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Uttarakhand: जैविक को भी सामान्य उपज के रेट पर बेचने को मजबूर किसान

राजेश पांडेय। न्यूज लाइव ब्लॉग
झबरावाला में किसान बलवीर सिंह जैविक अदरक उगा रहे हैं, उनके सामने बड़ा सवाल यह है कि वो अपनी उपज को लेकर कहां जाएं। उनके क्षेत्र में जैविक उपज (Organic production) को बेचने के लिए कोई व्यवस्था नहीं है। इसलिए उनको उपज सामान्य की तरह ही बेचनी पड़ती है।
झबरावाला उत्तराखंड के देहरादून जिला स्थित डोईवाला ब्लाक का हिस्सा है। 54 वर्षीय बलवीर सिंह बताते हैं कि उन्होंने इसी साल फरवरी-मार्च में अदरक का, जो बीज बोया था, उसको जुलाई में निकाल लिया। बोए हुए बीज में अंकुर निकल जाते हैं, जिनसे नये पौधे बन जाते हैं। हमने सावधानी पूर्वक पुराना बीज निकाल लिया और बेच दिया। इसी खेत में अदरक के साथ अभी तक पांच फसलें ले चुके हैं। कुल मिलाकर अदरक लगाने में जो लागत लगी थी, वो हमें मिल गई। अब जो अदरक खेत में लगी है, वो हमारे लिए बोनस है।
झबरावाला के किसान बलवीर सिंह। फोटो- डुगडुगी
बलवीर सिंह के अनुसार, वो आर्गेनिक खेती (Organic farming) करते हैं। खेतों में गोबर, वर्मी कम्पोस्ट (Vermi compost) और खुद का बनाया स्प्रे इस्तेमाल करते हैं, पर उनकी जैविक फसल के लिए बाजार नहीं है। देहरादून में हर रविवार हाट लगने की जानकारी है, पर हमें वहां स्टाल लगाने की जगह नहीं मिल पाएगी।
”संभावना है कि मेरे खेत में दस कुंतल अदरक हो जाएगी। स्थानीय स्तर पर जैविक उपज का कोई बाजार मेरी जानकारी में नहीं है। मैं इस थोड़ी सी फसल को लेकर दिल्ली नहीं जा सकता। इतना तो किराया लग जाएगा। यहां उपज को स्टोरेज करने की व्यवस्था नहीं है। इसलिए मुझे जैविक अदरक को सामान्य उपज की तरह की बेचना पड़ जाएगा।
सामान्य तौर पर लोगों को जैविक और सामान्य उपज में अंतर नहीं पता होता। जो लोग स्वास्थ्य की दृष्टि से जैविक उत्पाद इस्तेमाल करते हैं, उन तक कैसे पहुंच सकते हैं, मुझे नहीं पता, ” किसान बलवीर सिंह अपनी समस्या बताते हैं।
झबरावाला में ही रणजोध सिंह के पास लगभग चार बीघा के तीन खेत हैं, जिनमें जैविक खेती करते हैं। उनका जैविक खेती में रजिस्ट्रेशन है। लगभग डेढ़ बीघा में उन्होंने गन्ने के साथ आलू लगाया है। मल्टी क्रापिंग के तहत गन्ने के साथ दो बार आलू लगा सकते हैं। या एक बार आलू या फिर प्याज, टमाटर, धनिया या कोई अन्य उपज ले सकते हैं।

वो बताते हैं, करीब डेढ़ माह में आलू की उपज मिल जाएगी। पैदावार अच्छी होने की संभावना है। यह जैविक उपज है, पर दिक्कत यह है कि इसको कहां बेचा जाए।
अभी बाजार में सामान्य आलू का रेट 25 रुपये प्रति किलो है। एक माह बाद किसान से यह मात्र पांच रुपये प्रति किलो के हिसाब से खरीदा जाएगा। जबकि सामान्य की तुलना में जैविक खेती में श्रम एवं लागत ज्यादा लगती है और उत्पादन कम होता है। पर, हमें इसका रेट सामान्य वाला ही मिल पाता है।
