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क्या आपने कभी सोचा है कि आपकी कमीज में लगा प्लास्टिक का बटन कहां से आया…

  • प्लास्टिक में स्किल से लेकर रोजगार का सफर यहां से शुरू होता है
  • उत्तराखंड के डोईवाला में स्थित सिपेट में हैं प्लास्टिक के क्षेत्र में रोजगार और स्वरोजगार की तमाम संभावनाएं
कमरे में बल्ब जलाने के लिए आप स्विच ऑन करते हैं। एक से बढ़कर एक डिजाइन वाले स्विच देखने को मिलते हैं। कपड़ों में लगनेवाले आकर्षक रंगों के बटन, हेयर बैंड, पेपर क्लिप, बहुत तरह के डिजाइन व फंक्शनवाले खिलौने और भी न जाने कितनी वस्तुओं को हम रोजाना इस्तेमाल करते हैं। आपकी कारका डैशबोर्ड, मोबाइल, लैपटॉप की बॉडी, उनके कवर, लंच बॉक्स…. गिनाते गिनाते हम और आप थक जाएंगे कि प्लास्टिक से बनी कितनी वस्तुओं का प्रयोग दैनिक जीवन में करतेहैं। सच बात तो यह है कि प्लास्टिक हमारे जीवन का हिस्सा बन गई है।
मैं अक्सर सोचता हूं कि ये बनते कैसे होंगे। कौन सोचता होगा कि लंच बॉक्स को इस तरह बनाया जाए। स्कूटी के मड गार्ड का डिजाइनकुछ अलग होना चाहिए। मान लिया कि फैक्ट्री में बनते हैं, पर इनको किसी ने तोडिजाइन किया होगा। फैक्ट्रियों में भी तो चीजें तभी बनती हैं, जब कोई इन पर कामकरता है। आखिर प्लास्टिक के छोटे-छोटे कणों, जिनको हम सामान्य तौर पर दाना कहतेहैं, उनसे काम की चीजें कैसे बनती हैं।
चलिए मान लेते हैं कि प्लास्टिक को पिघलाकर तरह तरह का सामान बनाया जाता है, पर क्या प्लास्टिक को पिघलाकर सांचे मेंढालनेभर से हम कोई उत्पाद बना सकते हैं। हम यह बात भी स्वीकार कर लेते हैं कि आपने प्लास्टिक को पिघला लिया और सांचे में डालकर एक लंच बॉक्स बना लिया। हमने आप से यहभी नहीं पूछा कि आपके पास लंच बाक्स का कोई डिजाइन है या नहीं, आपने सांचा कैसे बनाया, हम तमाम तकनीकी बातों को नजर अंदाज कर देते हैं।
आपने जो लंच बॉक्स बनाया,क्या यह आकर्षक है, क्या यह सही तरीके से खुल या बंद हो रहा है। इसकी कीमत क्याहै। हम सभी जानते हैं कि बाजार में बिकने वाले उत्पाद के लिए उनका आकर्षक लुक, डिजाइन,जरूरत के अनुसार आसान फंक्शन और कीमत, ये सभी बहुत मायने रखते हैं। क्या आपने घरपर जो लंच बॉक्स बनाया है, वो इन शर्तों को पूरा करता है, अगर नहीं तो समझ लीजिए, प्लास्टिक के किसी भी प्रोडक्ट को बनाना उतना आसान नहीं है, जितना कि हम समझते हैं।
आपकी, हमारी कमीज में लगा छोटा सा बटन भी,डिजाइन से लेकर उत्पादन, क्वालिटी चेक, मार्केटिंग सहित कई प्रक्रियाओं से होते हुए हम तक पहुंचा है। मेरा सवाल अभी भी बरकरार है, ये सब बनता कैसे है। इनको बनानेका स्किल कहां से आता है। क्या मैं सीख सकता हूं, क्या इन सब बातों को जानने केलिए बहुत ज्यादा तकनीकी होने की जरूरत है।
हमें पता चला कि प्लास्टिक से आकर्षकप्रोडक्ट बनाने की इंजीनियरिंग, तकनीकी स्किल से रोजगार की संभावनाओं को जानना हैतो सेंट्रल इंस्टीट्यूट ऑफ प्लास्टिक इंजीनियरिंग एंड टेक्नोलॉजी, जिसे हम सामान्यतौर पर सिपेट कहते हैं, में जाना चाहिए।
सिपेट उत्तराखंड के देहरादून जिला स्थितडोईवाला नगर पालिका क्षेत्र में है। भारत सरकार और उत्तराखंड सरकार की भागीदारी से 2018 में स्थापित सिपेट में उत्तराखंड के युवाओं के 80 फीसदी सीटें हैं। शॉर्टटर्म कोर्स में सभी सीटें उत्तराखंड के युवाओं के लिए हैं।
