इन परिवारों को बहुत डराती हैं बारिश वाली रातें
राजेश पांडेय
बरसात के साथ हमारी आफत शुरू हो जाती है। हमें नहीं पता, कब सुसुवा और बरसाती खाले का पानी बस्ती में घुस जाए। आज (28 जुलाई,2021) की सुबह, जैसे ही नदी हमारे खेतों को बर्बाद करते हुए बस्ती तक पहुंची, हम बच्चों को लेकर रेलवे ट्रैक की ओर दौड़ लिए। रेलवे ट्रैक थोड़ा ऊंचाई पर है और हम अक्सर बारिश में भीगते हुए बच्चों और महिलाओं के साथ वहीं पहुंचते हैं।
बरसात ही नहीं, यहां तो हर मौसम कष्ट देने वाला है। वन विभाग ने हमें बसाया जरूर,पर हमारी किसी भी सुविधा का ख्याल नहीं रखा। बरसात की रातें अंधेरे में काटते हैं। हम लोगों ने काफी समय मुश्किलों में गुजार दिया, पर बच्चों का क्या होगा…।
सुसुवा से बर्बाद हुए खेतों को दिखाते हुए करीब 60 साल के गुलाम रसूल अपनी चिंता, कुछ इस तरह व्यक्त करते हैं।
गुलाम रसूल, डोईवाला से करीब आठ किमी. दूर खैरी वनवाह गुर्जर बस्ती में रहते हैं। डोईवाला उत्तराखंड के देहरादून जिले का ब्लाक है।
वनवाह गुर्जर बस्ती, देहरादून से हरिद्वार जाते समय ट्रेन से दिखती है। बस्ती और रेलवे ट्रैक के बीच में एक नाला है, जो घरों से लगभग सटकर बहता है। इसमें खैरी गांव के खेतों और जंगल से आया पानी बहता है।
वैसे तो, यह नाला उनके लिए बहुत उपयोगी है, पर बरसात में बड़ा संकट बन जाता है। इस नाले को पार करने के लिए लकड़ियों के पुल बनाए हैं।
इसके साथ ही, बस्ती के पिछले हिस्से में कुछ खेत पार करके सुसुवा नदी है, जो बरसात में विकराल हो जाती है।
डुगडुगी की टीम को सुबह करीब 9 बजे शबीर अहमद ने फोन करके बताया कि हमारी बस्ती में पानी घुस गया। सुसुवा ने हमारे खेतों को बर्बाद कर दिया।
डोईवाला से करीब आठ किमी. दूर खैरी वनवाह गुर्जर बस्ती जाने वाले रास्ते की हालत ऐसी है। फोटो- डुगडुगी
बस्ती तक जाने के लिए दलदल को पार करो
करीब एक घंटा में हम खैरी गांव के रास्ते पर थे, तब तक पानी का स्तर काफी कम हो चुका था। हालांकि, बारिश हो रही थी। खैरी वनवाह क्षेत्र तक जाने वाला कच्चा रास्ता पानी और कीचड़ से भरा था।
इसी बस्ती में रहने वाले अब्दुल गनी लोडर चलाते हैं, उन्होंने बताया कि रात डेढ़ बजे तक उनका लोडर बस्ती वाले रास्ते में फंसा रहा। उन्होंने किसी तरह ट्रैक्टर मंगाकर लोडर को बाहर निकाला।
अगर, किसी की तबीयत खराब हो जाए तो ऐसी हालत में एंबुलेंस कैसे पहुंचेगी।
अन्य दिनों में व्यवसायी हमारे पास दूध लेने घरों तक आ जाते हैं। बरसात में हमें उन तक दूध पहुंचाना पड़ता है।
गुलाम रसूल ने बताया कि कुछ साल पहले बरसात में एक बालिका की तबीयत खराब होने पर उसको कुर्सी पर बैठाकर दलदल पार कराया गया। बरसात में बच्चों को स्कूल नहीं भेजते। इन दिनों तो कोरोना की वजह से लॉकडाउन है, पर हमारे बच्चों के लिए तो हर बरसात में लॉकडाउन होता है।
घर में घुसती है नदी, रेलवे ट्रैक की ओर दौड़ते हैं परिवार