हमारे सामने जैविक आलू को भी सामान्य के रेट पर बेचने की मजबूरी होती है। इसकी वजह यह है कि हम आलू की उपज को घर पर ज्यादा दिन नहीं रख सकते और यहां न तो जैविक उत्पाद का कोई मार्केट है और न ही कोई स्टोरेज।
हमें ऐसी कोई जानकारी नहीं है कि जैविक आलू (Organic potatoes) को कहां बेचें। मुझे तो आर्गेनिक खेती का शौक है, पर अन्य किसान कहां जाएंगे, जिनकी आजीविका पूरी तरह कृषि पर निर्भर (Livelihood depends entirely on agriculture) है, रणजोध सिंह सवाल उठाते हैं।
किसान बताते हैं, यहां जैविक खेतों की कोई मानिटरिंग (monitoring of organic farms)  नहीं होती है और न ही उपज को बाजार (Market of organic produce) दिलाने की कोई व्यवस्था है। किसी फसल में कोई रोग लग जाए तो कौन सी जैविक दवा इस्तेमाल करें, कोई बताने वाला नहीं है।
डोईवाला के झबरावाला गांव में किसान रणजोध सिंह ने सब्जियों की क्यारियां लगाई हैं, जिनमें वर्मी कम्पोस्ट डालते हैं। फोटो- डुगडुगी
”हमारे पास पशुधन है, इसलिए गोबर गैस प्लांट ( Gobar gas plant) है। प्लांट से निकलने वाला गोबर सीधा वर्मी कम्पोस्ट पिट (Vermi compost pit) में जाता है। केचुएं गोबर को डिकम्पोज करके वर्मी कम्पोस्ट बनाते हैं। इसको खेतों में इस्तेमाल करते हैं। क्यारियों में सब्जियां भी उगा रहे हैं, जिनमें लहसुन, मूली, धनिया, मैथी, बैंगन, फलियां, सेम की फलियां उगाई हैं।

उनकी क्यारी में चार माह पहले लगाई सेम की एक बेल काफी दूरी तक फैल गई है और फलियों से लदी है। यह पूरी तरह आर्गेनिक है, पर इसकी पत्तियों में कीट लग गया है। इसमें रसायन का छिड़काव नहीं कर सकते। अब क्या करें, हमें जैविक उपाय की जानकारी नहीं है,” रणजोध सिंह सवाल करते हैं।
कास्तकार बलवीर सिंह का कहना है, जैविक बीज कहां से मिलेगा, यह तक जानकारी किसानों को नहीं मिलती। इन हालात में यह कहना कि जैविक खेती से किसानों की आर्थिक स्थिति में सुधार होगा, समझ से परे है।
किसान बलवीर सिंह का कहना है, शहरों में जैविक उत्पादों का बाजार है, पर हम ग्रामीण क्षेत्र में रहते हैं, हमें बाजार से कौन जोड़ेगा। हमें तो जैविक खेती में घाटा (Loss in organic farming) हो रहा है।
शहर की गंदगी ढो रही नदी है सिंचाई का साधन
रणजोध सिंह कहते हैं, झबरावाला सहित कई गांवों की खेती सुसवा नदी पर निर्भर है, पर सुसवा में देहरादून शहर का कचरा, सीवर बहता है। क्लेमनटाउन से एक स्रोत से आने वाली सुसवा नदी का पानी पहले कभी बहुत साफ रहता था। पर उसमें देहरादून की बिंदाल और रिस्पना नदियां मिल रही हैं, जिनमें पूरे शहर की गंदगी बहती है। इस पूरे इलाके में कभी बासमती की खुश्बू रहती थी, अब खेती करना मुश्किल हो गया। सबसे प्रदूषित नदी से हमारे खेतों में सिंचाई होती है। ऐसे में फसल आर्गेनिक नहीं रहेगी और उसमें कीड़ा लगने की आशंका है।