सिपेट में प्लास्टिक इंजीनियरिंग औरटेक्नोलॉजी के तीन साल के डिप्लोमा कोर्स में प्रवेश प्रक्रिया और योग्यता पर बातकरने से पहले हम शॉर्ट टर्म स्किल डेवलपमेंट के पाठ्यक्रमों पर चर्चा करते हैं। येपाठ्यक्रम 40 घंटे या उससे अधिक या एक महीने से तीन या छह माह की अवधि वाले हैं।
सिपेट में डिप्लोमा, कौशल विकास के पाठ्यक्रमों के संचालन के साथ ही प्लास्टिक उत्पाद भी बनते हैं। इनके लिए ठीक किसी उद्योग की तरह ऑटोमैटेड कंप्यूटराइज्ड मशीनें यहां स्थापित हैं।सबसे अच्छी बात यह है कि युवाओं को यहां प्लास्टिक के किसी भी प्रोडक्ट को रॉमैटिरियल से लेकर मैन्युफैक्चरिंग तक के विभिन्न पड़ावों, उनमें इस्तेमाल तकनीकी, परिकल्पनासे लेकर डिजाइनिंग, ग्राफिक्स को जानने का अवसर मिलता है। यही वजह है कि इंडस्ट्रीमें इन युवाओं की मांग होती है।
सिपेट में शॉर्ट टर्म कोर्स के लिएउत्तराखंड के किसी भी जिले से युवा कभी भी आकर एडमिशन ले सकते हैं। स्किल डेवलपमेंट के ये प्रोग्राम नेशनल स्किल्स क्वालिफिकेशन फ्रेमवर्क (एनक्यूएफ) सेसंबद्ध होने के साथ नेशनल स्किल्स क्वालिफिकेशन कमेटी (एनएसक्यूसी) से एप्रूव्डहै।
तक धिनाधिन की टीम ने डोईवाला स्थित सिपेट केनिदेशक नरेंद्र कुमार गुप्ता से शॉर्ट टर्म पाठ्यक्रम में प्रवेश प्रक्रिया सेलेकर स्किल डेवलपमेंट तथा इससे रोजगार व स्वरोजगार की संभावनाओं पर बात की। उन्होंने बताया कि किसी कारण से पढ़ाई जारी नहीं रख पाने वाले बच्चे, जो 18 साल की उम्र पूरी कर चुके हैं और आठवी कक्षा पास हैं, को सिपेट में दाखिला मिलता है। दाखिला कभी भी ले सकते हैं।

सिपेट में स्किल डेवलपमेंट पाठ्यक्रम प्रेक्टिकल ओरिएंटेड हैं। संस्थान में युवाओं को जिन मशीनों पर ट्रेनिंग दी जातीहैं, वहीं मशीनें इंडस्ट्रीज में भी हैं। इस बात का लाभ युवाओं को इंडस्ट्री में रोजगार मिलने में मिलता है, यदि मेहनत और लगन से ट्रेनिंग हासिल की जाती है। हमारे पास इंडस्ट्रीज से प्लेसमेंट के लिए डिमांड आती है।
अगर,कोई युवा अपना रोजगार भी शुरू करना चाहता है तो संस्थान से उनकी मदद की जाती है। उन्होंने बताया कि शॉर्ट टर्म पाठ्यक्रमके लिए कोई फीस नहीं ली जाती। एडमिशन पाने वाले बच्चों के लिए खाना, रहना सबनिशुल्क है। संस्थान के पास अपना छात्रावास भी है। अभी इसके विस्तार पर भी कार्यचल रहा है। उनका कहना है कि प्रवेश के इच्छुक छात्र उत्तराखंड का निवासी होने केसाथ एससी या एसटी या ओबीसी या आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (ईडब्ल्यूएस) का होनाआवश्यक है।
अभी तक संस्थान से 90 युवा शॉर्ट टर्मप्रोग्राम में शामिल हो चुके हैं, जबकि लगभग 150 युवा वर्तमान में कोर्स में इनरॉल हैं। फिलहाल कोविड-19 की वजह से ट्रेनिंग नहीं चल रही हैं। वहीं डिप्लोमा कोर्स के175 विद्यार्थियों को ऑनलाइन क्लासेज में पढ़ाया जा रहा है।
हमें सिपेट में यह जानने का अवसर मिला कि हमारे पास पहुंचने वाले प्लास्टिक के प्रोडक्ट, वो चाहे कार का डैश बोर्ड हो याफिर कोई खिलौना ही क्यों न हो, उसको बनाने में इंजीनियर्स, टेक्निशियन्स, प्रोडक्ट डिजाइनर्स, ग्राफिक एक्सपर्ट्स और वर्कर्स की टीम कैसे काम करती है। इस तरह केप्रोडक्ट्स बनाने में किस तरह की मशीनें काम करती होंगी।
