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मुश्किल पड़ी तो ट्रेनी और पेज बनाने वालों तक को आगे कर देते हैं

कभी कभार डेस्क की गलतियों पर रिपोर्टर की हो जाती है फजीहत
अखबारी मीडिया के किस्से बहुत हैं, पर मैं आपके सामने कुछ ही ला पा रहा हूं। अखबार में जो थोड़ा भी सीनियर है और निर्बाध गति से आर्बिट में चक्कर लगाने में माहिर है, उसको अपनी गलतियां दबाने व दूसरों पर मढ़ने का अधिकार स्वतः मिल जाता है। परिक्रमा करने वालों में कुछ का व्यवहार अपने साथियों के साथ बहुत अच्छा होता है। यह भी तभी तक अच्छा है, जब आप उनके निर्देशों का पालन करते रहो। जब उनके अखबारी कामकाज में कहीं फंसने की नौबत आती है तो तरह-तरह के बहाने बनाकर जूनियर्स को आगे कर देते हैं। ये लोग ट्रेनी और पेज बनाने वाली टीम को भी बॉस के केबिन तक पहुंचाने में देर नहीं करते।
मीडिया में लीडर तो सभी बनना चाहते है, पर लीडरशिप के लायक हैं भी या नहीं यह उनके कामकाज से पता चल जाता है। लीडरशिप का मतलब यह कतई नहीं होता कि आपको किसी को डांटने का अधिकार मिल गया या आप अपने अधीनस्थ पर अपना भी कार्य थोपने के लिए अधिकृत हो गए या आपको अपने अधीनस्थ और जूनियर्स पर रौब जमाने के लिए कोई परमिट मिल गया। लीडरशिप का मतलब, टास्क को पूरा करने के लिए किसी मैनेजमेंट और कोआर्डिनेशन से है। अगर, आपकी टीम से कोई गलती होती है, तो आपको जिम्मेदारी लेनी चाहिए। अगर, आप किसी अच्छे कार्य पर प्रशंसा पाते हैं तो कमियों पर डांट खाने के लिए या किसी कार्रवाई के लिए टीम के किसी सदस्य को आगे क्यों कर देते हैं।
अखबार या किसी और नौकरी का कोई भी टास्क बिना टीम वर्क के पूरा नहीं हो सकता। लीडर अकेला कुछ नहीं कर सकता। कई बार पेजों में गलतियों के लिए उन लोगों को बॉस के केबिन में खड़ा देखा है, जिनका काम केवल पेज डिजाइन करना होता है। खबर के हेडिंग में कोई गलती हो गई या कोई फोटो सही जगह नहीं लगा तो यह गलती डिजाइनर की कैसे हो सकती है। गलती तो संपादकीय टीम की ही होगी, क्योंकि पेजों को चेक करने का काम उनका है। जब पेज का लेआउट शानदार होता है, उसकी तारीफ की जाती है, तो कोई यह नहीं कहता है कि उस डिजाइनर से इसको तैयार किया है।
एक किस्सा बताता हूं, एक अखबार में सड़क खराब होने की समस्या को लेकर एक खबर लिखी गई, जिसमें कुछ लोगों के फोटो भी प्रकाशित होने के लिए डेस्क के पास भेजे गए। दूसरे दिन अखबार में, इनमें से एक व्यक्ति का फोटो किसी दुर्घटना में मृत व्यक्ति की जगह लगा था। इस व्यक्ति ने अखबार के संपादक से लेकर कई जगह फोन करके नाराजगी व्यक्त की। उस व्यक्ति को ऐसा करना भी चाहिए था। उनका कहना था कि मेरे घर पर बहुत फोन आ रहे हैं। इससे मेरे परिवार को काफी परेशानी हो रही है।