वो बताते हैं,  जैविक खेती के लिए हमने ट्यूबवैल की व्यवस्था की है। यहां पानी भी बहुत गहराई पर है। हाल ही में भाई के साथ मिलकर एक और ट्यूबवैल लगाया है, पर उसमें कनेक्शन लेने के लिए दो महीने से बिजली विभाग के चक्कर काटने पड़ रहे हैं। वैसे तो किसानों को ट्यूबवैल पर बिजली बिल में सब्सिडी की व्यवस्था है, पर कनेक्शन के लिए पसीना बहाना पड़ रहा है।
तमाम दिक्कतों के बाद,खेती को आर्गेनिक कैसे करें। जबकि खेती को आर्गेनिक करके हमें दवाइयों की जरूरत नहीं होगी। हमारे बुजुर्ग दवाइयां नहीं खाते थे। बड़े फार्मों के गेहूं का टेस्ट करा लीजिए। बाजार में बिक रहीं सब्जियों को जांच लीजिए। इन पर रसायनों के स्प्रे की पुष्टि हो जाएगी।
बताते हैं, मक्की को बचाने के लिए तीन स्प्रे किए, लेकिन सूंड़ी फिर भी मक्की में चली गई। कहीं कोई निगरानी नहीं हो रही है। अधिकारियों को किसानों के बीच फील्ड में होना चाहिए। किसानों को अच्छी खेती के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए, उनको किसी भी समस्या का समाधान बताना चाहिए। एक या दो बीघा वाला किसान अकेला कुछ नहीं कर सकता। सरकार को उसकी मदद के लिए धरातल पर आकर काम कराने चाहिए।
बलवीर सिंह कहते हैं, छोटे किसान ट्यूबवैल कैसे लगाएं। पांच बीघा का कास्तकार ट्यूबवैल पर पांच लाख रुपये कैसे खर्च कर पाएगा।
महंगा बीज बेचकर गायब हुई कंपनी, दो रुपये किलो बताया हल्दी का दाम
रणजोध सिंह बताते हैं, करीब छह साल पहले एक कंपनी के लोग गांव में आए और 85 रुपये किलो के हिसाब से हल्दी का बीज दे गए। उन्होंने बताया कि इसकी उपज हम खरीदेंगे। कोई पौधा खराब होगा तो उसके भी पैसे देंगे। इसका बीमा करेंगे। मेरे खेत राजाजी राष्ट्रीय पार्क के किनारे हैं। जंगली जानवर खेती को नुकसान पहुंचाते हैं। इसलिए मैंने वहां लगभग आठ बीघा में हल्दी का बीज लगा दिया।
हल्दी जैसी होनी थी, वैसी तो नहीं हो पाई, पर हल्दी को खरीदने वाली कंपनी गायब हो गई। उनसे कोई संपर्क नहीं हो सका। हल्दी बेचने के लिए बाजार गया तो दो रुपये किलो रेट बताया गया।
उनका कहना हैं, किसी ने मुझे सलाह दी कि रामदेव जी के यहां चले जाओ। मैं सैंपल लेकर वहां पहुंचा तो पता चला कि वहां कच्ची हल्दी नहीं खरीदी जाती। मुझे सलाह दी गई कि इसको उबालिए, सुखाइए, फिर हमारे पास लाइए। हम तो सिर्फ पैकिंग करते हैं। वहां भी हल्दी नहीं बिक पाई।
लोन का पैसा लेकर कंपनी हो गई फुर्र
किसान बलवीर सिंह के अनुसार, किसानों के बीच बहुत सी कंपनियां आती रहती हैं। उनका मकसद केवल बीज और पौधे बेचना होता है। कोई सागौन के पेड़ लगाने को कहता है और कोई पॉपुलर के पेड़ लगवाता है। इसी तरह गांव में ही एक परिवार को पॉपुलर पेड़ लगाने के नाम पर एक कंपनी ने लाखों को लोन दिलवा दिया। लोन का पैसा लेकर कंपनी गायब हो गई और किसान का पेड़ दो सौ रुपये में भी नहीं बिका।
उत्तराखंड आर्थिक सर्वेक्षण 2020-21 के अनुसार जैविक खेती
