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27 साल से बकरियां पाल रही हूं, पर लॉकडाउन के बाद से एक भी नहीं बिकी

अब रोजगार के लिए हम कहीं ओर नहीं जा सकते, बकरियों पर ही हमारी निर्भरताः कमला देवी

राजेश पांडेय। न्यूज लाइव

“हम सुबह छह बजे बकरियों को लेकर ऊंची पहाड़ियों की ओर निकल जाते हैं और दोपहर 11-12 बजे तक घर लौटते हैं। भोजन के बाद कुछ देर आराम करते हैं और दोपहर बाद एक बार फिर पास के मैदानों में बकरियों को चराने ले जाते हैं। हमारा पूरा दिन बकरियों के साथ बीतता है। हम बकरियों पर निर्भर हैं। ये हमारा सबकुछ हैं। पर, पिछले लॉकडाउन के बाद से मेरी एक भी बकरी नहीं बिकी। बकरियां नहीं बिकने से हमारे सामने बहुत सी दिक्कतें हैं। 27 साल से बकरी पालन और खेतीबाड़ी कर रहे हैं, अब रोजगार के लिए हम कहीं ओर नहीं जा सकते।”

रुद्रप्रयाग जिला की क्यूड़ी ग्राम सभा के ढिमकला गांव की 67 वर्षीय कमला देवी रेडियो केदार के साथ साक्षात्कार में अपने संघर्ष पर बात कर रही थीं। उनके साथ 61 वर्षीय रघुवीर सिंह चौहान, जो लगभग 40 साल से बकरी पालन से जुड़े हैं, ने भी तमाम संभावनाओं और चुनौतियों पर अनुभवों को साझा किया।

इससे पहले हम बात करते हैं, कमला देवी और रघुबीर सिंह से अपनी मुलाकात की।

खड़पतिया गांव के सीढ़ीदार खेतों से होते हुए सामने दिख रहे पहाड़ के शिखर तक पहुंचना हर किसी के बस की बात नहीं है। मेरे बस की बात तो बिल्कुल भी नहीं, क्योंकि मुझे तो शहर की सड़कों पर एक या दो किमी. तक पैदल चलना भी पसंद नहीं है। खैर, हम पहुंच ही गए पहाड़ पर बनाए गए जोखिमभरे रास्ते से होते हुए हरी घास के बुग्याल से दिखने वाले मैदान पर। धूप में पहाड़ चढ़ने पर पसीने से भीगे शरीर को ठंडी हवा मिल जाए तो सबकुछ भूल जाने का मन करता है। हुआ भी यही, हरेभरे मैदान को देखकर खुद से कहा, यहीं रुक जाते हैं। रही बात पहाड़ पर चढ़ने, वो हमसे नहीं हो पाएगा।

हम मैदान में बैठकर ही नैनीदेवी मंदिर वाले पहाड़ के शिखर को देख रहे थे और साथ ही, उन कच्चे रास्तों को भी, जिनसे होते हुए लोग पहाड़ की सबसे ऊंची चोटी तक का सफर करते हैं। बताया जाता है, ये कच्चे रास्ते अंग्रेजों के समय के हैं। इनसे होते हुए बड़े पहाड़ के दूसरे पार पहुंच सकते हैं।

हम वहीं बैठकर कमला देवी, रघुबीर सिंह, जसबीर सिंह और उनकी बकरियों को देखना चाह रहे थे। खड़पतिया गांव के लिए धर्वेंद्र सिंह बिष्ट ने पहाड़ की ओर इशारा करते हुए कहा, वो देखो… कमला देवी जी दिख रही हैं। वो इतनी ऊंचाई पर थीं कि मै उनको नहीं देख पा रहा था। काफी कोशिश के बाद मुझे शिखर से नीचे की ओर उतरती हुई आकृति दिखाई दी, जो इतनी दूर से किसी रेखा (लाइन) की मानिंद नजर आ रही थी। मेरे लिए नीचे उतरतीं बकरियां ब्लैक और व्हाइट स्पॉट की तरह थीं। क्या बकरियों को चारे के लिए इतनी दूर ले जाना सही है। चारा तो यहीं मैदान में, आसपास के खेतों में मिल सकता है। ये लोग इतना दूर क्यों जाते हैं।

धर्वेंद्र बताते हैं, बकरियों को संभालना मुश्किल काम है। यहां गांव में बकरी पालन करने वाले किसानों की संख्या ज्यादा है। यहां खेतों के किनारे उगी घास बकरियां ही चरती हैं। इन दिनों निचले हिस्सों में घास नहीं है, जितना ज्यादा ऊंचाई पर जाओगे, जानवरों को भरपेट हरी और पौष्टिक घास मिल जाएगी। “वैसे बकरियों का पेट कभी नहीं भरता,” वो हंसते हुए कहते हैं।