लियाकत अली, के मिट्टी व फूस से बने घर के आंगन में पॉलीथिन बिखरी थी। यहां खेतों से पानी आ रहा था। जो इस बात का सुबूत है कि नदी पूरे वेग से यहां तक पहुंची थी।
सुसुवा नदी उनके घर से करीब सौ-डेढ़ सौ मीटर दूर यानी कुछ खेत पार बह रही है। मक्की और उड़द के खेतों को बर्बाद करता हुआ पानी उनके घर तक पहुंचा था। लियाकत बताते हैं कि सुबह तो कमर तक पानी था। बच्चे डर गए थे।
सभी लोग बच्चों को लेकर रेलवे ट्रैक की दौड़ लिए थे। लियाकत के अनुसार, उनके डंगर पानी में बह गए। अब पानी कम हुआ है तो डंगरों को तलाशेंगे।
बाढ़ से बर्बाद खेतों को देखकर निराश हैं गुर्जर किसान
बुजुर्ग मोहम्मद शफी, सुसुवा नदी से सटे खेतों को देखकर निराश थे। खेतों में इतना दलदल जमा हो गया कि यहां चलने पर पैर धंस रहे थे। मक्की की फसल लेट गई थी। तेज पानी में पौधे उखड़ गए थे। नदी में देहरादून शहर से बहकर आई पॉलिथीन कचरे के ढेर जमा हो गए थे।
मोहम्मद शफी बताते हैं अब नदी काफी कम (प्रवाह कम) हो गई है। सुबह तो, काफी पानी था। खेतों को काफी नुकसान पहुंचा है। पर, हम क्या करें, यह तो हर साल होता है।
मोहम्मद सुल्तान का कहना है कि एक बार तो सुसुवा की बाढ़ में हमारे घर बह गए थे। खेतों को तो हर बरसात बर्बाद होना है। अंदेशा जताते हैं कि भविष्य में न जाने क्या होगा, कहीं यह सारा न बह जाए।
करीब 25 से 30 बीघा खेती को नुकसान
शबीर अहमद अनुमान लगाते हैं कि करीब 25 से 30 बीघा खेती को नुकसान पहुंचा है। उन्होंने उड़द लगाई है, जिसमें पानी घुस गया। बताते हैं कि उड़द साठ दिन में पकने वाली फसल है, पर बाढ़ और कीड़े ने इसको बहुत नुकसान पहुंचाया है।
हम न तो इसको बाढ़ से बचा पाए और न ही कीड़े से। अगर उड़द बिना किसी नुकसान के पक जाए तो एक बीघा में एक कुंतल तक हासिल कर लो। दुख की बात यह है कि इसका सीजन भी बाढ़ के सीजन से मेल खाता है।
मोहम्मद ईशा के खेत तो नदी से सटकर हैं। उनका कहना है कि हम तो हर बरसात यही दिक्कत झेलते हैं। हमारी सुनता कौन है। चुनाव में ही याद आते हैं, इससे पहले और बाद में कोई नहीं आता।
दो माह की बेटी को लेकर बारिश में खड़ा रहा…
मोहम्मद ईशा कहते हैं कि वो तारीख मुझे जीवनभर याद रहेगी। उन्होंने उस समय के नुकसान का एक फोटो संभालकर रखा है। हमें उस फोटो को कैमरे से क्लिक करने को कहा।
बताते हैं कि 22 जुलाई, 1993 की शाम करीब आठ बजे सुसुवा का पानी अचानक बढ़ गया। भीषण बाढ़ में कच्चे घर ढह गए थे। हमारे पशु बह गए थे। हम लोगों की जान बच गई थी। बारिश में हमारे परिवार रेलवे ट्रैक के पास थोड़ा ऊंचाई में खड़े हो गए। आज भी जब बारिश तेज होती है, नदी गांव में घुसती है तो सभी परिवार वहीं ट्रैक पर खड़े हो जाते हैं।
मोहम्मद ईशा उस दिन को याद करते हुए कहते हैं कि मेरी बड़ी बेटी दो माह की थी। मुझे याद है कि बेटी को गोद में लेकर बारिश में कई घंटे खड़ा रहा। हमारे सभी के घर तबाह हो चुके थे।