सुबह आफिस आते आते इस मामले को लेकर मुझे फोन पर बॉस की नाराजगी झेलनी पड़ी। काफी बुरा लगा। बुरा लगने की बात भी थी, कि अखबार में काम करने वाला कोई शख्स इतना गैरजिम्मेदार कैसे हो सकता है। मैंने अपने फोटोग्राफर साथी से पूछा और सीएमएस (कन्टेंट मैनेजमेंट सिस्टम) व एफटीपी (फाइल ट्रांसफर प्रोटोकाल) को चेक किया। एफटीपी का इस्तेमाल एक स्टेशन से दूसरे स्टेशन को फोटो भेजने के लिए किया जाता है। हम लोग सही थे, गलती हमारे लेवल से नहीं थी। तुरंत बॉस को जानकारी दी। जानकारी मिली कि डेस्क के लेवल से इस गंभीर गलती की जिम्मेदारी पेज बनाने वाले साथी की तय की जा रही थी। कहा गया कि उसने फोटो गलत लगा दी, उसको चेक करना चाहिए।
अब मुझे उस व्यक्ति को ढूंढने, उनके पास जाने और माफी मांगने के लिए कहा गया। गुस्सा तो मुझे भी बहुत आया, पर क्या करता। मैंने तो बॉस से कह दिया, गलती किसी की, माफी कोई और मांगे। उनका कहना था कि फील्ड में तुम हो, तुम्हें ही यह मामला संभालना होगा। मैं कुछ नहीं जानता।
मैंने उन व्यक्ति को फोन किया, तो उन्होंने पहले तो मुझे घोर गैरजिम्मेदार करार दे दिया। मुझे और अखबार को जमकर कोसा। मुझसे कहा, तुम लोग ऐसे नहीं मानोगे, तुम्हें तो सही करना होगा। उन्होंने पूरी कसर उतार ली। मुझे तो यह निर्देश दिए गए थे कि चुप रहकर सुनते रहना। मैंने उनसे पूछा, आप कहां हो। उनका कहना था, जहां तुमने आज के अखबार में बता दिया। मैं तो पूरी तरह बेशर्म हो चुका था। मैंने फिर कहा, मैं आपसे मिलना चाहता हूं। काफी मिन्नत के बाद उन्होंने मुझे बताया कि मैं एक मॉल में हूं, वहां आ जाओ।
अपने दफ्तर से करीब आठ किमी. दूर मॉल में पहुंचा और फोन किया। उनका कहना था कि अभी नहीं मिल सकता। करीब एक घंटा बाद मिलूंगा। मैंने इंतजार किया। करीब डेढ़ घंटे बाद मुलाकात हो पाई। आते ही उन सज्जन ने कहा, अच्छा तो तुम हो। मैंने कहा, गलती हो गई, माफी मांग रहा हूं। उनका कहना था कि मेरे से माफी मांगने की जरूरत नहीं है। मेरे रिश्तेदार काफी गुस्से में हैं। मैंने पूछा, वो कहां मिलेंगे। उन्होंने मुझे बता दिया कि वहां चले जाओ। जिस जगह पर मैं खड़ा था, वहां से करीब 20 किमी. दूर।
करीब एक सवा घंटे में वहां भी पहुंच गया, जहां बताया था। मैं यह भागदौड़ इसलिए कर रहा था कि कहीं अखबार को नोटिस न भेज दिया जाए। वहां उन व्यक्ति के रिश्तेदार तो नहीं मिले, चाचा जी से मुलाकात हो गई। मैंने उनके बुजुर्ग चाचा जी के पैरों पर हाथ लगाया और पूरा किस्सा बता दिया। उन सज्जन व्यक्ति ने मुझसे सिर्फ यही कहा, बेटा बुरा लगता है और कोई बात नहीं है। आप निश्चिंत होकर जाओ। राहत की सांस लेकर मैंने बॉस को खबर दे दी कि अब कुछ नहीं होगा।
