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सफलता की कहानीः एक आइडिया, जिसने चार ग्रामीण महिलाओं को आत्मनिर्भर बना दिया

थानो गांव की महिलाओं को पहाड़ की मिठाई अरसा बनाने के उद्यम से मिली पहचान

राजेश पांडेय। न्यूज लाइव

“करीब दो साल पहले हम ग्रोथ सेंटर में एलईडी बनाने का काम कर रहे थे। वहीं पर हमारी मुलाकात हुई थी। मेरी आंखों में दिक्कत महसूस हो रही थी और वहां ज्यादा समय तक काम करना पड़ रहा था। मैंने और ज्ञान बाला रावत ने एलईडी बनाने का काम छोड़ दिया। हमारे सामने चुनौती थी कि क्या कुछ नया शुरू किया जाए। काफी विचार के बाद इस निर्णय पर पहुंचे कि अरसे ( पहाड़ में प्रसिद्ध मिठाई) बनाई जाए। पर, हम अरसे बनाना नहीं जानते थे। हमने अनीता से बात की, जिनका मायका उत्तरकाशी में है। हमें मालूम है कि उत्तरकाशी में अरसे खूब बनाए जाते हैं। अनीता भी एलईडी बनाने का काम छोड़ना चाह रही थीं। अब हम तीन लोग हो गए और थानो में ही रहने वाले विक्रम सिंह रावत जी से अरसे बनाना सीखना शुरू किया। तीन दिन में हम पहाड़ की प्रसिद्ध मिठाई बनाना सीख गए। विक्रम जी का धन्यवाद, जो उन्होंने हमारी मदद की। अरसे बनाते हुए जनवरी में एक वर्ष हो गया, हमारे पास खूब आर्डर आ रहे हैं।”

थानो गांव की रहने वाली किरण रावत हमें सफलता की कहानी सुना रही थीं। उन्होंने बताया, किस तरह चार महिलाओं ने डेढ़ साल के भीतर अपनी रणनीति को मेहनत, विश्वास और दृढ़ निश्चय से धरातल पर ही नहीं उतारा, बल्कि सफलता भी हासिल की। उनसे आसपास के लोग ही नहीं, बल्कि दूरदराज से भी लोग अरसे की मांग करते हैं। करीब 20 लोगों को आजीविका चलाने में प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से सहयोग भी कर रहे हैं।

थानो में देहरादून-एयरपोर्ट रोड स्थित झुरमुट वाटिका पर लगाए  उत्पादों के स्टॉल पर ज्ञान बाला रावत। फोटो- राजेश पांडेय

चार महिलाओं के इस उद्यम को कौन लीड कर रहा है, के सवाल पर ज्ञान बाला रावत का कहना है, यहां सभी की भूमिका समान है। हम सबने स्वयं के पास से कुछ पैसे इन्वेस्ट करके अरसा बनाने का सामान मंगाया। बहुत कम पैसों से शुरुआत की, जब अरसे बिकने शुरू हुए तो उद्यम को बढ़ा रहे हैं। हमने रोस्टर बनाए हैं, जिसमें बारी-बारी से कच्चा माल खरीदने, चावल, मसाला पिसाने की जिम्मेदारी तय है। मार्केटिंग सभी मिलकर करते हैं। हमारे दो स्टॉल हैं, जो थानो-देहरादून रोड पर झुरमुट वाटिका और जंगल व्यू रेस्त्रां पर हैं। एक स्टॉल की देखरेख किरण रावत और दूसरे की वो स्वयं करती हैं।

ज्ञानबाला के अनुसार, हमें अरसे बनाने में कोई दिक्कत नहीं आई। पर, इनको कहां और कैसे बेचा जाए, यह सवाल था। उन्होंने अपने पति के माध्यम से झुरमुट वाटिका में बात की। वहां अरसे रखने की अनुमति मिल गई। हमें पैकेजिंग का ज्ञान नहीं था। अरसों को पॉलिथीन में ही रखकर बेचने लगे। शुरुआत में कोई खास बिक्री नहीं हुई। इसकी वजह पैकेजिंग अच्छी नहीं होना था। झुरमुट वाटिका के डोभाल जी ने हमें काफी सहयोग किया। उन्होंने हमारे से सारे अरसे खरीद लिए, पर सलाह दी कि इनको डिब्बों में अच्छी तरह पैक किया जाए। अब हम अरसों को डिब्बों में पैक करके बेच रहे हैं, जिसका हमें लाभ मिल रहा है।

