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कौशल विकास पर डेढ़ सौ साल पहले से काम कर रहा था यह सरकारी स्कूल

उत्तराखंड के देहरादून जिला स्थित भोगपुर में 1879 से चल रहा स्कूल

राजेश पांडेय। न्यूज लाइव

उत्तराखंड में, देहरादून जिले के भोगपुर गांव में लगभग डेढ़ सौ साल पुराना स्कूल है। इस स्कूल की सवा सौ साल पुरानी इमारत आज भी बुलंद है और कुछ मरम्मत के बाद लंबे समय तक सुरक्षित रहेगी, ऐसा अनुमान लगाया जा सकता है। यह बात जितना सुकून देती है, उससे ज्यादा खुशी इस स्कूल के वर्षों पुराने दस्तावेज देखकर होती है, क्योंकि यह खुशी शिक्षा के उस तौर तरीके पर जोर देती है, जिसकी उत्तराखंड को आवश्यकता है, खासकर खेती से जुड़े कौशल विकास को बढ़ावा देने वाली शिक्षा की बात।

भोगपुर गांव डोईवाला ब्लाक में आता है, वर्ष 1879 में यहां इस विद्यालय की स्थापना की गई और इसकी इमारत का निर्माण 1898 में हुआ था। देहरादून जिले में बोर्डिंग वाले तीन मिडिल स्कूल होते थे, जिनमें सातवीं कक्षा तक की पढ़ाई होती थी। इनमें 55 राजपुर रोड, कालसी गेट और भोगपुर वाले स्कूल शामिल हैं। इन विद्यालयों में देहरादून के साथ ही, अन्य जिलों के बच्चे भी पढ़ने आते थे।

देहरादून जिले के भोगपुर स्थित राजकीय पूर्व माध्यमिक एवं प्राइमरी विद्यालय के छात्र-छात्राओं के साथ शिक्षक। फोटो- राजेश पांडेय

राजकीय पूर्व माध्यमिक विद्यालय भोगपुर के शिक्षक शमशाद अंसारी ने विद्यालय के दस्तावेजों को संग्रहित किया है, जिनमें स्कूल में पंजीकरण, टीसी, निरीक्षण आख्याएं, कृषि फार्म की गतिविधियों का जिक्र शामिल है। अंसारी बताते हैं, “उनके मामा कुतुबुद्धीन जी 1931 में इस विद्यालय के छात्र थे। वो बताते थे, स्कूल परिसर में खड़ा गूलर का पेड़ पहले भी ऐसा ही था। सड़क चौड़ी होने की वजह से वर्तमान में यह पेड़ स्कूल की बाउंड्री से बाहर हो गया है।”

देहरादून जिले के डोईवाला ब्लाक स्थित डेढ़ सौ साल पुराने राजकीय पूर्व माध्यमिक विद्यालय में सुरक्षित रखी 25 जुलाई 1932 एक टीसी, जिसमें एक छात्र के कक्षा दो पास करने की जानकारी है। फोटो- राजेश पांडेय

शिक्षक शमशाद अंसारी बताते हैं, “इस ऐतिहासिक इमारत की टीन से बनी छत के नीचे लकड़ी की सीलिंग लगी थी। यह इसलिए लगाई गई थी, ताकि गर्मियों में टीन गर्म होने पर कमरे का तापमान न बढ़े। इस सीलिंग पर 1879 लिखा था, जिसके आधार पर विद्यालय की स्थापना 1879 में होने का अनुमान लगाया गया है।”

“वैसे, सातवीं कक्षा तक चलने वाले इस मिडिल स्कूल के दस्तावेज 1910 के बाद के हैं। हालांकि, वो एक दस्तावेज का जिक्र करते हैं, “24 अगस्त 1904 को इस विद्यालय का एक निरीक्षण हुआ था, जिसमें कहा गया था कि पंडित बृजलाल जी, इस स्कूल के हेड मास्टर थे। बाद में पता चला, पंडित बृजलाल जी थानो के रहने वाले थे।”

देहरादून जिले के डोईवाला ब्लाक स्थित डेढ़ सौ साल पुराने राजकीय पूर्व माध्यमिक विद्यालय में सुरक्षित कृषि संबंधी अभिलेख दिखाते हुए शिक्षक शमशाद अंसारी। फोटो- राजेश पांडेय