हम सरकार ने नदी किनारे तटबंध बनाने की मांग करते आए हैं, पर कोई सुनवाई नहीं है। करीब दो से ढाई किमी. का पुस्ता बनाने से 45 गुर्जर परिवारों और पशुओं को संकट से बचा सकते हैं। यहां नदी खेतों को काट रही है। यह हमारा ही नुकसान नहीं है, वन विभाग के प्लांटेशन को भी क्षति पहुंचती है।
क्या आपको मालूम है सुसुवा के बारे में
देहरादून शहर के पास मोथरोवाला में बिंदाल (चकराता रोड की ओर से ), रिस्पना (राजपुर की ओर से) और सपेरा नाला (क्लेमनटाउन की ओर से) मिलकर जिस प्रदूषित नदी का निर्माण करते हैं, उसको सुसुवा कहते हैं, क्योंकि सुसुवा के वास्तविक स्रोत को अभी तक चिह्नित नहीं किया जा सका है। यदि सुसुवा के वास्तविक स्रोत को चिह्नित किया गया है, तो उसके बारे में जानकारी अवश्य दी जानी चाहिए।
देहरादून शहर से होकर आ रहीं रिस्पना और बिंदाल की स्थिति सब जानते हैं, इन नदियों को नालों में बदल दिया गया है। ऐसे में इनसे बनी सुसुवा कितनी प्रदूषित होगी, आप जान सकते हैं।
पूरे शहर की गंदगी लेकर आ रही सुसुवा, खेतों को सींचती है, बाढ़ में गांवों में घुसती है और यहां, वो सबकुछ इकट्ठा कर जाती है, जो शहर ने उसको दिया है।
बिजली, पानी, शिक्षा, सड़क और सुरक्षा, कुछ भी तो नहीं
मोहम्मद ईशा बताते हैं कि हमें 1976 में वन विभाग ने इस क्षेत्र में बसाया है। पहले हम वनों में रहते थे और पहाड़ से मैदान तक घूमते थे। हमें यहां बसा दिया, पर सुविधाएं नहीं मिलीं। हमारे लिए न तो सड़क है, न ही बिजली, पानी की सुविधा। पानी के लिए हैंडपंप खुद ही लगाए हैं। बच्चों के लिए स्कूल भी यहां से दो किमी. दूर जंगल के रास्ते हैं और सड़क तो है ही नहीं। हमें 44 साल हो गए, हमें सड़क तो मिल जाए।
बताते हैं कि यहां से पहले हम कांसरो रेंज के बहेड़ा ब्लाक में रहते थे। हम वोट देते हैं, हमारे राशन कार्ड हैं, आधार कार्ड हैं। हमें आश्वासन नहीं, सुविधाएं चाहिए।
सोलर लाइट बरसात में काम नहीं करतीं
मोहम्मद इब्राहिम बताते हैं कि सोलर लाइट तो तभी काम करेंगी, जब सूरज की रोशनी होगी। बारिश के दिन धूप नहीं निकलती और रात को सोलर लाइट नहीं चलती। जंगल के पास रहते हैं, रात में अंधेरा रहता है। उमस में नींद किसको आती है। बच्चे परेशान हो जाते हैं। यहां मच्छरों की भरमार है। एक तो अंधेरा और फिर बारिश से बाढ़ का खतरा।
फोन की बैटरी पास के गांव से चार्ज कराते हैंः सोलर लाइट चार्ज नहीं हो पा रही। टॉर्च जलाते हैं या फोन की रोशनी से काम चल रहा है। फोन की बैटरी चार्ज कराने के लिए पास के गांवों में जाना पड़ता है।
हैंडपंप से भी दूषित पानीः पानी के लिए हैंडपंप खुद लगाए। हैंडपंप ज्यादा गहराई तक नहीं हैं। बरसात में इसमें मिट्टी जमा हो रही है। इनसे बारिश का गंदा पानी मिल रहा है। हम साफ पानी नहीं पी रहे।
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