थानो में देहरादून-एयरपोर्ट रोड स्थित झुरमुट वाटिका पर लगाए  उत्पादों के स्टॉल पर लक्ष्मी। फोटो- राजेश पांडेय

फिर मेरे पति ने कुछ होटलों से संपर्क किया और हम वहां अरसा पहुंचाते हैं। स्टॉल पर आने वाले लोगों को हम उत्तराखंड की स्पेशल मिठाई के तौर पर अरसा प्रस्तुत करते हैं। हम इसकी खासियत बताते हैं। यह लाल गुड़ से बनी मिठाई है और इसको बनाने के लिए मोटे चावल का आटा इस्तेमाल किया जाता है। इसमें पाचन के लिए सौंफ मिलाते हैं। शुद्ध तेल में इसको तलते हैं। खाने में स्वादिष्ट अरसा, स्वास्थ्य के लिए नुकसानदायक नहीं है। उत्तराखंड में त्योहार में, शादी विवाह में अरसा प्रमुख रूप से परोसा जाता है। इसको बनाने की विधि तक लोगों से साझा करते हैं।

अनीता बहुगुणा, जिनके जिम्मे अरसा बनाने की रसोई है, बताती हैं- चावल पिसाई, गुड़, सौंफ, तेल, ईंधन आदि पर लगभग 500 रुपये की लागत से लगभग 1300 रुपये से ज्यादा के अरसे बना लेते हैं। कुल मिलाकर लगभग आठ-नौ सौ रुपये की बचत होती है। पर, इसमें चार लोग लगभग चार घंटे तक मेहनत करते हैं। एक महिला को एक बार में दो-तीन सौ रुपये की आय हो जाती है। हम उतने ही अरसे बनाते हैं, जितने की आवश्यकता होती है। हम ताजे अरसे बेचते हैं। इस तरह एक माह में चार से पांच बार अरसे बनाते हैं। कभी ज्यादा मात्रा होती है और कभी कम। कुल मिलाकर एक महिला को एक हजार से 1200 रुपये की बचत हो जाती है।

अरसा पहाड़ की प्रसिद्ध मिठाई है, जो त्योहारों एवं मांगलिक कार्यों में प्रमुखता से बनाई जाती है।

रविवार को जब हम इन महिलाओं के कार्यों को जानने के लिए पहुंचे, तब वो अरसे बना रही थीं। झुरमुट वाटिका के पीछे अनीता बहुगुणा के घर के आंगन में कटहल के छायादार पेड़ के नीचे टीन का चूल्हा लगाया था। किरण रावत चावल का आटा छान रही थीं। बताती हैं, यह आटा मोटे चावल का है, जो अरसे के लिए काफी अच्छा होता है। एक तो यह सस्ता होता है और इसमें नमी भी ज्यादा नहीं होती। पहले चावल को पानी में कुछ समय भिगाकर रखते हैं और फिर सुखाते हैं। इसके बाद पिसाई के लिए भेजते हैं। अरसे में लाल गुड़ इस्तेमाल करते हैं, जो आटे पर अच्छी पकड़ बनाता है। गुड़ को बहुत कम पानी के साथ बड़े बरतन में मिलाकर, चासनी तैयार की जा रही थी। फिर चासनी में चावल का आटा और सौंफ मिलाए गए। इस मिश्रण अच्छी तरह फेंटा गया। यह ठीक किसी गूंथे हुए आटे की तरह हो गया। फिर हथेलियों से थाप कर बनाए अरसों को धीमी आंच पर तेल में तला गया। हमें भी अरसे परोसे गए, जिनका स्वाद बहुत शानदार है। चावल के आटे से लेकर गुड़ और सौंफ… सबकुछ परफेक्ट मात्रा में मिलाए गए, तभी तो यहां के अरसे लोगों को पसंद आ रहे हैं।

