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कहां से आई चाय और क्या है इसकी कहानी

आपके घर में जब भी कोई मेहमान आते हैं तो उनको चाय पिलाए बिना नहीं भेजा जाता। चाय पिलाने का मतलब यह है कि आप उनको सम्मान दे रहे हैं। पर, यह चाय आई कहां से और सबसे पहले किसने चाय बनाई थी। कुछ लोग तो दिनभर में कई बार चाय की चुस्कियां ले लेते हैं। चाय भी तो बहुत तरह की हैं। कोई दूध मिलाकर चाय पीता है तो किसी को काली चाय यानी बिना दूध वाली चाय पसंद है। कोई लेमन टी का तो ग्रीन टी का दीवाना है। बताया जाता है कि भारत में ही चाय की 50 से ज्यादा किस्म हैं।
आप पढ़ाई कर रहे हैं या दफ्तर का कोई काम निपटा रहे हैं या थकान महसूस कर रहे हैं, तो हलक से एक घूंट चाय उतरते ही राहत महसूस करते हैं। पर, एक बात और बता दूं कि कुछ लोग चाय नहीं पीते, वो दूध पीते हैं या फिर कोल्ड ड्रिंक।
हमारे देश में चाय की दीवानों की संख्या बहुत है। मुझे तो कभी भी चाय ऑफर कर दो, मैं मना नहीं करूंगा। कोई मुझे चाय के लिए पूछता है तो मैं तुरंत बोलता हूं… ठीक है पर थोड़ी सी चलेगी। यह तो सभी को पता है कि कोई थोड़ी सी चाय तो पिलाएगा नहीं, कप भरकर ही चाय मिलेगी। 
चाय का इतिहास जानने के साथ, हम जानेंगे इसके बारे में कुछ मजेदार किस्से।
भारत में चाय पहले से ही होती थी। वैसे तो भारत में चाय का इतिहास दो हजार साल से भी अधिक पुराना है। तब बौद्ध भिक्षु तप करने के लिए चाय की पत्तियों को चबाते थे। 
1815 कुछ अंग्रेज यात्रियों का ध्यान असम में उगने वाली चाय की झाड़ियों पर गया, जिसका पेय बनाकर स्थानीय लोग पीते थे। गवर्नर जनरल लॉर्ड बैंटिक ने 1834 में चाय के उत्पादन की संभावना तलाशने के लिए एक समिति बनाई। इसके बाद 1835 में असम में चाय बाग़ान लगाए गए।
इंग्लैंड को चाय का निर्यात असम की चाय कम्पनी ने किया।  एक अनुमान के अनुसार, भारत में उत्पादित 70 फीसदी से अधिक चाय देश में ही पा जाती है। भारत में दार्जिलिंग दुनिया में सबसे बेहतरीन चाय उत्पादन के लिए जाना जाता है। यहां की चाय में अनोखा स्वाद व सुगंध होती है।
करीब पांच हजार साल पहले चीन में एक बादशाह थे, जिनका नाम शेन नुग्न था। वो प्रतिदिन सुबह टहलने के बाद खाली पेट गर्म पानी पीते थे। वो अपने महल के बागीचे में बैठकर गरम पानी पीते थे।
एक दिन टहलकर आए और बागीचे में बैठे थे। उनके रसोइये ने किसी बर्तन में गरम पानी रख दिया। बादशाह  किसी से बात कर रहे थे कि अचानक कुछ पत्ते उनके लिए रखे पानी में गिर गए। पानी का रंग बदलने लगा और उसमें से खुश्बू आने लगी।
बादशाह ने यह देखा और पानी को पीने के लिए जैसे ही हाथ बढ़ाया, उनके कर्मचारियों ने मना करते हुए कहा कि, हो सकता है यह पत्तियां जहरीली हों। पर, बादशाह ने किसी की बात नहीं सुनी और पानी को पी लिया। पत्तियां मिला हुआ गरम पानी पीकर बादशाह को कुछ ताजगी महसूस हुई। 

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उन्होंने अपने कर्मचारियों से इन पत्तियों की तलाश कराई और प्रतिदिन इन्हीं पत्तियों का उबला हुआ पानी पीने लगे। तब से सम्राट ही नहीं उनके दरबारी भी इन पत्तियों वाला पानी पीने लगे। 
छठी शताब्दी में चाय चीन से जापान पहुंची। धीरे धीरे इसकी खबर यूरोप तक पहुंची। चीन से चाय का व्यापार करने का पहला अधिकार पुर्तगाल को मिला। इंग्लैंड में चाय के नमूने 1652 और 1654 में पहुंचे।

ब्रिटिश शासकों ने श्रीलंका (सीलोन) और ताइवान में चाय की खेती शुरू की।
चाय के पौधे की आयु लगभग 100 वर्ष तक होती है। अगर चाय के पौधे को काटा न जाए तो यह नीम के पेड़ की तरह हो सकता है। इसकी जड़े इतनी मज़बूत होती हैं कि पौधे को उखाड़ना आसान नहीं होता।
बागानों में खेती और पत्तियों को तोड़ने से लेकर हम तक पहुंचने से पहले चाय को अनेक प्रक्रियाओं से गुजरना पड़ता है। विश्वभर में चाय की विभिन्न किस्में बनाई जाती हैं। चाय की पत्तियों को चाय के अन्य उत्पाद तैयार करने के लिए भी प्रयोग किया जा सकता है।
चाय के बारे में एक और जानकारी है, जिसके अनुसार – अंग्रेज चाय पीना तो पसंद करते थे, पर वो नहीं चाहते थे कि कोई भी चाय की पत्तियों को हाथ लगाए। उन्होंने धातु की डिब्बी में चाय की पत्तियों को सहेजना शुरू किया। इस डिब्बी में छेद थे। इसे जैसे ही गर्म पानी के कप में डाला जाता था, पत्तियों का स्वाद पानी में घुल जाता था। लेकिन समस्या तब होती थी, जब इस डिब्बी को कप से बाहर निकालना होता था।

