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बुढ़ापा

बुजुर्ग व्यक्ति अपने बेटे, पुत्रवधु और पोते के साथ रहने के लिए उनके घर आए। उनके हाथ कांप रहे थे। उनको कम ही दिखाई देता था। वह सही तरह से चल भी नहीं पा रहे थे। पूरे परिवार ने एक साथ खाना खाया। भोजन के समय बुजुर्ग के हाथों में कंपन की वजह से खाना प्लेट से बाहर गिर रहा था। वह बड़ी मुश्किल से खाना खा पा रहे थे। चम्मच बार-बार हाथ से छूट रही थी। ग्लास से पानी गिर गया। यह देखकर बेटे और पुत्रवधु को परेशानी महसूस होने लगी। उन्होंने बुजुर्ग की शारीरिक दिक्कत को अपनी समस्या के रूप में लिया और इसका समाधान भी खोज लिया।  

दूसरे दिन बुजुर्ग के लिए दूसरी मेज लगा दी गई। उनको वहां अलग बैठाकर खाना परोसा गया। बुजुर्ग अकेले बैठकर भोजन कर रहे थे और बाकि परिवार अलग बैठा था। सब लोग बुजुर्ग से अलग बैठकर भोजन का आनंद ले रहे थे। वहीं बुजुर्ग की आंखें नम थीं। वह सोच रहे थे कि बुढ़ापा भी क्या चीज है, जिसकी वजह से परिवार ने दूरी बना ली। भोजन के समय हाथों में कंपन से कांच की कटोरी फर्श पर गिरकर टूट गई।  बर्तन टूटने की समस्या का हल भी निकाल लिया गया।

अब बुजुर्ग को लकड़ी की कटोरी और प्लेट में भोजन परोसा गया। वह बहुत दुखी होकर सोच रहे थे कि क्या जिंदगी के अंतिम पड़ाव में यह दिन देखने पड़ते हैं। स्वयं भोजन करने में परेशानी महसूस करने की वजह से बुजुर्ग अक्सर खाना छोड़ने लगे। दादाजी को अकेले बैठकर भोजन करते देख छह साल के पोते से नहीं रहा गया।  एक दिन वह बागीचे में पड़े लकड़ी के दो छोटे टुकड़े ले आया। लकड़ी के टुकड़ों को कटोरी सी शेप देने का प्रयास करने लगा। उसके पापा ने उसे ऐसा करते देखा तो पूछ लिया, क्या कर रहे हो बेटा।

उसका जवाब था, कटोरियां बना रहा हूं। लेकिन आप ऐसा क्यों कर रहे हो, पापा ने पूछा।  बेटे ने कहा, जब आप और मम्मी दादाजी जैसे हो जाओगे, तब आपको खाना देने के काम आएगा। यह कहते ही बच्चा मुस्कराया और फिर अपने प्रयास में जुट गया। बच्चे के इन शब्दों से उसके पापा सोचने को मजबूर हो गए। उन्होंने उसी वक्त निर्णय लिया कि बुजुर्ग पिता को अपने साथ ही भोजन कराएंगे। मम्मी और पापा भोजन के समय बुजुर्ग को अपने साथ भोजन की मेज तक लाए और उनको अपने साथ बैठाकर भोजन करने में मदद की। अब वो इस बात पर ध्यान नहीं दे रहे कि मेज पर पानी या खाना गिर रहा है। बर्तन टूट रहा है या बुजुर्ग के भोजन चबाते समय आवाज आ रही है।

 

 

Rajesh Pandey

राजेश पांडेय, देहरादून (उत्तराखंड) के डोईवाला नगर पालिका के निवासी है। पत्रकारिता में  26 वर्ष से अधिक का अनुभव हासिल है। लंबे समय तक हिन्दी समाचार पत्रों अमर उजाला, दैनिक जागरण व हिन्दुस्तान में नौकरी की, जिनमें रिपोर्टिंग और एडिटिंग की जिम्मेदारी संभाली। 2016 में हिन्दुस्तान से मुख्य उप संपादक के पद से त्यागपत्र देकर बच्चों के बीच कार्य शुरू किया।   बच्चों के लिए 60 से अधिक कहानियां एवं कविताएं लिखी हैं। दो किताबें जंगल में तक धिनाधिन और जिंदगी का तक धिनाधिन के लेखक हैं। इनके प्रकाशन के लिए सही मंच की तलाश जारी है। बच्चों को कहानियां सुनाने, उनसे बातें करने, कुछ उनको सुनने और कुछ अपनी सुनाना पसंद है। पहाड़ के गांवों की अनकही कहानियां लोगों तक पहुंचाना चाहते हैं।  अपने मित्र मोहित उनियाल के साथ, बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से डेढ़ घंटे के निशुल्क स्कूल का संचालन किया। इसमें स्कूल जाने और नहीं जाने वाले बच्चे पढ़ते थे, जो इन दिनों नहीं चल रहा है। उत्तराखंड के बच्चों, खासकर दूरदराज के इलाकों में रहने वाले बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से ई पत्रिका का प्रकाशन किया।  बाकी जिंदगी की जी खोलकर जीना चाहते हैं, ताकि बाद में ऐसा न लगे कि मैं तो जीया ही नहीं। शैक्षणिक योग्यता - बी.एससी (पीसीएम), पत्रकारिता स्नातक और एलएलबी, मुख्य कार्य- कन्टेंट राइटिंग, एडिटिंग और रिपोर्टिंग

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