थानो स्थित घर के आंगन में अरसे बनातीं अनीता बहुगुणा, लक्ष्मी, ज्ञानबाला रावत, किरण रावत व मोनिका पंवार। फोटो- राजेश पांडेय

“अरसे तो रोज नहीं बनाए जाते, बाकी समय क्या किया जाए। हम पूरे सप्ताह कार्य करना चाहते थे। घर के कामकाज निपटाने के बाद खाली समय में हम कुछ और करना चाहते थे। हम जहां रह रहे हैं, वो जगह देहरादून को एयरपोर्ट से जोड़ती है। यहां वर्षभर उत्तराखंड और यहां से बाहर के लोगों का आवागमन रहता है। हमने यहां एक स्टॉल लगाने का निर्णय लिया, जिस पर उत्तराखंड की दालें, अनाज, अचार, मसाले और शहद रखा गया। हम सभी सामान नहीं बना सकते। बिस्किट बनाने के लिए हमारे पास मशीनें नहीं है। आसपास के गांवों में कार्य करने वाले महिलाओं के उन समूहों से बात की गई, जो बिस्किट, अचार, चटनी, जूस बनाने का कार्य कर रहे हैं। धारकोट में महिलाओं का समूह है, जो मंडुए और किनोआ के बिस्किट बनाता है, हम उनसे बिस्किट खरीदते हैं। वो मुख्य मार्ग से काफी दूर रहते हैं और हमारे स्टॉल देहरादून से एयरपोर्ट के मुख्य रास्ते पर हैं, उनको बाजार मिल जाता है और हमें उत्पाद। ” ज्ञान बाला रावत बताती हैं।

किनोआ भी, गेहूं, चावल, साबुत दाना की तरह अनाज है। यह दक्षिण अमेरिका से भारत आया है। इसने भारतीय बाजार में खास जगह बनाई है। दक्षिण अमेरिका में इससे केक बनाया जाता है। यह ग्लूटेन फ्री है, इसमें नौ तरह के एमिनो एसिड होते हैं। इसे खाने से प्रोटीन भी ज्यादा मिलता है। इसमें पोटेशियम, मैग्नीशियम और कैल्शियम भी ज्यादा मात्रा में होती है।

उन्होंने बताया, हमें स्टॉल पर देशभर के लोगों से मिलने का अवसर मिलता है। हम उन्हें उत्तराखंड के उत्पादों और उनकी खासियत के बारे में बताते हैं।शनिवार और रविवार को उनके एक स्टॉल पर उत्पादों की बिक्री का आंकड़ा तीन हजार रुपये से भी ज्यादा पहुंच जाता है। कभी-कभी किसी दिन 500 रुपये का ही सामान बिकता है। हम उत्पादों की बिक्री का पैसा एकाउंट में जमा करते हैं और महीने में वेतन के रूप में निकालते हैं। औसतन प्रति माह प्रत्येक महिला को लगभग दस हजार रुपये की आय होती है। इसमें उनके अन्य कार्य, जैसे- कपड़ों की सिलाई, पशुपालन भी शामिल है।

किरण रावत बताती हैं, उनके पास गाय है। दूध और घी की बिक्री से आय होती है। देशी गाय के दूध का घी लगभग एक हजार से 12 सौ रुपये प्रति किलो के भाव बिकता है। घी को स्टॉल पर रखते हैं। उनका कहना है, आत्मनिर्भर होकर उनको अच्छा लगता है। परिवार की बहुत सारी आवश्यकताओं को पूरा कर पा रहे हैं। हम सभी को परिवार का बहुत सहयोग मिलता है।