एक और किस्सा सुनाता हूं, जब एक बड़ी दुर्घटना की खबर मिसिंग होने पर सबने मिलकर ट्रेनी को आगे कर दिया। वर्ष 2001 की बात होगी। अखबारों के स्टेशनों पर रात को सभी थानों, चौकियों और अस्पताल में फोन करके सूचनाएं ली जाती हैं। व्हाट्सएप के जमाने में शायद तरीका कुछ बदल गया है। अब तो सूचनाएं खुद ही आ जाती हैं। वेब पोर्टल के लिंक खबरें बताते रहते हैं। दूसरे दिन सुबह प्रतिद्वंद्वी अखबार में पेज वन पर बारात की बस के एक्सीडेंट की खबर थी, जिसमें एक व्यक्ति की मौत की जानकारी दी गई थी। मैं घबरा गया, क्योंकि इस बड़ी घटना का मुझे पता नहीं कितने लोगों को जवाब देना था। उस दिन मेरे इंचार्ज भी छुट्टी पर थे।
देहरादून से दफ्तर में फोन आया, खबर कैसे छूटी। मैंने बता दिया, देर रात की है। जब रात को अस्पताल में फोन किया था, तब ऐसी कोई घटना नहीं थी। जवाब मिला, स्पष्टीकरण लिखो और बताओ कि अब क्या स्थिति है। आज की कवरेज दूसरे अखबार से बेहतर चाहिए। जिसको मौका मिला, उसने अपनी भड़ास निकाली, पर किसी ने यह नहीं बताया कि ऋषिकेश से करीब साठ किमी. दूर दुर्घटनास्थल की कवरेज कैसे की जाएगी, वो भी बारिश के दिन में।
मैंने अपने इंचार्ज को फोन करके बताया तो उन्होंने साफ ही कह दिया था कि कोई पूछे तो कह देना कि वो छुट्टी पर थे। मुझे कहीं से कोई मदद नहीं मिल रही थी। एक बार फिर एक सीनियर का फोन आया और उन्होंने एक मोबाइल नंबर नोट कराते हुए कहा कि इनसे बात कर लो। जिनसे मुझे बात करने के लिए कहा गया था, वो स्थानीय संपादक से भी बड़े संपादक थे। उनको एसोसिएट एडिटर कहा जाता है। उनसे बात करने से पहले संपादक को भी सोचना पड़ता था।
कुल मिलाकर मुझ जैसे ट्रेनी या न्यूज असिस्टेंट को लग गया कि आज से घर बैठो या कोई और नौकरी ढूंढ लो। वैसे भी इस घटना को स्थानीय स्तर पर ही संभाल लिया जा सकता था। पर, उनका करिअर तो गलतियों के लिए ट्रेनियों और जूनियर्स को ही जिम्मेदार ठहराते हुए आगे बढ़ा था, इसलिए उन्होंने यहां भी ऐसा ही किया। मेरे दफ्तर से मोबाइल नंबर मिलाने की कोई सुविधा नहीं थी। उसका कोड मुझे नहीं मालूम था। मैंने अपने दफ्तर के पास एक वकील साहब के फोन से उन बड़े संपादक को फोन मिला लिया।
उस समय बड़ी हैरानी हुई, जब उन्होंने बहुत ही सहज भाव में केवल यह पूछा, खबर कैसे छूट गई। मैंने बता दिया। उन्होंने कहा, रात को आफिस छोड़ते समय सभी को फोन किया करो। इस खबर की भरपाई चाहिए। मेरे इंचार्ज का नाम लेकर उन्होंने पूछा, कल वो कहां थे। मैंने कहा, वो कल अवकाश पर थे। कितनी दूर है दुर्घटनास्थल। मैंने बता दिया 60 किमी. के आसपास होगा। पर्वतीय मार्ग है, बारिश हो रही है। उन्होंने कहा, किराये पर टैक्सी मिल जाएगी। मैंने कहा, जी मिल जाएगी। उन्होंने कहा, टैक्सी करो और बिल एकाउंट में भेज देना। साथ ही, उन्होंंने मुझसे ही कह दिया कि किस सीनियर को क्या करना है। अब तो मेरा सीना चौड़ा गया। मैंने तुरंत देहरादून मिलाकर बता दिया कि बॉस ने किसको क्या करने के लिए कहा है।
