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लहसुन नमक की चटनी के साथ खाइए पहाड़ की काखड़ी

पहाड़ में काखड़ी की लंबाई 30 सेमी. से भी अधिक हो सकती है और वजन तीन किलो तक

राजेश पांडेय। न्यूज लाइव

इन दिनों पहाड़ के खेतों में काखड़ी यानी खीरा लग रहा है। बारहनाजा वाले खेतों की मेढ़ों पर लगी बेलों पर काखड़ी लटक रही हैं। यह बरसात में होने वाली खाद्य विविधता का महत्वपूर्ण हिस्सा है, जिसको बड़े चाव से नमक, लहसुन, मिर्च, राई की चटनी के साथ खाया जाता है। इन दिनों हम हल्की धूप में बैठकर काखड़ी का स्वाद ले रहे हैं। खाने के साथ काखड़ी हमारी पहली पसंद बन गई है।

लहसुन, नमक, मिर्च, राई की चटनी के साथ काखड़ी का स्वाद बहुत शानदार है। फोटो- राजेश पांडेय

रुद्रप्रयाग जिला के एक गांव में दिन के भोजन में हमारे लिए कढ़ी चावल बनाया गया। कढ़ी पर, कद्दूकस से कसी हुई काखड़ी परोसी गई थी, जिससे खाने का स्वाद बहुत अच्छा हो गया और खुश्बू भी बढ़ गई। हमारे साथी दिनेश सिंह ने बताया, इसका रायता भी बना सकते हैं। यह खाने को स्वादिष्ट बनाने के साथ स्वास्थ्य के लिए भी बेहतर है। फलासी गांव निवासी दीपक सिंह बताते हैं, हालांकि इन दिनों काखड़ी कम हो गई है, पर यह नवंबर तक खाने को मिलेगी।

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पहाड़ में बेलों पर लगने वाली काखड़ी की लंबाई 30 सेमी. से भी अधिक हो सकती है और वजन तीन किलोग्राम तक हो जाता है। बीज बचाओ आंदोलन के प्रणेता विजय जड़धारी अपनी पुस्तक बारहनाजा में काखड़ी पर विस्तार से बात करते हैं। बताते हैं, जब से हाइब्रिड खीरा आया है, तब से पुराना बीज गड़बड़ हो गया है। बारहनाजा की सार वाली काखड़ी ज्यादा स्वादिष्ट और मीठी होती है।  कुछ काखड़ी की प्रजातियों पर छाल की तरह हल्के कांटे होते हैं, जिन्हें हाथ से ही हटाया जा सकता है।

उनके अनुसार, पकी काखड़ी कई माह तक सुरक्षित रखी जा सकती है, वैसे हरी काखड़ी खाने का आनंद ही अलग होता है। इसको कच्चा भी खाते हैं और रायता बनाकर भी। पर, पकी काखड़ी का रायता ही बनाया जाता है। मार्च – अप्रैल तक जब तक यह सड़े नहीं, इसका रायता खा सकते हैं। इसकी बड़िया भी बनाई जाती हैं।

पहाड़ की काखड़ी के साथ हयात सिंह रावत। फोटो- राजेश पांडेय

विजय जड़धारी काखड़ी को स्वास्थ्य के लिए बेहतर बताते हैं। उनका कहना है, काखड़ी खाने से पेशाब खूब आता है। गुर्दे के रोगियों के लिए यह जोरदार औषधि है। यदि किसी का पेशाब बंद हो जाए तो काखड़ी के बीजों को पीस कर लेप बनाकर पीड़ित की नाभि पर लगाने से पेशाब आ जाता है। काखड़ी खाने से तंबाकू से होने वाल रोग दूर हो जाते हैं।

काखड़ी का पहाड़ के जन जीवन से भावनात्मक संंबंध भी रहा है। भादो के महीने में जब बेटिया ससुराल से मायके आती हैं, तब काखड़ी उनकी स्मृति में शामिल होती है। एक कहावत का जिक्र करते हुए हैं, काखड़ी की चोरी नहीं मानी जाती, इसलिए सभी बच्चे एक दूसरे के खेत से काखड़ी जरूर चुरा लेते थे। पहले के समय में खेतों में इतनी काखड़ी होती थी कि किसानों को इस बात की परवाह नहीं होती थी कि काखड़ी कौन ले गया। यह मेलजोल का प्रतीक थी।

Rajesh Pandey

राजेश पांडेय, देहरादून (उत्तराखंड) के डोईवाला नगर पालिका के निवासी है। पत्रकारिता में  26 वर्ष से अधिक का अनुभव हासिल है। लंबे समय तक हिन्दी समाचार पत्रों अमर उजाला, दैनिक जागरण व हिन्दुस्तान में नौकरी की, जिनमें रिपोर्टिंग और एडिटिंग की जिम्मेदारी संभाली। 2016 में हिन्दुस्तान से मुख्य उप संपादक के पद से त्यागपत्र देकर बच्चों के बीच कार्य शुरू किया।   बच्चों के लिए 60 से अधिक कहानियां एवं कविताएं लिखी हैं। दो किताबें जंगल में तक धिनाधिन और जिंदगी का तक धिनाधिन के लेखक हैं। इनके प्रकाशन के लिए सही मंच की तलाश जारी है। बच्चों को कहानियां सुनाने, उनसे बातें करने, कुछ उनको सुनने और कुछ अपनी सुनाना पसंद है। पहाड़ के गांवों की अनकही कहानियां लोगों तक पहुंचाना चाहते हैं।  अपने मित्र मोहित उनियाल के साथ, बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से डेढ़ घंटे के निशुल्क स्कूल का संचालन किया। इसमें स्कूल जाने और नहीं जाने वाले बच्चे पढ़ते थे, जो इन दिनों नहीं चल रहा है। उत्तराखंड के बच्चों, खासकर दूरदराज के इलाकों में रहने वाले बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से ई पत्रिका का प्रकाशन किया।  बाकी जिंदगी की जी खोलकर जीना चाहते हैं, ताकि बाद में ऐसा न लगे कि मैं तो जीया ही नहीं। शैक्षणिक योग्यता - बी.एससी (पीसीएम), पत्रकारिता स्नातक और एलएलबी, मुख्य कार्य- कन्टेंट राइटिंग, एडिटिंग और रिपोर्टिंग

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