उन्होंने बताया कि सुबह ऊंचाई वाले स्थानों पर जाने वाले लोग शाम को यहीं निचले हिस्से में बकरियां चराते हैं। वैसे बकरियों के साथ एक बात तो राहत वाली है, उनको चराने के अलावा अलग से कुछ चारा खिलाने की आवश्यकता कम ही होती है।

हमारी बातचीत चल ही रही थी, पहाड़ पर कच्चे रास्ते पर लगभग सौ से ज्यादा बकरियों के साथ कमला देवी सहित चार लोग नीचे ढलान पर उतर रहे थे। कुछ ही देर में हम उनके साथ थे।

पहाड़ पर चरने के बाद घर की ओर लौटता बकरियों का झुंड। फोटो- धर्वेंन्द्र सिंह

बकरियों के झुंड आगे बढ़ रहे थे और उनके पालक पीछे-पीछे चल रहे थे। बकरियों को मालूम है कि उनका घर किस रास्ते पर है, इसलिए उनके झुंड अपने घर के रास्तों पर बंटते चले गए। जसबीर सिंह की बकरियां उनके घर वाले रास्ते पर मुड़ गईं। कमला देवी और रघुबीर सिंह के घर आसपास हैं, इसलिए उनकी बकरियां एक साथ आगे बढ़ रही हैं। रघुबीर सिंह बताते हैं, पशुओं को अपने ठिकाने और अपने अपने झुंड में शामिल दूसरे पशुओं की पहचान रहती है।

अपने घर के बरामदे में हमारे साथ, अपने अनुभवों को साझा करते हुए कमला देवी बताती हैं, सुबह सात बजे घर से निकलते हैं। बकरियों को लेकर पूरा जंगल घूमते हैं और 12 बजे घर पहुंचते हैं। रास्ते में कभी प्यास लगती है, कभी भूख लगती है। कहीं चारा मिलता है, कहीं नहीं मिलता। हम थक जाते हैं। जंगली जानवरों, सबसे ज्यादा शेर (पहाड़ में अधिकतर ग्रामीण गुलदार को शेर बोला जाता है) का खतरा रहता है। एक दिन शेर ने बकरी पर हमला कर दिया। हम घबरा गए। वो ओर भी आने लगा था। हम किसी तरह बचकर निकल गए और छिप गए। करीब एक घंटा बाद उस जगह पहुंचे तो बकरी मरी पड़ी थी। हमें बकरी के मारे जाने का बहुत दुख हुआ, क्योंकि बकरियां हमारे लिए महत्वपूर्ण हैं। हम इन पर ही आश्रित हैं।

“अब शरीर बुढ़ाने लगा है। गुजर बसर तो करनी है, इसलिए मजबूरी में बकरियों को चराने के लिए जाते हैं। दुख तकलीफ, किसी शादी विवाह में जाने की नहीं सोचते। स्वास्थ्य बहुत ज्यादा खराब हो, तब परिवार से कोई बकरियां चलाना जाता है। बकरियों को आप बांधकर नहीं रख सकते। इनको प्रतिदिन चारे वाले स्थान तक लेकर जाना होता है,” कमला देवी बताती हैं।

रघुबीर सिंह बताते हैं, बकरी छह माह में बच्चा देती है, उसी को पालते पोसते हैं। एक-डेढ़ साल इनको पालते हैं। बकरियां बेचने के लिए कोई बाजार नहीं है और न ही हमारे से किसी ने समय-समय पर बकरियां खरीदने का वादा किया है। जिसको भी जरूरत है, बकरियां खरीदने घर पर ही आ जाता है। कुछ लोग बकरियों के छोटे बच्चों को पालने के लिए खरीदते हैं, इनको मीट के लिए बेचना पाप है।

कहते हैं, जंगलों में कई बार ऐसा हुआ, जब गुलदार ने बकरियों को मार दिया। हमें भी उससे बहुत डर रहता है। बकरियां हमारे परिवार का पालन पोषण करती हैं। हमारा परिवार इनसे चलता है। हमारे पास नौकरी नहीं है, कोई नौकरी के लिए कहीं भी जाए, पर हम यहीं हैं। हमें कहां जाना है, हमारा जो भी कुछ हैं बकरियां हैं।

