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क्या कोई हमें ले जाएगा सुसवा के स्रोत तक ?

सुसवा नदी का स्रोत कहां हैं? यह सवाल हम इसलिए कर रहे हैं, क्योंकि हम मोथरोवाला से पहले किसी भी जलधारा को सुसवा के रूप में नहीं पहचान सके। यह भी हो सकता है कि हम स्रोत तक पहुंचने के अपने मिशन में असफल साबित हो गए हों।
पर, हमारा भी एक सवाल है, जिस नदी को गंगा में पॉल्युशन फैलाने के लिए जिम्मेदार ठहराया जाता हो, जिस नदी से हजारों बीघा खेती को सींचा जाता हो, जिस नदी से सींचीं बासमती की सुगंध आकर्षित करती हो, जिस नदी को प्रदूषण मुक्त करने की बात सरकारी एवं गैर सरकारी स्तर पर कही जाती रही हो, जिस नदी की स्वच्छता के लिए बड़े प्रोजेक्ट बनाने की पहल की जा रही हो, जिस नदी में तमाम प्रदूषित नाले मिलने का जिक्र किया जा रहा हो, क्या उसके स्रोत या स्रोतों को संरक्षित करने की सबसे अहम पहल को विस्तार नहीं दिया जाना चाहिए?
हम मोथरोवाला से आगे भारूवाला की ओर गए, वहां कुछ लोगों ने बताया कि सुसवा के बहुत सारे स्रोत आसपास हैं। पहले हम सुसवा में नहाया करते थे, लोग इसमें कपड़े धोते थे, इसका पानी जानवरों को पिलाया जाता था, पर अब हालत यह है कि इस नदी के पास ज्यादा देर खड़े नहीं हो सकते। हमें आबादी की ओर से आ रहे एक नाले को दिखाते हुए बताया गया कि यह सुसवा है। इस नाले के पानी को स्वच्छ करके ताल बनाया गया है। पर, स्पष्ट रूप से कोई प्रमाण नहीं मिला, जिसके आधार पर कहा जा सके कि यह सुसवा की धारा है।

