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…ऐसे तो मेरा जेंडर बदल जाएगा

  • सुसुवा एक नदी

मैं वेंटीलेटर पर हूं और अजीब सी तड़पन के साथ सांसें गिन रही हूं। लेकिन विश्वास दिलाती हूं कि मैं मरूंगी नहीं। भले ही मुझ पर कितने ही तरह के कैंसर अटैक क्यों न कर रहे हों। कैंसरों का गढ़ बना दिया, तुमने मुझे और मेरे आसपास बसने वाले जैवविविधता के संसार को। तुम्हारी खातिर मैं वर्षों पहले बहती थी और अब तुम्हारी वजह से रेंग रही हूं, तड़प रही हूं। न जाने आगे क्या होगा। क्या मेरा अस्तित्व रेत और पत्थरों से बनी एक लंबी रेखा भर रह जाएगा, जिसमें जल की तलाश होगी, जीवन की राह खोजी जाएगी।

आखिर मेरा कसूर क्या था। मैं सदानीरा, हर किसी को आज भी खुश देखना चाहती हूं। भले ही मेरी देह कंकाल हो गई है, लेकिन मेरा मन उतना ही निर्मल और स्वच्छ है, जितना वर्षों पहले था। मैं आज भी तुम्हारे और अगली कई पीढ़ियों के चेहरे पर वहीं हंसी और शांति देखना चाहती हूं, जो वर्षों पहले नजर आती थी। मेरे भीतर ही नहीं बल्कि आसपास एक दुनिया बसती थी, जिसमें मछलियां पलती थीं, तितलियां इठलाती, इतराती थीं। मेरा तट आंगन चिड़ियाें का मायका था, सूरज की पहली किरण के साथ ही जिनकी चहचहाट से पूरा गांव जाग उठता था।

तरह-तरह के जीवों, पक्षियों, कीट -पतंगों, विविध वनस्पतियाें का रैन बसेरा था, मेरा यह संसार। जैवविविधता के नाम से जाने जाने वाला यह संसार छोटा होता जा रहा है। इसकी वजह मेरी रगों में जहर का फैलना है। मेरे शरीर में जहर दौड़ाने का काम भी तुमने किया है, भले ही यह जान बूझकर किया हो या अनजाने में, लेकिन इस जहर को बाहर निकालने की जिम्मेदारी भी तुम्हारी ही है।

मेरा क्या है, मैं तो इस जहर के साथ भी किसी भी हालत में अपने मुकाम पर पहंचकर आखिरकार गंगा में मिल जाऊंगी। तुम मुझ पर कितने ही जुल्म करो, लेकिन मैं रेंगना नहीं छोड़ूंगी, भले ही तुम मेरी राहत बाधाओं से भर दो। क्योंकि मैं उस प्रकृति का हिस्सा हूं, जिस पर पूरी दुनिया टिकी है और जो पौराणिक काल से जीव कल्याण के संकल्प का पालन कर रही है।

किसी जमाने में मेरा अंदाज बड़ा निराला था। मैं खुद पर इतराते हुए बहती थी। मुझे खुद पर गर्व था, क्योंकि मैं प्रकृति की बेटी हूं, जिसने एक नहीं बल्कि कई पीढि़यों, संस्कृतियों, सभ्यताओं और परंपराओं को करीब से देखा है। माताएं, बेटियां और बहुएं मेरे तट पर पूजा अर्चना और परंपराओं को निभाने आती थीं और आज भी आती हैं। मेरी पूजा की परंपरा वर्षों पुरानी है, जो आज भी जारी है, भले ही मेरी देह से बदबू क्यों न उठती हो। मेरे इस मायके के गांव की बेटियां अपनी ससुराल में मेरी संस्कृति और परंपराओं के किस्से सुनाया करती थीं।