“स्कूल का अपना कृषि फार्म था, जो लगभग पांच बीघा में था। यह भूमि अब जिला परिषद के अधीन है। पहले सभी स्कूल जिला परिषद के तहत थे। बाद में, इन स्कूलों को बेसिक शिक्षा परिषद के अंतर्गत लाया गया। फिर इनको सीधे सरकार के अधीन लाया गया। स्कूल में कृषि की पढ़ाई होती थी। उस समय कृषि के शिक्षक गवर्न्मेंट अफसर होते थे, जबकि अन्य शिक्षक जिला परिषद के अधीन थे। पर्यवेक्षक कृषि उपज का निरीक्षण करते थे। उपज का पूरा हिसाब रखा जाता था। छात्रों को कृषि विषय पढ़ाने का उद्देश्य उनको खेती किसानी के कौशल से जोड़ना था। स्कूल के पास बैलों की जोड़ी, गोशाला भी थी।” शिक्षक अंसारी बताते हैं।

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हमें स्कूल में सुरक्षित जरीब दिखाते हुए बताते हैं, “इसका इस्तेमाल जमीन की पैमाइश में किया जाता था। जरीब एक तरह की जंजीर है, जिसमें लोहे की कड़ियां होती हैं। यह दो तरह की होती हैं, इनमें एक गंटूर और दूसरी शाहजहीं होती है।”

देहरादून जिला के भोगपुर स्थित डेढ़ सौ साल पुराने स्कूल में रखी जरीब दिखाते हुए शिक्षक शमशाद अंसारी। फोटो- राजेश पांडेय

विकिपीडिया के अनुसार, इंग्लैंड में जरीब का निर्माण सर्वेक्षक और खगोलशास्त्री एडमंड गुंटर ने 1620 ईसवी में किया। भारत में इसका प्रयोग कब से शुरू हुआ स्पष्ट नहीं पता। आम तौर पर इसके आविष्कार का श्रेय राजा टोडरमल (अकबर के दीवान) को दिया जाता है, जिन्होंने 1570 ईसवी के बाद भूमि नापने के क्षेत्र में कई सुधार किए। इससे पूर्व शेरशाह के जमाने में जमीन नापने के लिए जो जरीब प्रयोग में लाई जाती थी, वो रस्सी की बनी होती थी और इससे माप में काफी त्रुटियां आती थीं। टोडरमल ने इसकी जगह बांस के डंडों की बनी कड़ियों (जो आपस में लोहे की पत्तियों से जुड़ी होती थीं) की बनी जरीब का प्रयोग शुरू किया। इस जरीब की लम्बाई 60 इलाही गज होती थी और 3600 इलाही गज (1 ×1 जरीब का रक़बा) एक बीघा कहलाया।

देहरादून जिले के भोगपुर के राजकीय पूर्व माध्यमिक विद्यालय का नया भवन। फोटोः राजेश पांडेय

यहां पास में, एक और वर्षों पुराना भवन था, जिसमें प्राइमरी स्कूल चलता था। इससे पहले, वहां पुलिस थाना था। प्रधानाध्यापक तिलक राज पुंडीर ने बताया, वर्तमान में पुरानी इमारत को खाली कर दिया गया है। नए भवन में बच्चों को शिफ्ट किया गया है। हालांकि, पुरानी बिल्डिंग अभी सही हालत में है। पर, बिल्डिंग पुरानी है, इसलिए सुरक्षा की दृष्टि से बच्चों को इसमें नहीं पढ़ाया जाता। पुरानी इमारत में स्कूल के पुराने अभिलेख रखे गए हैं।

देहरादून जिला के भोगपुर में 1979 से संचालित राजकीय पूर्व माध्यमिक विद्यालय के वर्तमान प्रधानाध्यापक तिलक राज पुंडीर। फोटो- राजेश पांडेय

पूर्व माध्यमिक विद्यालय में बच्चों की संख्या मात्र 27 है, इसकी वजह बताई भोगपुर क्षेत्र में जूनियर हाईस्कूल (कक्षा छह से आठ तक) के तीन राजकीय स्कूल होना बताई जाती है। 1989 में इस विद्यालय में छात्र संख्या 145 थी। शिक्षक अंसारी ने बताया, “विद्यालय के पूर्व प्रधानाध्यापक सुरेंद्र सिंह कंडारी जी से उन्होंने सुना है कि इस स्कूल में छात्र संख्या इतनी अधिक थी कि यहां सेक्शन में बांटकर कक्षाएं संचालित होती थीं। मिशन तक के बच्चे यहां पढ़ने आते थे।”