रघुबीर सिंह मानते हैं, बकरी पालन खेती का मजबूत विकल्प है, बशर्ते इसमें मेहनत और सावधानियां बरती जाएं। पर, इसमें दिक्कतें भी आ रही हैं। आय के सवाल पर उनका कहना है, आय क्या होनी, लॉकडाउन के बाद से इसकी बिक्री बहुत कम हो गई। कभी छह माह में, सालभर में कोई बकरी बिक पाती है। हमारे पास बकरियों की संख्या बढ़ रही है, वो इसलिए क्योंकि ये बिक नहीं रही हैं।

रघुबीर सिंह की पुत्रवधू संतोषी बताती हैं, आजीविका का प्रमुख स्रोत बकरी पालन के अलावा खेतीबाड़ी है, जिसमें मंडुआ, आलू, झंगोरा, दालें, सब्जियां बोई जा रही हैं। गांव में यही सबकुछ होता है।

“ऊंचाई वाले खड़पतिया जैसे इलाकों में जहां बर्फबारी बहुत होती है, में दिसंबर और जनवरी माह में बकरियों को उनके बाड़ों में ही बंद रखा जाता है। उनके आहार का पहले से इंतजाम किया जाता है, जिसमें सोयाबीन, झंगोरा, काफल, बुरांस, पयां की पत्तियां, टहनियां शामिल हैं। कभी कभार बकरियों को दो-तीन दिन तक भूखा रहना पड़ता है, वो रह लेती हैं। स्थिति थोड़ी सही रहने पर ही बकरियों को बाहर निकालते हैं, तब तक वो स्टोर किया अनाज ही खाती हैं, ” रघुबीर सिंह बताते हैं।

“कभी कभी यह सोचकर गुस्सा आ जाता है कि हम यह क्या कर रहे हैं। बुढ़ापे में ताकत भी नहीं है, इतना चलने की। घर आकर एक घंटा आराम करती हूं और फिर खाना खाती हूं। पैरों में बहुत दर्द होता है, मजबूरी है बकरियों के साथ जाना। लॉकडाउन में जब लोग बड़े शहरों से अपने घरों की ओर वापस आ रहे थे, मैं रोजाना की तरह बकरी पालन के रोजगार को आगे बढ़ा रही थी। हम अपने घर को छोड़कर नहीं जाना चाहते। लॉकडाउन के समय मेरे पास 11 बकरियां थीं, इस समय 25 हो गईं। पर, बकरियां नहीं बिकने से हम आर्थिक संकट में हैं। परेशानियों में दिन बिता रहे हैं। निराशा होती है, पर क्या करें। हमें तो यहीं रहना है, यहां से कहां जाना है, ” कमला देवी कहती हैं।

Rajesh Pandey

राजेश पांडेय, देहरादून (उत्तराखंड) के डोईवाला नगर पालिका के निवासी है। पत्रकारिता में  26 वर्ष से अधिक का अनुभव हासिल है। लंबे समय तक हिन्दी समाचार पत्रों अमर उजाला, दैनिक जागरण व हिन्दुस्तान में नौकरी की, जिनमें रिपोर्टिंग और एडिटिंग की जिम्मेदारी संभाली। 2016 में हिन्दुस्तान से मुख्य उप संपादक के पद से त्यागपत्र देकर बच्चों के बीच कार्य शुरू किया।   बच्चों के लिए 60 से अधिक कहानियां एवं कविताएं लिखी हैं। दो किताबें जंगल में तक धिनाधिन और जिंदगी का तक धिनाधिन के लेखक हैं। इनके प्रकाशन के लिए सही मंच की तलाश जारी है। बच्चों को कहानियां सुनाने, उनसे बातें करने, कुछ उनको सुनने और कुछ अपनी सुनाना पसंद है। पहाड़ के गांवों की अनकही कहानियां लोगों तक पहुंचाना चाहते हैं।  अपने मित्र मोहित उनियाल के साथ, बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से डेढ़ घंटे के निशुल्क स्कूल का संचालन किया। इसमें स्कूल जाने और नहीं जाने वाले बच्चे पढ़ते थे, जो इन दिनों नहीं चल रहा है। उत्तराखंड के बच्चों, खासकर दूरदराज के इलाकों में रहने वाले बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से ई पत्रिका का प्रकाशन किया।  बाकी जिंदगी की जी खोलकर जीना चाहते हैं, ताकि बाद में ऐसा न लगे कि मैं तो जीया ही नहीं। शैक्षणिक योग्यता - बी.एससी (पीसीएम), पत्रकारिता स्नातक और एलएलबी, मुख्य कार्य- कन्टेंट राइटिंग, एडिटिंग और रिपोर्टिंग

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