिवहन, पैकेजिंग और बिक्री में भागीदारी करें। इसी तरह के कुछ और कदम, पहाड़ में खेती किसानी को प्रोत्साहित करने वाले होंगे।”