देहरादून जिला के भोगपुर स्थित राजकीय पूर्व माध्यमिक विद्यालय की ऐतिहासिक इमारत। फोटो- राजेश पांडेय

निर्माण में उड़द की दाल और गुड़ का इस्तेमाल

इस पुरानी इमारत का निर्माण पत्थरों और चूने की चिनाई से हुआ है। छत टीन और लकड़ियों की बड़ी डाटों से बनाई गई है। खिड़कियों और दरवाजों के आर्च यानी अर्द्धगोलाकार बीम को बनाने में उड़द की दाल की पिट्ठियां, गुड़ के मिक्चर को बोरियों के कटे हुए टुकड़ों में लपेटकर लगाया गया था। इससे निर्माण की मजबूती बनी रहती है।

कक्षा में प्रवेश करने से पहले दंडवत प्रणाम किया रिटायर्ड साइंटिस्ट ने

बताते हैं,  “कुछ वर्ष पहले एक बुजुर्ग व्यक्ति कार से कहीं जा रहे थे। उन्होंने स्कूल के सामने गाड़ी रुकवाई। उनके साथ उनका पुत्र और पुत्रवधू थे। उन्होंने बाकायदा स्कूल में आने की परमिशन चाही। उस समय स्कूल की छुट्टी हो गई थी और हम घर जा रहे थे। पर, हमने उनसे कहा, आपका स्वागत है सर। उन्होंने कहा, “मैं इस स्कूल का पूर्व छात्र हूं। क्या मैं आठवीं कक्षा का रूम देख सकता हूं।”

हमने आठवीं कक्षा का रूम खोला। वो व्यक्ति, जो शायद रिटायर्ड साइंटिस्ट थे, ने कक्ष के दरवाजे पर बैठकर कक्षा को दंडवत प्रणाम किया। अपनी कक्षा को देखकर काफी खुश हुए, उनकी आंखें नम हो गईं। उन्होंने हमें बताया, “ब्लैक बोर्ड कहां लगाते थे। शिक्षक कैसे पढ़ाते थे। स्कूल की गतिविधियों पर चर्चा करने लगे।”

शिक्षक शमशाद अंसारी स्कूल के ऐतिहासिक भवन में म्युजियम की स्थापना का सुझाव देते हैं। उनका कहना है, इस भवन में उत्तराखंड की पौराणिक एवं ऐतिहासिक महत्व की वस्तुओं का संग्रह किया जाना चाहिए, ताकि हमारी धरोहरों को आने वाली पीढ़ियां जान सकें।

Rajesh Pandey

राजेश पांडेय, देहरादून (उत्तराखंड) के डोईवाला नगर पालिका के निवासी है। पत्रकारिता में  26 वर्ष से अधिक का अनुभव हासिल है। लंबे समय तक हिन्दी समाचार पत्रों अमर उजाला, दैनिक जागरण व हिन्दुस्तान में नौकरी की, जिनमें रिपोर्टिंग और एडिटिंग की जिम्मेदारी संभाली। 2016 में हिन्दुस्तान से मुख्य उप संपादक के पद से त्यागपत्र देकर बच्चों के बीच कार्य शुरू किया।   बच्चों के लिए 60 से अधिक कहानियां एवं कविताएं लिखी हैं। दो किताबें जंगल में तक धिनाधिन और जिंदगी का तक धिनाधिन के लेखक हैं। इनके प्रकाशन के लिए सही मंच की तलाश जारी है। बच्चों को कहानियां सुनाने, उनसे बातें करने, कुछ उनको सुनने और कुछ अपनी सुनाना पसंद है। पहाड़ के गांवों की अनकही कहानियां लोगों तक पहुंचाना चाहते हैं।  अपने मित्र मोहित उनियाल के साथ, बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से डेढ़ घंटे के निशुल्क स्कूल का संचालन किया। इसमें स्कूल जाने और नहीं जाने वाले बच्चे पढ़ते थे, जो इन दिनों नहीं चल रहा है। उत्तराखंड के बच्चों, खासकर दूरदराज के इलाकों में रहने वाले बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से ई पत्रिका का प्रकाशन किया।  बाकी जिंदगी की जी खोलकर जीना चाहते हैं, ताकि बाद में ऐसा न लगे कि मैं तो जीया ही नहीं। शैक्षणिक योग्यता - बी.एससी (पीसीएम), पत्रकारिता स्नातक और एलएलबी, मुख्य कार्य- कन्टेंट राइटिंग, एडिटिंग और रिपोर्टिंग

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