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होली के लिए प्राकृतिक रंग बना रहीं ढाई सौ से अधिक महिलाएं

डोईवाला, भानियावाला, रानीपोखरी, अठूरवाला विस्थापित क्षेत्र में समूह बना रहे रंग

डोईवाला। रानीपोखरी, भानियावाला, कान्हरवाला, अठूरवाला विस्थापित क्षेत्र, डोईवाला में ढाई सौ से ज्यादा महिलाएं होली के लिए प्राकृतिक रंग बना रही हैं। प्राकृतिक रंग बनाना अलग-अलग स्वयं सहायता समूहों के लिए आय अर्जन गतिविधि है। साथ ही, यह सिंथेटिक रंगों के इस्तेमाल को रोकने का अभियान भी है।

इस बार होली आठ मार्च को खेली जाएगी। होली शब्द सुनते ही, दिमाग में सबसे पहले रंग और गुलाल का ध्यान आता है। होली का सीधा मतलब रंगों से है। रंग प्राकृतिक वस्तुओं से बने हों, तो पर्यावरण और शरीर को नुकसान नहीं पहुंचाते। पर, सिंथेटिक रंग नुकसान पहुंचाते हैं, इसलिए कुछ वर्षों से लोग प्राकृतिक रंगों की खरीदारी पर ध्यान देने लगे।

डोईवाला ब्लाक का बारूवाला गांव, जो श्री कालू सिद्ध मंदिर मार्ग पर कान्हरवाला में है। यहां नई आशा स्वयं सहायता समूह प्राकृतिक रंग बना रहा है। यह समूह चार साल से वोकल फॉर लोकल (Vocal for Local) को प्रमोट करता है। होली पर प्राकृतिक रंग (Natural color) और दिवाली पर कैंडल बनाता है। इसके साथ, अन्य हैंडमेड सामग्री भी समूह बनाता है।

नई आशा स्वयं सहायता समूह की अध्यक्ष आशा सेमवाल, जो अंग्रेजी और अर्थशास्त्र में पोस्ट ग्रेजुएट हैं। बताती हैं, भानियावाला, अठूरवाला, रानीपोखरी, डोईवाला क्षेत्र में समूहों से जुड़ीं लगभग ढाई सौ महिलाएं प्राकृतिक रंग बना रही हैं।

एक सप्ताह में रोजाना दो घंटे काम करके 50 किलो प्राकृतिक रंग बनाया गया है। उनके समूह में 11 सदस्य हैं। इस बार रंगों की बिक्री से अच्छी आय हासिल होने की उम्मीद है।

आशा सेमवाल, अध्यक्ष नई आशा स्वयं सहायता समूह, बारुवाला, कान्हरवाला

खाद्य पदार्थ आरारोट के साथ सब्जियों और फलों के रंगों को मिलाकर प्राकृतिक रंग तैयार किए गए हैं। चुकंदर, पालक, गेंदे के फूल, मेंहदी का इस्तेमाल रंग बनाने में करते हैं। उनके पास कुल उत्पादन इस बार 50 किलो है, पिछली बार लगभग एक कुंतल रंग बनाया था।

इस बार रंग कम होने की वजह, पिछली बार ट्रेनिंग हासिल करने वाली महिलाएं स्वयं कलर बना रही हैं। यह अच्छी बात है। यह समूह सोशल मीडिया पर उत्पादों को प्रदर्शित करके आर्डर हासिल करता है। आशा सेमवाल बताती हैं, प्राकृतिक रंगों के आर्डर मिल रहे हैं।

समूह की सदस्य भागवती देवी बताती हैं, तीन साल पहले समूह में शामिल हुई थीं, तब से लेकर अब तक कई तरह के उत्पाद बनाना सीखा है और कुछ आय भी हो जाती है। समूह से जुड़ना वास्तव में जीवन में बदलाव लाता है।

Rajesh Pandey

राजेश पांडेय, देहरादून (उत्तराखंड) के डोईवाला नगर पालिका के निवासी है। पत्रकारिता में  26 वर्ष से अधिक का अनुभव हासिल है। लंबे समय तक हिन्दी समाचार पत्रों अमर उजाला, दैनिक जागरण व हिन्दुस्तान में नौकरी की, जिनमें रिपोर्टिंग और एडिटिंग की जिम्मेदारी संभाली। 2016 में हिन्दुस्तान से मुख्य उप संपादक के पद से त्यागपत्र देकर बच्चों के बीच कार्य शुरू किया।   बच्चों के लिए 60 से अधिक कहानियां एवं कविताएं लिखी हैं। दो किताबें जंगल में तक धिनाधिन और जिंदगी का तक धिनाधिन के लेखक हैं। इनके प्रकाशन के लिए सही मंच की तलाश जारी है। बच्चों को कहानियां सुनाने, उनसे बातें करने, कुछ उनको सुनने और कुछ अपनी सुनाना पसंद है। पहाड़ के गांवों की अनकही कहानियां लोगों तक पहुंचाना चाहते हैं।  अपने मित्र मोहित उनियाल के साथ, बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से डेढ़ घंटे के निशुल्क स्कूल का संचालन किया। इसमें स्कूल जाने और नहीं जाने वाले बच्चे पढ़ते थे, जो इन दिनों नहीं चल रहा है। उत्तराखंड के बच्चों, खासकर दूरदराज के इलाकों में रहने वाले बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से ई पत्रिका का प्रकाशन किया।  बाकी जिंदगी की जी खोलकर जीना चाहते हैं, ताकि बाद में ऐसा न लगे कि मैं तो जीया ही नहीं। शैक्षणिक योग्यता - बी.एससी (पीसीएम), पत्रकारिता स्नातक और एलएलबी, मुख्य कार्य- कन्टेंट राइटिंग, एडिटिंग और रिपोर्टिंग

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