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Harela festival climate change: हरेला है प्रकृति के साथ सौहार्द्रपूर्ण संबंधों का त्योहार

Harela festival climate change

डॉ.राजेन्द्र कुकसाल
लेखक कृषि एवं औद्यानिकी विषेशज्ञ हैं

Harela festival climate change: प्रकृति के प्रति उत्तराखंड के लोगों के गहरे जुड़ाव को दर्शाते हुए, हरेला का त्योहार जुलाई के महीने में मनाया जाता है। यह त्योहार पर्यावरण के महत्व और प्रकृति के साथ सौहार्द्रपूर्ण संबंध बनाए रखने के संदेश को बढ़ावा देता है। यह लेख हरेला के महत्व और वैश्विक जलवायु परिवर्तन के संदर्भ में इसकी प्रासंगिकता पर प्रकाश डालता है।

उत्तराखंड में हर साल 16 जुलाई को हरेला का पर्व मनाया जाता है, जो सुख, समृद्धि और हरियाली का प्रतीक है। इस पर्व के लिए दस दिन पहले पांच से सात प्रकार के अनाज के बीज, जैसे कि जौ, गेहूं, मक्का, गहत, सरसों, आदि को एक टोकरी में साफ मिट्टी भरकर बोया जाता है। इस टोकरी को घर के पूजा-स्थल के पास रखा जाता है, और दस दिनों तक इसमें नियमित रूप से पानी डाला जाता है।

दसवें दिन, इन बीजों से उगी हुई हरी पत्तियों को काटा जाता है और देवी-देवताओं की पूजा की जाती है। इस दौरान, लोग अच्छी फसल, परिवार की सुख-समृद्धि और शांति के लिए प्रार्थना करते हैं। यह पर्व केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं है, बल्कि यह पर्यावरण संरक्षण और प्रकृति को सहेजने का एक सशक्त संदेश भी देता है। इसी कारण, राज्य सरकार और विभिन्न संगठन इस दिन को वृक्षारोपण करके मनाते हैं।

प्रकृति और पंच महाभूत
भारतीय दर्शन के अनुसार, प्रकृति पृथ्वी, वायु, जल और सूर्य से मिलकर बनी है। प्रकृति ने सभी जीव-जंतुओं और पेड़-पौधों के लिए जीवनयापन की एक सुदृढ़ व्यवस्था बनाई है। मानव शरीर भी पंच महाभूतों— पृथ्वी, आकाश, जल, वायु और अग्नि (सूर्य)— से बना है। जीवन के अंत में, हमारा शरीर फिर से इन्हीं पाँच तत्वों में विलीन हो जाता है।

यदि 100 किलोग्राम हरी फसल को पूरी तरह सुखाया जाए, तो 22 किलोग्राम सूखी घास बचती है, जिसका मतलब है कि 78% पानी वाष्पित हो जाता है। यदि इस 22 किलोग्राम सूखी घास को जलाया जाए, तो 1.5 किलोग्राम राख बचती है, जबकि बाकी हिस्सा अग्नि और वायु के रूप में वायुमंडल में मिल जाता है। यह दर्शाता है कि प्रकृति में हर एक चीज का अपना एक चक्र है।

जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग
मानव द्वारा अपने भौतिक सुखों के लिए प्रकृति का अत्यधिक दोहन करने से पर्यावरण में असंतुलन पैदा हुआ है, जिससे जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग जैसी गंभीर समस्याएं उत्पन्न हुई हैं। इन समस्याओं का मुख्य कारण वातावरण में ग्रीनहाउस गैसों— जैसे कार्बन डाइऑक्साइड, मीथेन, और नाइट्रस ऑक्साइड— की मात्रा में वृद्धि है।

औद्योगीकरण, शहरीकरण, वाहनों की बढ़ती संख्या, पेट्रोलियम ईंधन का अधिक उपयोग, वनों की कटाई और कृषि में रासायनिक दवाओं का प्रयोग, जैसे कारकों ने इन गैसों के उत्सर्जन को बढ़ाया है।

जलवायु परिवर्तन के दुष्परिणाम
ग्लोबल वार्मिंग के कारण तापमान में वृद्धि हुई है, जिससे वायु प्रदूषण भी बढ़ा है। कई शहरों का वायु गुणवत्ता सूचकांक (AQI) खराब हो गया है, जिसका सीधा असर मानव स्वास्थ्य पर पड़ रहा है, और कई गंभीर बीमारियों, जैसे कैंसर और हृदय रोग, में वृद्धि हुई है।