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इसके बाद चाय की पत्तियों को कागज की छोटी छोटी थैलियों में रखकर उनको गोंद से बंद किया जाने लगा। कप से बाहर निकालने के लिए इन थैलियों पर धागा लगाया गया। अब यह समस्या हो गई कि गर्म पानी के संपर्क में आते ही गोंद पिघलने लगी और इससे चाय का स्वाद खराब हो जाता था।
1901 में रोबेर्टा सी लॉओन और मैरी मार्कलेन ने कॉटन के कपड़े की छोटी-छोटी थैलियां बनाईं और इनमें चाय की पत्तियों से बना पाउडर भरकर सिल दिया गया। इस तरह उन्होंने पहली बार टी बैग का निर्माण किया और टी लीफ होल्डर के नाम से पेटेंट करवाया। यह तरीका सबसे आसान था, लेकिन पर्याप्त विज्ञापन नहीं होने के कारण इसका प्रचार नहीं हो पाया।
एक और किस्सा यह है कि – 1908 में चाय पत्ती के कारोबारी थॉमस सॉल्विन काफी मशहूर हुए। वे चाय की पत्तियों के सैंपल पहले लोहे के डिब्बे में भेजा करते थे, पर उस समय चाय कम थी और काफी मशहूर थी। बाद में चाय की पत्तियों को रेशम के कपड़े से बने बैग में रखकर ग्राहकों के पास भेजना शुरू किया।
एक ग्राहक ने गलती से पूरा सिल्क बैग ही गरम पानी में डाल दिया। इससे सॉल्विन को अपनी गलती का फायदा मिल गया। उन्होंने टी को बैग्स में डालकर बेचना शुरू कर दिया। इसे सीधे गर्म पानी में डालकर इस्तेमाल किया जा सकता था। इसी तरह चाय की थैलियों की मांग बढ़ने लगी। चाय की थैलियां काफी मंहगे दामों पर बिका करती थीं और इसने एक अलग कारोबार का रूप ले लिया।

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आज पूरी दुनिया भारतीय चाय की दीवानी है। अकेले भारत में ही चाय की 50 से ज्यादा किस्में और दर्जनों रेसिपी हैं। खास बात यह है कि भारतीय चाय से बने पाउडर का इस्तेमाल दवाओं में भी होने लगा है।
अंग्रेजों के भारत से जाने के बाद सरकार ने चाय के कारोबार को जारी रखा और 1953 में पहली बार टी बोर्ड का गठन किया गया। टी बोर्ड के जरिए भारतीय चाय को विदेशों तक पहुंचाना आसान हो गया। इसके साथ ही रोजगार के नए अवसर खुल गए।
चाय के बारे में कुछ जानकारियां-
खाली पेट चाय पीने से आपकी भूख प्रभावित होती है या फिर भूख लगना ही बंद हो जाती है, ऐसा होेने पर आप जरूरी पोषण से वंचित रह जाते हैं।
अमेरिका में 80 फीसदी चाय की खपत आइस टी की फॉर्म में होती है।
तुर्की का हर व्यक्ति प्रतिदिन औसतन दस कप चाय पी लेता है।
… तो अगली बार चाय की चुस्की लेने के साथ इससे जुड़े किस्सों को भी याद करें।

 

Rajesh Pandey

राजेश पांडेय, देहरादून (उत्तराखंड) के डोईवाला नगर पालिका के निवासी है। पत्रकारिता में  26 वर्ष से अधिक का अनुभव हासिल है। लंबे समय तक हिन्दी समाचार पत्रों अमर उजाला, दैनिक जागरण व हिन्दुस्तान में नौकरी की, जिनमें रिपोर्टिंग और एडिटिंग की जिम्मेदारी संभाली। 2016 में हिन्दुस्तान से मुख्य उप संपादक के पद से त्यागपत्र देकर बच्चों के बीच कार्य शुरू किया।   बच्चों के लिए 60 से अधिक कहानियां एवं कविताएं लिखी हैं। दो किताबें जंगल में तक धिनाधिन और जिंदगी का तक धिनाधिन के लेखक हैं। इनके प्रकाशन के लिए सही मंच की तलाश जारी है। बच्चों को कहानियां सुनाने, उनसे बातें करने, कुछ उनको सुनने और कुछ अपनी सुनाना पसंद है। पहाड़ के गांवों की अनकही कहानियां लोगों तक पहुंचाना चाहते हैं।  अपने मित्र मोहित उनियाल के साथ, बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से डेढ़ घंटे के निशुल्क स्कूल का संचालन किया। इसमें स्कूल जाने और नहीं जाने वाले बच्चे पढ़ते थे, जो इन दिनों नहीं चल रहा है। उत्तराखंड के बच्चों, खासकर दूरदराज के इलाकों में रहने वाले बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से ई पत्रिका का प्रकाशन किया।  बाकी जिंदगी की जी खोलकर जीना चाहते हैं, ताकि बाद में ऐसा न लगे कि मैं तो जीया ही नहीं। शैक्षणिक योग्यता - बी.एससी (पीसीएम), पत्रकारिता स्नातक और एलएलबी, मुख्य कार्य- कन्टेंट राइटिंग, एडिटिंग और रिपोर्टिंग

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