वर्षों पहले कभी मैं खुश होती थी, अपनी इस किस्मत पर। यह सोचकर मैं मन ही मन आनंदित हो उठती और खुद से कहती थी कि एक नदी के रूप में जीना वाकई महान काम है। उस समय बड़ा सुकून मिलता था, जब मेरे जल से सींचे गए खेत हरियाली से लहलहा हो उठते थे। नजदीकी जंगलों से आने वाले जानवरों के समूह मेरा जल पीकर अपनी प्यास बुझाते थे।

मेरे आसपास के गांव और गांव के बच्चे मेरे गीलेपन के एहसास से खुश होकर इतराते थे। पानी उलीचते थे एक दूसरे के गालों पर। उनके  मुस्कराते चेहरों को देखकर, हंसी ठहाकों का शोर सुनकर बच्चों और बड़ों से ज्यादा जो भी खुश होता था, उनमें मेरा नाम सबसे पहले था। क्योंकि मैं नदी हू्ं, मैं संस्कृति हूं, मैं परंपरा हूं और मुझको जीवनदायिनी भी कहा जाता है, भले ही मेरा जीवन खत्म करने के कितने ही प्रयास क्यों न हो रहे हों।

अब कष्ट होता है, मैं इन खेतों को भी खुद में मिला वह जहर बांटने का पाप कर रही हूं, जो मुझे सभ्य कहने वाले शहरियों से मिला है। मुझे नदी क्यों कहते हैं, मैं तो नाला बन रही। नाम नहीं बदला, लेकिन मेरा स्वरूप बदलकर जेंडर बदलने की कोशिश तो बहुत की जा रही है।

मेरे पास अब कोई बच्चा या बड़ा नहीं आता। मेरे पास अब किसी हंसी ठहाके की आवाज नहीं उठती। क्योंकि मेरे देह से दुर्गंंध उठती है, माताएं अपने बच्चों को मेरे जल में घुसने से यह कहकर मना करती होंगी कि सुसुवा के पानी में घुसोगे तो बीमार हो जाओगे। त्वचा खराब हो जाएगी और न जाने क्या कहती होंगी। आखिर वो एेसा कहें भी क्यों नहीं, क्योंकि हर मां को अपने बच्चों की चिंता होती है।

अरे एक बात और, शायद तुम भूल गए होंगे मेरे उस उपहार को, जो सर्दियों में लेकर आती थी।  न जाने कितने गरीबों का घर चलता था, इस सौगात से। पूरा गांव ही नहीं शहर और इससे भी बाहर दूर रिश्तेदारों तक मेरे इस तोहफे की खुश्बू के लोग दीवाने थे, जिसे कभी सुसुवा के साग के नाम से जानते थे। मेरी जैवविविधता पर संकट आया तो तट आंगन पर फैलने वाली खुश्बूदार हरियाली गायब हो गई या यूं कहें मेरा आवरण उतर गया।

जानते हो यह लजीज स्वाद वाला साग गांव से लेकर शहर तक बिकता था। इससे कई घरों के थोड़े बहुत खर्चे चल जाते थे। वैसे तो यह उपहार हर कोई खाने के लिए ले सकता था, वो भी बिना किसी रोक टोक के।

इन हरी पत्तियों की  सब्जी माताओं को आयरन देकर उनमें रक्त की कमी नहीं होने देती थीं, लेकिन तुमने तो मुझे कैंसर देकर कीमोथैरेपी के लायक बना दिया। मुझे वैॆंटीलेटर पर रख दिया।

जब से मेरे शरीर में जहर उड़ेलने का काम शुरू हुआ है, मैं कैंसर से जूझ रही हूं। यह एक तरह का नहीं बल्कि कई तरह का कैंसर है, जो मुझे तड़पा रहा है और मेरे छोटे से संसार को मुझसे अलग कर रहा है।  मुझसे जीवों ही नहीं बल्कि पादपों का भी मोह भंग हो रहा है। दिनरात तड़पने वाली मेरे सरीखी मृत होती काया के पास आखिर कोई क्यों टिकेगा। क्योंकि तुम्हारे लिए तो मैं पहले नदी और अब गांव के बाहर से होकर बहने वाला नाला हूं।