इस जलवायु परिवर्तन ने मौसम के पैटर्न को भी बदल दिया है। बारिश का समय और स्वरूप बदल गया है। पहले, कई दिनों तक लगातार बारिश होती थी, लेकिन अब कम समय में तेज और मूसलाधार बारिश होती है। बारिश के समय में अंतर हुआ है, पहले वर्ष में, जुलाई, अगस्त और दिसंबर, जनवरी में अधिक वर्षा होती थी, लेकिन अब अगस्त सितम्बर और जनवरी फरवरी में अधिक बरिश हो रही है। बर्फबारी भी कम हो गई है, और ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं। इन सब के कारण, जल स्रोत सूख रहे हैं और भूमिगत जल स्तर में भी गिरावट आई है।

कृषि पर प्रभाव
भारत में कृषि मुख्य रूप से मानसून पर निर्भर है, और जलवायु परिवर्तन का इस पर सीधा प्रभाव पड़ रहा है। अनियमित बारिश के कारण किसानों के लिए फसल चक्र बनाए रखना मुश्किल हो रहा है। अत्यधिक तापमान सब्जियों और गेहूं जैसी फसलों की पैदावार को कम कर रहा है। ठंडी लहरें और पाला भी तिलहन और सब्जियों को नुकसान पहुंचा रहे हैं, जिससे फसलों की उपज पर नकारात्मक असर पड़ रहा है।

जलवायु परिवर्तन के कारण खरपतवार और कीटों का प्रकोप भी बढ़ गया है, जो फसलों के लिए एक बड़ी चुनौती बन गया है।

हरेला और प्रकृति संरक्षण की प्रासंगिकता
इन सभी समस्याओं को देखते हुए, उत्तराखंड का लोक पर्व हरेला और भी अधिक प्रासंगिक हो जाता है। यह हमें याद दिलाता है कि प्रकृति का संरक्षण और उसके साथ सद्भाव में रहना कितना महत्वपूर्ण है। हरेला केवल एक त्योहार नहीं, बल्कि प्रकृति के प्रति सम्मान और उसके संरक्षण का एक आंदोलन है। यह हमें सिखाता है कि जिस तरह हम हरेला के दौरान बीजों को उगाकर उसकी हरियाली का जश्न मनाते हैं, उसी तरह हमें अपने पर्यावरण का भी ध्यान रखना चाहिए ताकि हमारी आने वाली पीढ़ियां एक स्वच्छ और स्वस्थ दुनिया में जी सकें।

Rajesh Pandey

newslive24x7.com टीम के सदस्य राजेश पांडेय, उत्तराखंड के डोईवाला, देहरादून के निवासी और 1996 से पत्रकारिता का हिस्सा। अमर उजाला, दैनिक जागरण और हिन्दुस्तान जैसे प्रमुख हिन्दी समाचार पत्रों में 20 वर्षों तक रिपोर्टिंग और एडिटिंग का अनुभव। बच्चों और हर आयु वर्ग के लिए 100 से अधिक कहानियां और कविताएं लिखीं। स्कूलों और संस्थाओं में बच्चों को कहानियां सुनाना और उनसे संवाद करना जुनून। रुद्रप्रयाग के ‘रेडियो केदार’ के साथ पहाड़ के गांवों की अनकही कहानियां लोगों तक पहुंचाईं और सामुदायिक जागरूकता के लिए काम किया। रेडियो ऋषिकेश के शुरुआती दौर में लगभग छह माह सेवाएं दीं। ऋषिकेश में महिला कीर्तन मंडलियों के माध्यम से स्वच्छता का संदेश दिया। जीवन का मंत्र- बाकी जिंदगी को जी खोलकर जीना चाहता हूं, ताकि बाद में ऐसा न लगे कि मैं तो जीया ही नहीं। शैक्षणिक योग्यता: बी.एससी (पीसीएम), पत्रकारिता स्नातक, एलएलबी संपर्क: प्रेमनगर बाजार, डोईवाला, देहरादून, उत्तराखंड-248140 ईमेल: rajeshpandeydw@gmail.com फोन: +91 9760097344

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