अभिनव पहलः अपार्टमेंट में ही सीवेज का बायो ट्रीटमेंट
देहरादून। बढ़ती आबादी अपने लिए पर्याप्त संसाधनों की मांग करती है। अगर संसाधन पर्याप्त नहीं हुए तो पूरा सिस्टम चोक हो जाता है। सीवरेज सिस्टम में घरों, कॉलोनियों और अन्य व्यावसायिक संस्थानों से सीवेज को ट्रीटमेंट प्लांट तक पहुंचाने के लिए पूरे शहर में मैनहोल और लाइनों का जाल बिछाना पड़ता है। कुछ अलग और प्रभावी तरीके से सीवेज का उसके स्रोत पर ही ट्रीटमेंट किया जाए तो पूरे सिस्टम के बार-बार चोक होने की दिक्कतों से तो निजात पाई जा सकती है। साथ ही पानी बचाने के अभियान को भी सफलता मिल सकेगी।
डीआरडीओ के पूर्व निदेशक और वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. विजयवीर सिंह ने मसूरी रोड स्थित गोल्डन मेनोर अपार्टमेंट के लिए इस पूरे सिस्टम को डेवलप किया है। डॉ. विजय वीर इसी अपार्टमेंट में रहते हैं। वह एसटीपी (सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट) की जगह बायो एसटीपी की अवधारणा पर जोर देते हैं। उनका कहना है कि जैविक संसाधनों से किया गया ट्रीटमेंट नेचर को भी नुकसान नहीं पहुंचाता। यह पूरी तरह पर्यावरण के अनुकूल है। इसके मूल में जैविक शौचालय (बायो टायलेट) वाला सिस्टम काम करता है।
पूरी तरह साइंटिफिक बायो एसटीपी यहां सफलतापूर्वक काम कर रहा है। ट्रीटमेंट के बाद निकलने वाला पानी आसपास की फुलवारी को हराभरा कर रहा है। गोल्डन मेनोर में लगभग एक हजार की आबादी को ध्यान में रखते हुए प्लांट स्थापित किया गया है। अभी इस अपार्टमेंट में लगभग 400 से ज्यादा लोग रह रहे हैं। डॉ. सिंह ने मौके पर पहुंचकर पूरे सिस्टम के बारे में जानकारी दी। करीब तीन सौ गज प्लाट में बने अंडरग्राउंड टैंकों में सीवेज का आटोमैटिक बायो ट्रीटमेंट हो रहा है। टैंक के ऊपर लैगून के पौधे लहलहा रहे हैं।
टॉयलेट, किचन का वेस्ट पहले टैंक में जमा होकर दूसरे टैंक में पहुंचता है। दूसरे टैंक को जिग जैग शेप में बांटा गया है। इसमें खास किस्म के बैक्टीरिया डाले गए हैं। इन खास किस्म के बैक्टीरिया को आक्सीजन की जरूरत नहीं रहती है और ह्यूमन वेस्ट ही इसका आहार है। बायो टॉयलेट में भी इन्हीं बैक्टीरिया को इस्तेमाल किया जाता है।यह सॉलिड वेस्ट को पानी में बदल देता है। इस टैंक में प्लास्टिक की मैंब्रेन (झिल्ली) भी लगाई गई है, जो वेस्ट को एसिड मुक्त कर देती है और बैक्टीरिया इसे पानी में बदलता है।
डॉ. सिंह बताते हैं कि टैंक को बार-बार खोलने की भी जरूरत नहीं है। एक बार ही इसमें बैक्टीरिया डाला जाता है। बैक्टीरिया के बनने और खत्म होने का क्रम लगातार जारी रहता है। प्रथम चरण में ट्रीटमेंट हुआ पानी टैंक के ऊपर की तरह पर बहता है, जहां खास तरह के लैगून के पौधे लगे हैं। पानी लैगून की ज़ड़ों से होता हुआ एक बार फिर फिल्टर होता है। जो बाद में दो बड़े टैंकों में स्टोर करके बागवानी और फर्श धुलाई जैसे कार्यों में इस्तेमाल किया जा सकता है। पानी अगर अोवर फ्लो हो रहा है तो इसको खुले में छोड़ने में भी कोई दिक्कत नहीं है। यह पूरी तरह तय मानकों के अनुसार है। इस पूरे प्लांट की लागत लगभग 20 लाख रुपये है। सीनियर साइंटिस्ट डॉ. सिंह के अनुसार अभी इस पूरे प्रोजेक्ट पर और रिसर्च कर रहे हैं।
डॉ. सिंह बताते हैं कि अपार्टमेंट में सेप्टिक टैंक बनाए जाते हैं, जो खाली कराने पड़ते हैं, लेकिन इस बायो एसटीपी में टैंक खाली कराने का कोई झंझट नहीं है। एक बार सिस्टम काम करना शुरू कर दे तो वर्षों चलता है। इसमें मानवीय संसाधन की भी बहुत ज्यादा जरूरत नहीं है। अन्य कॉलोनियों और अपार्टमेंट में भी सिस्टम को स्थापित करने से सीवेज लाइनों पर ज्यादा दबाव नहीं पड़ेगा। वहीं पानी की बचत भी हो सकेगी।