हमने डिजाइन थिंकिंग के बारे में सुना है,जिसका मतलब सीधे तौर पर मैं यही समझा हूं कि पहले हम जरूरत को समझते हैं और फिरसमाधान के लिए प्रोडक्ट पर काम करते हैं। प्रोडक्ट के डिजाइन से लेकर उसको फंक्शनल करने के लिए अलग-अलग फील्ड और एक्सपर्टिज काम करती है। किसी प्रोडक्ट को बनाने मेंइंजीनियरिंग की विविध विशेषज्ञता की आवश्यकता होती है। मैकेनिकल, कैमिकल, रोबोटिक,इलेक्ट्रिकल, इलेक्ट्रोनिक्स, ग्राफिक डिजाइनिंग, मैटिरियल साइंस सहित तमाम क्षेत्रमिलकर काम करते हैं। यह सब सिपेट में भी होता है।
हमने सिपेट में स्कूटी के मड गार्ड,पानी की टंकियों, बैग के व्हील बनते देखे। प्लास्टिक के उत्पाद बनाने के लिए प्लास्टिक दाना का इस्तेमाल करते हैं। यह दाना प्लास्टिक स्क्रैपको रिसाइकिल करके बनाया जाता है। दाने को पाउडर में बदलकर मशीनों के माध्यम से प्रोडक्ट के आकार में ढाला जाता है। स्क्रैप से दाना और पाउडर बनाने की प्रक्रियाआटोमैटेड मशीनों से निर्धारित तापमान में पूरी होती है।
प्रोडक्ट की ग्राफिक डिजाइन से लेकर प्रोडक्ट की शेप और साइज पर बहुत फोकस होता है। जरा सी गलती का मतलब प्रोडक्शन लॉस। युवा स्किल डेवलपमेंट की ट्रेनिंग के दौरान यह सब कुछ सीखते हैं। प्रोडक्ट की क्वालिटी को विविध मानकों पर चेक किया जाता है। इसके बाद ही उसको ओके किया जाताहै।
सिपेट के उपनिदेशक अभिषेक राजवंश का कहनाहै कि प्लास्टिक इंजीनियरिंग मेंअसीमित संभावनाएं हैं। अभिषेक राजवंश शुरुआत से ही देहरादून सिपेट सेंटर के संचालन से जुड़े हैं। उन्होंने हमें प्लास्टिक मॉल्ड टेक्नोलॉजी और प्लास्टिक टेक्नोलॉजी पर तीन-तीन वर्ष के डिप्लोमा कोर्स के बारे में बताया। मैथ, साइंस और इंगलिश विषयों के साथ दसवीं कक्षा के बाद एंट्रेस परीक्षा में बैठ सकते हैं। इन पाठ्यक्रमों में संयुक्त प्रवेश परीक्षा(जेईई) के माध्यम से प्रवेश मिलता है।
साइंस और मैथ विषयों के साथ 12वीं पास याटर्नर, मशीनिस्ट, फिटर, टूल एंड डाइमेकिंग आदि कुछ खास ट्रेड में आईटीआई वाले युवाओंके लिए ये डिप्लोमा कोर्स तीन की बजाय दो साल के लिए हैं। इन युवाओं को लेटरलएंट्री सीधे दूसरे वर्ष में प्रवेश मिलेगा। प्रवेश के लिए आईटीआई में प्राप्तअंकों को आधार बनाया जाता है। रिजल्ट की प्रतीक्षा कर रहे छात्र भी आवेदन कर सकतेहैं। प्रवेश के लिए प्रक्रिया है, जिसका पालन करना होता है। डिप्लोमा कोर्स और इसमेंप्रवेश की पूरी जानकारी सिपेट की वेबसाइट www..cipet.gov.in पर मिल जाएगी।
प्लास्टिक के प्रोडक्ट यानी जिस की-बोर्ड परजोर-जोर से अंगुलियां चला रहा हूं या यह सब कुछ टाइप कर रहा हूं और माउस जिसकी मददसे पेज को ऊपर नीचे कर रहा हूं, वो भी प्लास्टिक से बना है और मेरी टेबल, मेरापैन, बिजली का स्विच, स्विच बोर्ड, प्लास्टिक से बनी मेरी कुर्सी… का निर्माणकैसे हुआ होगा, मैं अंदाजा लगा सकता हूं, क्योंकि मैंने आज सिपेट को देखा है।

मैं तो यही कहूंगा कि प्लास्टिक को जानो,उसको उपयोगी बनाने की दक्षता को हासिल करो, तभी तो हम अपना पर्यावरण और स्वयं को बचासकेंगे। एक बात और जो मेरी समझ में आई है, वो यह कि, गलती प्लास्टिक की नहीं है, हमारीहै, क्योंकि हम उसको समझ नहीं पाए और उसको सही तरह से निस्तारित ही नहीं करते। अगर प्लास्टिक का सही निस्तारण हो, तो वो रिसाइकलिंग के लिए सही जगह पहुंचेगी और फिरस्क्रैप से दाना, पाउडर और फिर आपके घर में कोई उपयोगी वस्तु बनकर दिखेगी।