थानो गांव निवासी मोनिका का मायका पास में ही नाहीकलां गांव में है। उनके गांव में जैविक उत्पाद, जैसे- हल्दी, अदरक की खेती होती है। वहां से पिसी हुई हल्दी, झंगोरा, कोदा (मंडुआ) लाकर स्टॉल पर बिक्री किया जाता है। वहां से शुद्ध शहद लाकर यहां बेचा जाता है। गांव में पलायन से खाली हुए घरों के कमरों में मधुमक्खियां छत्ता लगा देती हैं। यह शहद लगभग एक हजार से 1200 रुपये प्रति किलो के हिसाब से स्टॉल पर बिकता है। वहीं, स्थानीय बागों से मंगाया गया शहद 500 रुपये प्रति किलो बेचते हैं।

थानो में देहरादून-एयरपोर्ट रोड स्थित झुरमुट वाटिका पर लगाए  उत्पादों के स्टॉल पर  मोनिका पंवार। फोटो- राजेश पांडेय

मोनिका के अनुसार, नाहींकलां के पुराने भवनों में एक विशेष प्रावधान किया गया है। भवन की पिछली दीवार पर छोटे छोटे छिद्र बनाए गए हैं, जिनसे होकर मधुमक्खियां कमरे में आवागमन कर सकती हैं। बाहर से बने इन छिद्रों वाले स्थान पर ही कमरे के भीतर दीवार पर खाली स्थान (ठीक किसी आले की तरह) बनाया गया है। छिद्रों के जरिये आकर मधुमक्खियां यहां छत्ता बना लेती हैं। कमरे के भीतर खुले इस भाग को लकड़ी के फट्टे से ढंक दिया जाता था, ताकि मधुमक्खियां कमरे में न आ सकें।

ज्ञान बाला रावत कहती हैं, सरकार तक हमारी बात पहुंचती है तो हमारा यही कहना है कि महिलाओं को आत्मनिर्भर बनने के लिए प्रोत्साहन की आवश्यकता है। स्थानीय संसाधनों पर आधारित प्रशिक्षण दिया जाए। उनके द्वारा तैयार उत्पादों की मार्केटिंग की व्यवस्था हो।

आप हमसे किसी भी जानकारी के लिए संपर्क कर सकते हैं, राजेश पांडेय-9760097344

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Rajesh Pandey

राजेश पांडेय, देहरादून (उत्तराखंड) के डोईवाला नगर पालिका के निवासी है। पत्रकारिता में  26 वर्ष से अधिक का अनुभव हासिल है। लंबे समय तक हिन्दी समाचार पत्रों अमर उजाला, दैनिक जागरण व हिन्दुस्तान में नौकरी की, जिनमें रिपोर्टिंग और एडिटिंग की जिम्मेदारी संभाली। 2016 में हिन्दुस्तान से मुख्य उप संपादक के पद से त्यागपत्र देकर बच्चों के बीच कार्य शुरू किया।   बच्चों के लिए 60 से अधिक कहानियां एवं कविताएं लिखी हैं। दो किताबें जंगल में तक धिनाधिन और जिंदगी का तक धिनाधिन के लेखक हैं। इनके प्रकाशन के लिए सही मंच की तलाश जारी है। बच्चों को कहानियां सुनाने, उनसे बातें करने, कुछ उनको सुनने और कुछ अपनी सुनाना पसंद है। पहाड़ के गांवों की अनकही कहानियां लोगों तक पहुंचाना चाहते हैं।  अपने मित्र मोहित उनियाल के साथ, बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से डेढ़ घंटे के निशुल्क स्कूल का संचालन किया। इसमें स्कूल जाने और नहीं जाने वाले बच्चे पढ़ते थे, जो इन दिनों नहीं चल रहा है। उत्तराखंड के बच्चों, खासकर दूरदराज के इलाकों में रहने वाले बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से ई पत्रिका का प्रकाशन किया।  बाकी जिंदगी की जी खोलकर जीना चाहते हैं, ताकि बाद में ऐसा न लगे कि मैं तो जीया ही नहीं। शैक्षणिक योग्यता - बी.एससी (पीसीएम), पत्रकारिता स्नातक और एलएलबी, मुख्य कार्य- कन्टेंट राइटिंग, एडिटिंग और रिपोर्टिंग

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