हमारी खोज जारी थी औऱ हम मोथरोवाला में पुल पार करके बिंदाल के दूसरे किनारे पर पहुंचे, जहां खेती हो रही है और यह इलाका गांव जैसा दिखता है। यहां हम एक स्कूल भवन के किनारे से होते हुए एक और जलधारा तक पहुंच गए, जिसे सपेरा बस्ती नाला के नाम से जाना जाता है। वहां हमने एन्वायरमेंटल इंजीनियर कुलदीप त्यागी से मुलाकात की, जो नाला में खास तरह के बैक्टीरिया वाला एंजाइम मिला रहे हैं, जिससे पानी में प्रदूषक तत्व कम होंगे, हालांकि यह प्लास्टिक के स्तर को कम नहीं कर सकता।
उन्होंने बताया कि बैक्टीरिया मल्टीप्लाई होते हैं और पानी में घुली गंदगी को बहुत तेजी से खाते हैं। यह नाला देहरादून के घरों से निकले दूषित पानी को लेकर पहुंचता है। उन्होंने देहरादून में चार जगहों पर सपेरा बस्ती नाला, रिस्पना, बिंदाल तथा लच्छीवाला रेंज में यह सिस्टम लगाया है। करीब एक माह से गंगा की स्वच्छता के लिए ऐसा किया जा रहा है।
मोथरोवाला से पहले हमारे पास दो जल धाराओं को सुसवा कहने का विकल्प था, जिनमें से एक, जिसको सपेरा बस्ती नाला का नाम दिया गया है। दूसरा, मोथरोवाला में खेतों के किनारे से होकर आ रही जलधारा, जो बिंदाल में मिलती है। मोथरोवाला में खेतों के किनारे से आ रही जलधारा स्वच्छ है। यहां स्वच्छ का मतलब है कि पानी के नीचे मिट्टी और पत्थर दिखाई दे रहे हैं। पर, हमारे पास इन दोनों विकल्पों को भी सुसवा बताने का कोई प्रमाण नहीं है।
जब हम किसी जलधारा को ही सुसवा के रूप में कन्फर्म ही नहीं कर पा रहे हैं तो स्रोत को कैसे पहचान पाएंगे ? अगर, सुसवा नदी को स्रोत से ही पहचान मिल जाती तो हर कोई बता देता कि सुसवा वहां से बहती है। सुसवा का उद्गम वहां है।
हमने जो अनुभव किया, उसके अनुसार, मोथरोवाला में रिस्पना, बिंदाल और सपेरा बस्ती नाला मिलकर एक नई जलधारा, जिसे हम सुसवा के नाम से जानते हैं, का निर्माण करती है।यहां से यह जलधारा आगे बढ़ रही है, गंगा की ओर।
कुल मिलाकर कहना है कि मोथरोवाला में जहां रिस्पना एवं बिंदाल खत्म हो जाती हैं, वहां से सुसवा का नाम शुरू होता है। कुल मिलाकर हम तो यहीं कह सकते हैं कि सुसवा तो मोथरोवाला से शुरू होती है।
हमें एक रिपोर्ट से यह जानकारी मिली है कि सुसवा करीब 36 किमी. लंबी नदी है, जिसके किनारों पर राजाजी नेशनल पार्क का संरक्षित वन क्षेत्र, हजारों एकड़ खेती और कई छोटे बड़े गांव हैं, जिनमें बड़कली, दूधली, केमरी, सिमलास ग्रांट, नागल ज्वालापुर, झड़ौंद, सत्तीवाला, बुल्लावाला, झबरावाला आदि गांव हैं।
हम पहले भी सुसवा के बारे में बहुत सारी बातें, चर्चाएं कर चुके हैं।
नागल ज्वालापुर बडोवाला में ग्रामीण ओमप्रकाश से मिले, जो खेती करते हैं। बताते हैं कि करीब 35 साल पहले सुसवा का जल बहुत साफ था। खेती के लिए सुसवा वरदान स्वरूप थी। इसमें तरह तरह के जलीय जीव, जैसे पनियाला सांप, मेंढ़क, मछलियां और आसपास तरह-तरह के कीट पतंगें, चिड़ियां खूब दिखते थे।
पर, अब इसका पानी जहर हो गया। देहरादून शहर की गंदगी, पॉलिथीन, प्लास्टिक और भी न जानें क्या-क्या लेकर आती है सुसवा। यहां सिंचाई के लिए एकमात्र सुसवा ही है, जिससे खेती को बड़ा नुकसान हो रहा है। उपज लगभग आधी हो गई। बताते हैं कि सुसवा के पानी से त्वचा संबंधी रोग हो रहे हैं। नदी को साफ रखा जाए, इनमें गंदगी नहीं फेंकी जाए।
उन्होंने बताया कि सुसवा के किनारों पर किसी खेत में खड़ी फसल की तरह दूर दूर तक साग नजर आता था। इसको कोई बोता नहीं था, यह प्राकृतिक रूप से उपजता था। इसको लोग दरांती से काटते थे। कुछ लोगों के लिए साग की बिक्री आजीविका का जरिया थी। यह बहुत स्वादिष्ट एवं पौष्टिक था। यह साग प्रोटीन, आयरन का स्रोत था। अब प्रदूषित सुसवा में साग ढूंढने से भी नहीं मिलता। इसको सुसवा का साग के नाम से जाना जाता था।
हमने सुसवा की स्वच्छता के लिए मुहिम चलाने वाले मोहित उनियाल से बात की, उनका कहना है कि नदियों को साफ रखने के लिए व्यवहार में परिवर्तन लाने की जरूरत है। कहावत है कि जैसा बोएगो, वैसा काटोगे। हम नदियों को प्रदूषित करते हैं और फिर चाहते हैं कि इनसे सिंचित फसलों को खाने से स्वास्थ्य को हानि न पहुंचे, ऐसा कैसे हो सकता है ?
देहरादून शहर से कूड़ा, करकट, प्लास्टिक, तरह-तरह के रसायन, कपड़े ढोकर ला रही नदियां सुसवा के माध्यम से हमारे खेतों तक यहीं सब कुछ बांट रही है। इससे हमारी फसलों को बड़ा नुकसान पहुंच रहा है। ये हानिकारक तत्व अनाज की गुणवत्ता को प्रभावित करते हैं और साथ ही साथ हमारी सेहत के लिए बड़ा खतरा बन जाते हैं।
पूर्व में हमने धान की रोपाई के समय सुसवा नदी से खेती को नुकसान पर कवरेज की थी, जिसमें जैविक खेती के पैरोकार और उन्नतशील किसान उमेद बोरा का कहना था कि दूधली से सुगंधित बासमती का खिताब छिन चुका है। टाइप थ्री बासमती भी विलुप्त होती जा रही है, जबकि यह स्वाद और सुगंध में शानदार है। चाहते हैं कि इसका नाम नहीं मिटना चाहिए। बताया कि देहरादून को बासमती के लिए भी जाना जाता है।
सुसवा में साफ पानी नहीं आ रहा। नदी कचरा बहाकर ला रही है। बासमती के खेत अब गन्ने की कृषि में बदल रहे हैं। पहले की तुलना में लगभग दस फीसदी हिस्से में ही बासमती उगाई जा रही है। जब लाभ नहीं होगा तो किसान ऐसा करेगा। वैसे भी नदी में बहकर आ रहे कचरे ने खेतों का उपजाऊपन कम किया है।
कुल मिलाकर हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि सुसवा को स्वच्छ बनाने की बात उस समय तक झूठी ही होगी, जब तक कि हम शहर के नालों को रिस्पना, बिंदाल में मिलने से नहीं रोकेंगे। हम यह भी मानते हैं कि ड्रेनेज को नहीं रोका जा सकता, घरों से दूषित जल की निकासी हमेशा की तरह होती रहेगी, पर इसका प्रभावी ट्रीटमेंट तो किया ही जा सकता है।
इसके लिए डीआरडीओ के पूर्व निदेशक सीनियर साइंटिस्ट डॉ. विजयवीर सिंह जी की इस पहल के बारे में जान सकते हैं। हम यह भी जानते हैं कि बिहैवियर चेंज सरकारी स्तर पर केवल जागरूकता अभियान तक ही सीमित हो सकता है, इसमें सरकार की कम, हम सभी नागरिकों की जिम्मेदारी ज्यादा अहम है।
हम, आप और हर व्यक्ति अपने स्तर से पहल करें तो नदियों को स्वच्छ बना सकते हैं। हमारे पास जो भी कुछ खराब है, उसको नदियों में फेंकने, कहीं भी फेंकने की आदत में बदलाव तो लाना ही होगा।
कूड़े को शिफ्टिंग से बचने की जगह इसके सही तरह से निस्तारण की बात करनी होगी। नदियां स्वच्छ रहेंगी तो पर्यावरण स्वच्छ रहेगा, इससे हमारी सेहत अच्छी रहेगी। हम सुसवा की पीड़ा को समझेंगे तो यह हमें आगे बढ़ने का मौका देगी।
यदि आपको सुसवा का स्रोत मालूम है तो हमें जरूर बताइएगा।

