भारत में प्राचीन दक्षिण भारतीय ग्रंथों में केले के पत्तों पर भोजन करने का क्र अक्सर साहित्य में मिलता ही है। वैसे तो 2000 से ज्यादा किस्म की वनस्पत्तियों की पत्तियां पत्तल बनाने के लिए प्रयुक्त होती है, परन्तु वर्तमान में प्लास्टिक के प्रचलन व सिकुड़ती जैव-विविधता से अब पत्तियों से निर्मित पत्तल व दोनें मुश्किल ही दिखाई पडते है। इनमें से एक उत्तराखण्ड के पहाडी क्षेत्रों में पाये जाने वाला बहुमूल्य पौधा मालू भी है।मालू उत्तराखण्ड में निम्न ऊंचाई से मध्य ऊंचाई तक के जंगलों में पाया जाता है। यह वैज्ञानिक रूप से फैबेसी कुल का पौधा है। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में मालू का उत्तराखण्ड में कोई उपयोग नहीं दिखता परन्तु लगभग एक पीढी पूर्व उत्तराखण्ड के पहाडी क्षेत्रों में सामुदायिक संस्थानों में भोजन परोसने के लिए मालू के पत्तों का उपयोग बहुतायत किया जाता था। वर्तमान में मालू के पत्तों की जगह प्लास्टिक व थर्माकोल से निर्मित कृत्रिम थालियों ने ले ली है, जो न केवल मानव स्वास्थ्य परन्तु वातावरण पर भी दुष्प्रभाव डालते है। आज भी गांवों में कई सामुदायिक संस्कारों के पश्चात प्लास्टिक व थर्माकोल की थालियों के ढेर देखे जा सकते है।
मालू की बेल
हमारे पूर्वजों द्वारा कितनी बेहतर इको फ्रेंडली परंपरा बना रखी थी जो कि उपलब्ध संसाधन पर आधारित थी तथा मानव स्वास्थ्य व पर्यावरण के लिए भी लाभदायक थी। ऐसे ही दक्षिण भारत में केले के पत्तल तथा अन्य कई जगहों पर पलाश व अन्य जैव संसाधनों का प्रयोग किया जाता था जो कि मिट्टी में दबाने के पश्चात खाद के लिए भी उपयुक्त होता था तथा इसी विकल्प के तौर पर प्लास्टिक निरंतर प्रदूषित करता है।
अभी वर्तमान में 16 अप्रैल 2017 दैनिक जागरण में प्रकाशित एक लेख के अनुसार मालूम हुआ कि जो इको फ्रेंडली पत्तल व दोनें की व्यवस्था भारत व उत्तराखण्ड में पूर्वजों द्वारा पारम्परिक रूप से प्रचलित था वह लगभग अब खत्म सी हो गयी है जबकि यही परंपरा पश्चिमी देशों में इको फ्रेंडली तथा पर्यावरण के प्रति जागरूक होने के कारण स्टार्ट-अप उद्यम का रूप ले रही है। जर्मनी में तो इन पत्तलों को नेचुरल लीफ प्लेट्स के नाम से युवाओं में बेहद रूचि आ रही है तथा एक नये व्यवसाय का रूप ले चुका है। प्रदूषण के प्रति जागरूक लोग इसे आधुनिक फैशन शैली में भी रेस्तरों में उपयोग कर रहे है। एक अन्तर्राष्ट्रीय लीफ रिपब्लिक कंपनी ने तो इसका प्रचार तथा व्यवसायिक उत्पादन शुरू कर दिया है तथा यूरोप के कई बडे होटलों में इसे बडी संख्या में आयात किया जा रहा है।
चिकित्सा विज्ञान के अनुसार भी प्लास्टिक व थर्माकोल में भोजन करने से उसमें उपस्थित रासायनिक अवयव खाने में मिल कर पाचन क्रिया पर विपरीत प्रभाव डालते है तथा त्वचा व अन्य कई बीमारियों का कारक भी बनते है। आर्युवेद के अनुसार जिन प्राकृतिक पत्तलों में भोजन परोसा जाता है वह इको फ्रेंडली होने के साथ-साथ उनमें औषधीय गुण भी पाये जाते है जो मानव स्वास्थ्य के लिए लाभदायक होते है। माना जाता है कि पलाश के पत्तल में भोजन करना सोने के बर्तन में तथा केले के पत्ते में भोजन करना चांदी के बर्तन में भोजन करने के समान होता है।
उत्तराखण्ड के पर्वतीय क्षेत्रों में मालू के पत्ते में भोजन करने के साथ-साथ उसके फल का कोमल बीज को भी आग में पका कर बडे चाव से खाया जाता था। यदि औषधीय दृष्टि से मालू की बात की जाय तो इसमें एण्टी बैक्टीरियल गुण भी पाये जाते है तथा प्राचीन समय में पारम्परिक रूप से इससे बुखार, अतिसार तथा टॉनिक के रूप में प्रयोग किया जाता था इसमें कई महत्वपूर्ण रासायनिक अवयव जैसे Flavonoids, Betulinic acid, Triterpene, Gallic acid पाये जाते है जहॉ तक इसकी पोष्टिक गुणवत्ता की बात की जाय तो इसमें लिपिड- 23.26 प्रोटीन- 24.59 तथा फाइबर-6.21 प्रतिशत तक पाये जाते है।
यदि उत्तराखण्ड में प्राकृतिक रूप से जंगलों में पाये जाने वाले मालू का उपयोग केवल पत्तल व दोनें के रूप में भी किया जाय तो यह न केवल मानव स्वास्थ्य, पर्यावरण के लिए लाभदायक होगा अपितु यह एक व्यवसायिक रूप से भी लाभदायक सिद्ध हो सकता है।