वरिष्ठ पत्रकार संजय शर्मा कहते हैं कि नदियों में प्लास्टिक कचरा आने की सबसे बड़ी वजह यही है कि घर पर ही प्लास्टिक का निस्तारण नहीं हो रहा है। प्लास्टिक कचरा यहां वहां फेंका जा रहा है। इसका हमारे स्वास्थ्य पर असर पड़ता है। प्लास्टिक हमारी दिनचर्या का हिस्सा है। हमें प्लास्टिक के प्रति अपनी भूमिका को समझना होगा। सिपेट में शॉर्ट टर्म ट्रेनिंग प्रोग्राम में सीखने से रोजगार की संभावनाएं प्रबल हैं। तकधिनाधिन की इस पहल को सक्षम पांडेय ने कैमरे में कवरेज किया।
सिपेट भारतसरकार के रसायन एवं उवर्रक मंत्रालय के अधीन कैमिकल्स एंड पेट्रोकैमिकल्स विभाग का संस्थान है। उत्तराखंड में सिपेट सेंटर ऋषिकेश और हरिद्वार से देहरादून जाते समय हाईवे पर डोईवाला में स्थित है। अधिक जानकारी के लिए आप 0135-2695075,7457001353 पर संपर्क कर सकते हैं।
पर्यावरण को बचाने के लिए प्लास्टिक का सही तरीके से निस्तारण करें। क्या आपको मालूम है कि संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी) की एकरिपोर्ट में कहा गया हैकि दुनिया में हर साल लगभग 80 लाख टन प्लास्टिक कचरा समुद्रों में फेंका जाता है।इसका मतलब यह हुआ कि हर मिनट प्लास्टिक कचरे से भरा एक बड़ा ट्रक समुद्र में फेंका जा रहा है। इससे समुद्रों में कचरे से 800 से भी ज़्यादा प्रजातियों के लिए ख़तरा पैदा होता है, इनमें से 15 प्रजातियाँ विलुप्ति के कगार पर हैं।
तकधिनाधिन में बस इतना ही, फिर मिलते हैं, किसी और पड़ाव पर। तब तक के लिए बहुत सारी शुभकामनाओं का तक धिनाधिन।

Rajesh Pandey

राजेश पांडेय, देहरादून (उत्तराखंड) के डोईवाला नगर पालिका के निवासी है। पत्रकारिता में  26 वर्ष से अधिक का अनुभव हासिल है। लंबे समय तक हिन्दी समाचार पत्रों अमर उजाला, दैनिक जागरण व हिन्दुस्तान में नौकरी की, जिनमें रिपोर्टिंग और एडिटिंग की जिम्मेदारी संभाली। 2016 में हिन्दुस्तान से मुख्य उप संपादक के पद से त्यागपत्र देकर बच्चों के बीच कार्य शुरू किया।   बच्चों के लिए 60 से अधिक कहानियां एवं कविताएं लिखी हैं। दो किताबें जंगल में तक धिनाधिन और जिंदगी का तक धिनाधिन के लेखक हैं। इनके प्रकाशन के लिए सही मंच की तलाश जारी है। बच्चों को कहानियां सुनाने, उनसे बातें करने, कुछ उनको सुनने और कुछ अपनी सुनाना पसंद है। पहाड़ के गांवों की अनकही कहानियां लोगों तक पहुंचाना चाहते हैं।  अपने मित्र मोहित उनियाल के साथ, बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से डेढ़ घंटे के निशुल्क स्कूल का संचालन किया। इसमें स्कूल जाने और नहीं जाने वाले बच्चे पढ़ते थे, जो इन दिनों नहीं चल रहा है। उत्तराखंड के बच्चों, खासकर दूरदराज के इलाकों में रहने वाले बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से ई पत्रिका का प्रकाशन किया।  बाकी जिंदगी की जी खोलकर जीना चाहते हैं, ताकि बाद में ऐसा न लगे कि मैं तो जीया ही नहीं। शैक्षणिक योग्यता - बी.एससी (पीसीएम), पत्रकारिता स्नातक और एलएलबी, मुख्य कार्य- कन्टेंट राइटिंग, एडिटिंग और रिपोर्टिंग

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