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वरिष्ठ साहित्यकार ने बताया, “जब दस दिन की थी, मुझे बंदर बिछौने सहित उठा ले गया”

70 वर्षीय वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. मंजू गुप्ता का बचपन ऋषिकेश में बीता

राजेश पांडेय। न्यूज लाइव ब्लॉग

“मेरी मां बताती हैं, उस समय तुम दस दिन की थीं। मां ने मुझे कुछ देर के लिए आंगन में पड़ी खाट पर बिछौने में लेटा दिया था। मां कुछ देर के लिए कमरे में चली गईं और फिर उन्होंने पड़ोसन की आवाज सुनी, मास्टरनी जी तुम्हारी बच्ची को बंदर उठा ले गया। मां घबराते हुए बाहर आईं, उन्होंने देखा बंदर मुझे बिछौने सहित उठाकर छत पर पहुंच गया है।”

” मेरी मां बहुत साहसी और समझदार थीं, उन्होंने शोर नहीं मचाया। अगर मां शोर मचातीं या बंदर के पीछे लाठी लेकर दौड़तीं तो वो मुझे नीचे फेंक देता। मां चुपचाप छत पर पहुंचीं, उस समय बंदर बड़े स्नेह के साथ, बिछौने में लिपटी दस दिन की बच्ची को लेकर छत की मुंडेर पर बैठा था। छत की मुंडेर के दूसरी तरफ कुछ नहीं था। अगर वो मुझे वहां से नीचे फेंकता तो शायद मैं आपसे बात नहीं कर रही होती। मां ने चुपचाप जाकर छत पर रोटियां बिखेर दीं, ताकि बंदर इन रोटियों को खाने के लिए मुझे लेकर छत पर आ जाए।”

“मां ने जैसा सोचा था, वो ही हुआ। बंदर मुझे लेकर मुंडेर से नीचे उतरा। उसने मुझे छत पर रख दिया और फिर रोटियां खाने लगा। मां ने तुरंत मुझे उठा लिया। मैं सही सलामत थी, यह देखकर मां ने राहत की सांस ली। मैं तो इस वाकये को अपने लिए हनुमान जी का आशीर्वाद मानती हूं। ”

ऋषिकेश अपने मायके आईं वरिष्ठ साहित्यकार, लेखिका और शिक्षिका डॉ. मंजू गुप्ता ने वरिष्ठ शिक्षक एवं साहित्यकार डॉ. सुनील दत्त थपलियाल से डुगडुगी के लिए एक साक्षात्कार के दौरान यह किस्सा साझा किया।

बताती हैं, “यह किस्सा एक लघु कथा में प्रकाशित हुआ था, तब उनको मेरठ से एक युवती का फोन आया। लेख के साथ उनका फोन नंबर और ईमेल आईडी का जिक्र जरूर होता है, इसलिए उस युवती ने फोन किया।

युवती का सवाल था, “वो कौन सी मां थीं, जिन्होंने उस जमाने में दस दिन की बेटी को बचाने के लिए इतना प्रयास किया। जबकि पहले तो बेटियों की परवाह ही नहीं होती थी। अधिकतर बेटियों को तो भ्रूण अवस्था में ही मार दिया जाता था।

” मैंने उनसे कहा, “सब ऐसे नहीं है। यह सत्यकथा है, जिस बेटी की बात कथा में हुई है, वो मैं ही हूं। वो मेरी मां थीं, जिन्होंने बेटियों और बेटों में कोई भेद नहीं समझा। बेटियों और बेटों में समानता का भाव रखा।”

युवती ने पूछा, “माता-पिता को बेटियों की परवरिश और फिर उनकी शादी में दहेज देने का भय सताता है। दहेज के लिए बेटियों पर अत्याचार होते हैं। इससे बचने का क्या उपाय है।”

मेरा जवाब था, “बेटियों को खूब पढ़ाओ, वो जहां तक पढ़ना चाहें, उनकी शिक्षा का प्रबंध करो। बेटियों को अपने पैरों पर खड़े होने यानी सामाजिक एवं आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होने में मदद करो। फिर, दहेज देने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी।

वो मेरे जवाब से सहमत थी।” एक दिन फिर उस युवती का फोन आया कि “मैडम मैं टीचर बन गई हूं।” इस पर मैं बहुत खुश हुई।

वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. मंजू गुप्ता।

वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. मंजू गुप्ता मुंबई में रहती हैं और ऋषिकेश के एक प्रतिष्ठित परिवार से ताल्लुक रखती हैं। श्री भरत मंदिर इंटर कॉलेज की छात्रा रहीं डॉ. मंजू गुप्ता का बचपन ऋषिकेश में बीता है।