मैंने तुरंत टैक्सी बुक कराके दफ्तर में बुला ली। दोपहर का करीब एक बजा होगा। फोटोग्राफर को साथ लेकर सीधा पौड़ी गढ़वाल जिले के यमकेश्वर क्षेत्र स्थित दुर्घटनास्थल पहुंच गया। शाम चार बज गए थे, पहुंचते पहुंचते। करीब एक घंटा लोगों से बात की, दुर्घटना के कारण को जानने की कोशिश की। वहां प्रशासनिक व्यवस्था के बारे में जाना। फिर करीब सात बजे तक दफ्तर पहुंच गया। सीधा खबर लिखने बैठ गया।
दफ्तर में घुसने से पहले ही खबर के लिए फोन आने लगे, जबकि रात नौ बजे तक एडिशन छूटना था। जो लोग दोपहर तक मेरी कोई मदद नहीं कर पा रहे थे, वो खबर भेजो, खबर भेजो… की रट लगाए थे। करीब एक घंटा में खबरें सबमिट करके राहत की सांस ली। दूसरे दिन हम सबसे आगे थे। हमारे पास दुर्घटनास्थल की कवरेज और फोटो थे। इस खबर को लेकर मैं अपनी जिम्मेदारी से मुक्त हो गया था। मेरे इंचार्ज ड्यूटी ज्वाइन कर चुके थे, अब जिम्मेदारी उनकी थी।
मेरा कहने का मतलब है, जब जिम्मेदार पदों पर बैठे हो, जिम्मेदारी की तनख्वाह ले रहे हो, तो गलतियों को स्वीकार करना भी सीखो। जूनियर्स व ट्रेनियों को आगे क्यों कर देते हो। और भी बहुत सी जानकारियां हैं अखबारी मीडिया की।

Rajesh Pandey

राजेश पांडेय, देहरादून (उत्तराखंड) के डोईवाला नगर पालिका के निवासी है। पत्रकारिता में  26 वर्ष से अधिक का अनुभव हासिल है। लंबे समय तक हिन्दी समाचार पत्रों अमर उजाला, दैनिक जागरण व हिन्दुस्तान में नौकरी की, जिनमें रिपोर्टिंग और एडिटिंग की जिम्मेदारी संभाली। 2016 में हिन्दुस्तान से मुख्य उप संपादक के पद से त्यागपत्र देकर बच्चों के बीच कार्य शुरू किया।   बच्चों के लिए 60 से अधिक कहानियां एवं कविताएं लिखी हैं। दो किताबें जंगल में तक धिनाधिन और जिंदगी का तक धिनाधिन के लेखक हैं। इनके प्रकाशन के लिए सही मंच की तलाश जारी है। बच्चों को कहानियां सुनाने, उनसे बातें करने, कुछ उनको सुनने और कुछ अपनी सुनाना पसंद है। पहाड़ के गांवों की अनकही कहानियां लोगों तक पहुंचाना चाहते हैं।  अपने मित्र मोहित उनियाल के साथ, बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से डेढ़ घंटे के निशुल्क स्कूल का संचालन किया। इसमें स्कूल जाने और नहीं जाने वाले बच्चे पढ़ते थे, जो इन दिनों नहीं चल रहा है। उत्तराखंड के बच्चों, खासकर दूरदराज के इलाकों में रहने वाले बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से ई पत्रिका का प्रकाशन किया।  बाकी जिंदगी की जी खोलकर जीना चाहते हैं, ताकि बाद में ऐसा न लगे कि मैं तो जीया ही नहीं। शैक्षणिक योग्यता - बी.एससी (पीसीएम), पत्रकारिता स्नातक और एलएलबी, मुख्य कार्य- कन्टेंट राइटिंग, एडिटिंग और रिपोर्टिंग

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