प्रदेश में जैविक खेती के प्रोत्साहन के लिए भारत सरकार ने प्रदेश को 10,000 क्लस्टर का अनुमोदन दिया, जिसके सापेक्ष प्रथम 3,900 क्लस्टर की संस्तुति प्राप्त होने के बाद तथा सहयोगी विभाग (उद्यान, रेशम, जड़ी-बूटी, संगध तथा जैविक उत्पाद परिषद) 78,000 हेक्टेयर संचालन कर रहा है। दूसरी योजना राष्ट्रीय कृषि विकास अन्तर्गत 62,000 हैक्टेयर में संचालित है। प्रदेश गठन के बाद जैविक कृषि पंजीकृत वाला उक्त क्षेत्र अब तक का सर्वाधिक क्षेत्रफल है।
उत्तराखंड जैविक उत्पाद परिषद पिछले वर्षों से प्रदेश के लघु एवं सीमांत समूह के रूप में  Group Certification में न्यूनतम खर्चे पर जैविक प्रमाणीकरण (Low Cost Certification) का कार्य करा रहा है। वाह्य निरीक्षण एवं जैविक प्रमाणीकरण का कार्य उत्तराखंड ऑर्गेनिक सर्टिफिकेशन एजेंसी, देहरादून द्वारा किया जाता है। 2017-18 में विभाग जैविक उत्पाद परिषद ने संयुक्त रूप से 36,929 कृषकों (19,886.58 हेक्टेयर) को जैविक प्रमाणीकरण के अन्तर्गत आच्छादित किया।
प्रदेश में उत्पादित उत्पादों में वर्ष 2018 में मुख्य रूप से 150 टन बासमती, 360 टन चौलाई, 1,500 टन गन्ना उत्पाद (गुड, शक्कर, खांड आदि) आदि को पंजीकृत क्रेताओं ने क्रय किया। स्थानीय उपभोक्ताओं को जैविक उत्पादों के प्रति जागरूक करने उद्देश्य से जनपद स्तर पर कृषकों द्वारा जैविक उत्पाद की दुकानें खोली गई है। 28 दिसम्बर 2018 को नई दिल्ली में आयोजित कार्यक्रम उत्तराखंड जैविक उत्पाद परिषद को जैविक इंडिया अवार्ड 2018 से सम्मानित किया गया।

Rajesh Pandey

राजेश पांडेय, देहरादून (उत्तराखंड) के डोईवाला नगर पालिका के निवासी है। पत्रकारिता में  26 वर्ष से अधिक का अनुभव हासिल है। लंबे समय तक हिन्दी समाचार पत्रों अमर उजाला, दैनिक जागरण व हिन्दुस्तान में नौकरी की, जिनमें रिपोर्टिंग और एडिटिंग की जिम्मेदारी संभाली। 2016 में हिन्दुस्तान से मुख्य उप संपादक के पद से त्यागपत्र देकर बच्चों के बीच कार्य शुरू किया।   बच्चों के लिए 60 से अधिक कहानियां एवं कविताएं लिखी हैं। दो किताबें जंगल में तक धिनाधिन और जिंदगी का तक धिनाधिन के लेखक हैं। इनके प्रकाशन के लिए सही मंच की तलाश जारी है। बच्चों को कहानियां सुनाने, उनसे बातें करने, कुछ उनको सुनने और कुछ अपनी सुनाना पसंद है। पहाड़ के गांवों की अनकही कहानियां लोगों तक पहुंचाना चाहते हैं।  अपने मित्र मोहित उनियाल के साथ, बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से डेढ़ घंटे के निशुल्क स्कूल का संचालन किया। इसमें स्कूल जाने और नहीं जाने वाले बच्चे पढ़ते थे, जो इन दिनों नहीं चल रहा है। उत्तराखंड के बच्चों, खासकर दूरदराज के इलाकों में रहने वाले बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से ई पत्रिका का प्रकाशन किया।  बाकी जिंदगी की जी खोलकर जीना चाहते हैं, ताकि बाद में ऐसा न लगे कि मैं तो जीया ही नहीं। शैक्षणिक योग्यता - बी.एससी (पीसीएम), पत्रकारिता स्नातक और एलएलबी, मुख्य कार्य- कन्टेंट राइटिंग, एडिटिंग और रिपोर्टिंग

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