उनके पिता शिक्षक प्रेमपाल वार्ष्णेय और माता शांति देवी 1945 में मां गंगा की धरा ऋषिकेश आ गए थे। उन्होंने साथ मिलकर ऋषिकेश में शिक्षा के क्षेत्र में क्रांति की। श्रीभरत मंदिर कॉलेज के प्रधानाचार्य पद पर रहने के दौरान गरीब परिवारों के बच्चों को निशुल्क शिक्षा दिलाने का कार्य किया। वो हर व्यक्ति को शिक्षित देखना चाहते थे। समाज में फैली कुरीतियों को दूर करने के लिए हमेशा प्रयासरत रहे। उस समय ऋषिकेश दलदल और मच्छरों से भरा इलाका था।

डॉ. मंजू बताती हैं, “श्रीभरत मंदिर इंटर कॉलेज में पढ़ाई की। उन दिनों स्कूल में टाट पट्टी पर बैठकर पढ़ाई करते थे। स्याही स्कूल से फ्री मिलती थी। हमारी दवातों में शिक्षक स्याही भरते थे। कलम से लिखते थे। आज की तरह पहले स्कूलों में ऐसा कुछ नहीं था कि बच्चे इंटरवल में बाहर नहीं निकलेंगे। हम इंटरवल में घर चले आते थे। जिस सहेली का घर स्कूल के पास होता था, उसके घर जाकर खाना खा लेते थे। सभी सहेलियां साथ बैठकर गरमा गरम दाल चावल खाती थीं, वो जमाना ही कुछ और था। अब हम भले ही विदेश घूम आएं, पर बचपन में ऋषिकेश की यादें नहीं भूल सकते।”

डॉ. सुनील दत्त थपलियाल ने आवाज साहित्यिक संस्था की ओर से डॉ. मंजू गुप्ता को स्मृति चिह्न प्रदान करके सम्मानित किया।

डॉ. मंजू गुप्ता 1962 का किस्सा साझा करती हैं, “मैं कक्षा पांच में पढ़ती थी। राष्ट्रपति जी का ऋषिकेश आगमन था। उस समय कुछ विद्यालय ही होते थे। हमें राष्ट्रपति जी के सम्मान में एक गीत प्रस्तुत करना था। पिता प्रेम पाल वार्ष्णेय ने हमारे लिए गीत तैयार किया, जो हमने राष्ट्रपति जी के सम्मान में गाया। वो ऐसा समय था, जब सुरक्षा के इतने भारी इंतजाम नहीं होते थे। हर आम व्यक्ति राष्ट्रपति के संबोधन को सुनने जाता था।”

Rajesh Pandey

राजेश पांडेय, देहरादून (उत्तराखंड) के डोईवाला नगर पालिका के निवासी है। पत्रकारिता में  26 वर्ष से अधिक का अनुभव हासिल है। लंबे समय तक हिन्दी समाचार पत्रों अमर उजाला, दैनिक जागरण व हिन्दुस्तान में नौकरी की, जिनमें रिपोर्टिंग और एडिटिंग की जिम्मेदारी संभाली। 2016 में हिन्दुस्तान से मुख्य उप संपादक के पद से त्यागपत्र देकर बच्चों के बीच कार्य शुरू किया।   बच्चों के लिए 60 से अधिक कहानियां एवं कविताएं लिखी हैं। दो किताबें जंगल में तक धिनाधिन और जिंदगी का तक धिनाधिन के लेखक हैं। इनके प्रकाशन के लिए सही मंच की तलाश जारी है। बच्चों को कहानियां सुनाने, उनसे बातें करने, कुछ उनको सुनने और कुछ अपनी सुनाना पसंद है। पहाड़ के गांवों की अनकही कहानियां लोगों तक पहुंचाना चाहते हैं।  अपने मित्र मोहित उनियाल के साथ, बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से डेढ़ घंटे के निशुल्क स्कूल का संचालन किया। इसमें स्कूल जाने और नहीं जाने वाले बच्चे पढ़ते थे, जो इन दिनों नहीं चल रहा है। उत्तराखंड के बच्चों, खासकर दूरदराज के इलाकों में रहने वाले बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से ई पत्रिका का प्रकाशन किया।  बाकी जिंदगी की जी खोलकर जीना चाहते हैं, ताकि बाद में ऐसा न लगे कि मैं तो जीया ही नहीं। शैक्षणिक योग्यता - बी.एससी (पीसीएम), पत्रकारिता स्नातक और एलएलबी, मुख्य कार्य- कन्टेंट राइटिंग, एडिटिंग और रिपोर्टिंग

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