Rajesh Pandey

राजेश पांडेय, देहरादून (उत्तराखंड) के डोईवाला नगर पालिका के निवासी है। पत्रकारिता में  26 वर्ष से अधिक का अनुभव हासिल है। लंबे समय तक हिन्दी समाचार पत्रों अमर उजाला, दैनिक जागरण व हिन्दुस्तान में नौकरी की, जिनमें रिपोर्टिंग और एडिटिंग की जिम्मेदारी संभाली। 2016 में हिन्दुस्तान से मुख्य उप संपादक के पद से त्यागपत्र देकर बच्चों के बीच कार्य शुरू किया।   बच्चों के लिए 60 से अधिक कहानियां एवं कविताएं लिखी हैं। दो किताबें जंगल में तक धिनाधिन और जिंदगी का तक धिनाधिन के लेखक हैं। इनके प्रकाशन के लिए सही मंच की तलाश जारी है। बच्चों को कहानियां सुनाने, उनसे बातें करने, कुछ उनको सुनने और कुछ अपनी सुनाना पसंद है। पहाड़ के गांवों की अनकही कहानियां लोगों तक पहुंचाना चाहते हैं।  अपने मित्र मोहित उनियाल के साथ, बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से डेढ़ घंटे के निशुल्क स्कूल का संचालन किया। इसमें स्कूल जाने और नहीं जाने वाले बच्चे पढ़ते थे, जो इन दिनों नहीं चल रहा है। उत्तराखंड के बच्चों, खासकर दूरदराज के इलाकों में रहने वाले बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से ई पत्रिका का प्रकाशन किया।  बाकी जिंदगी की जी खोलकर जीना चाहते हैं, ताकि बाद में ऐसा न लगे कि मैं तो जीया ही नहीं। शैक्षणिक योग्यता - बी.एससी (पीसीएम), पत्रकारिता स्नातक और एलएलबी, मुख्य कार्य- कन्टेंट राइटिंग, एडिटिंग और रिपोर्टिंग

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