मैं एक नदी, एक परंपरा, एक संस्कृति, तुमसे आग्रह करती हूं कि भले ही तुम मेरी मृतशैया पर आकर मेरे उद्धार का राग अलाप लोे, मेरे नाम पर सियासत करो, मुझको संवारने के लिए नारे लगाओ, लोगों को इकट्ठा करो, मेरे दुख पर आंसू बहाओ, दुर्गंध दूर करने के लिए मुझ पर इत्र छिड़को, मेरे नाम का बजट बनाओ, मेरे पास आकर फोटो खिचवाओ, मीडिया को बुलाओ, मुझ पर किस्से कहानियां सुनाओ, मेरे नाम का गाना बनाओ और सुनाओ, मेरे रेत, बजरी और पत्थरों से आलीशान हवेलियां बनाओ, मेरे भविष्य का मॉडल बनाकर लोगों को रिझाओ, मेरी स्वच्छता, निर्मलता के लिए भाषण दो, प्रवचन दो या रैलियां निकालो, बाहर से किसी संस्था को बुलाओ या खुद करो, चाहे जो कुछ करो , लेकिन मुझे मेरे लिए नहीं बल्कि अपने लिए, अपने लोगों के लिए और आने वाली पीढ़ियों के लिए वेंटिलेटर की पीड़ा से बाहर निकाल लो ।

इस हाल में बहुत तड़पन हो रही है, क्या तुम मेरे लिए बिना स्वार्थ दिल से कुछ करोगे। क्या इस बार सब कुछ मेरी दशा सुधारने के लिए ही होगा। या फिर यूं ही, फोटो खिंचवाने और मीडिया के जरिये प्रचार के लिए। लेकिन मुझे विश्वास है कि तुम कुछ अच्छा ही करोगे, क्योंकि तुम जानते हो मैंने तुमसे पहली बार कुछ मांगा है और उपहार बहुत दिए हैं।

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Rajesh Pandey

राजेश पांडेय, देहरादून (उत्तराखंड) के डोईवाला नगर पालिका के निवासी है। पत्रकारिता में  26 वर्ष से अधिक का अनुभव हासिल है। लंबे समय तक हिन्दी समाचार पत्रों अमर उजाला, दैनिक जागरण व हिन्दुस्तान में नौकरी की, जिनमें रिपोर्टिंग और एडिटिंग की जिम्मेदारी संभाली। 2016 में हिन्दुस्तान से मुख्य उप संपादक के पद से त्यागपत्र देकर बच्चों के बीच कार्य शुरू किया।   बच्चों के लिए 60 से अधिक कहानियां एवं कविताएं लिखी हैं। दो किताबें जंगल में तक धिनाधिन और जिंदगी का तक धिनाधिन के लेखक हैं। इनके प्रकाशन के लिए सही मंच की तलाश जारी है। बच्चों को कहानियां सुनाने, उनसे बातें करने, कुछ उनको सुनने और कुछ अपनी सुनाना पसंद है। पहाड़ के गांवों की अनकही कहानियां लोगों तक पहुंचाना चाहते हैं।  अपने मित्र मोहित उनियाल के साथ, बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से डेढ़ घंटे के निशुल्क स्कूल का संचालन किया। इसमें स्कूल जाने और नहीं जाने वाले बच्चे पढ़ते थे, जो इन दिनों नहीं चल रहा है। उत्तराखंड के बच्चों, खासकर दूरदराज के इलाकों में रहने वाले बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से ई पत्रिका का प्रकाशन किया।  बाकी जिंदगी की जी खोलकर जीना चाहते हैं, ताकि बाद में ऐसा न लगे कि मैं तो जीया ही नहीं। शैक्षणिक योग्यता - बी.एससी (पीसीएम), पत्रकारिता स्नातक और एलएलबी, मुख्य कार्य- कन्टेंट राइटिंग, एडिटिंग और रिपोर्टिंग

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