राजेश पांडेय। न्यूज लाइव ब्लॉग
डोईवाला के पी.सी, भाई इन दिनों सोशल मीडिया पर पॉपुलर हो रहे हैं। आपको बता दें, डोईवाला ही नहीं आसपास के इलाकों में पी.सी. भाई के नाम से पहचान बनाने वाले इन शख्स का नाम सुरेश चंद है। वो खुद कहते हैं, “मेरा नाम पी.सी. नहीं, सुरेश चंद है। पी.सी. नाम तो आप सभी ने प्यार से दिया है। पीसी नाम के पीछे की भी एक कहानी है।”
पी.सी. भाई के नाम के पीछे की कहानी बताने से पहले आपको बताते हैं, उनके कामकाज के बारे में और इसके बाद उनके उस संघर्ष को बताएंगे, जिसे सुनकर हर कोई भावुक हो जाएगा।
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पी.सी. भाई घर हो दुकान या फिर कोई प्रतिष्ठान, वहीं जाकर बिजली का काम करते हैं। उनके पास अपनी कोई दुकान नहीं है, एक बैग है, जिसमें कुछ टूल्स हैं, जिसके सहारे आप आजीविका की गाड़ी को आगे बढ़ा रहे हैं। आपके पास कस्टमर्स की लंबी लिस्ट है।
अब आपको सुरेश चंद (पी.सी. भाई) के ही हवाले से इस नाम के पीछे की कहानी बताते हैं। हुआ यह कि पढ़ाई के दौरान उनके एक दोस्त का सब मजाक उड़ाते थे। उसके लिए, दोस्त जिस शब्द इस्तेमाल करते थे, वो हम आपको नहीं बता सकते, पर सुरेश चंद ने सबको टोकना शुरू किया और कहा, “तुम चाहो तो इस दोस्त का नाम पी.सी. रख सकते हो, पर उस शब्द का इस्तेमाल नहीं करोगे, जो अक्सर करते हो।”
अब हुआ क्या, कुछ समय बाद वो दोस्त तो डोईवाला छोड़कर किसी दूसरे शहर में चला गया, पर उसके लिए सुझाया गया नाम सुरेश चंद का पीछा ही नहीं छोड़ रहा। दोस्तों ने सुरेश चंद को पी.सी. कहकर पुकारना शुरू कर दिया।
वो हंसते हुए बताते हैं, “मेरी जब भी कोई किसी से मुलाकात कराता है तो कहता है, इनसे मिलिए ये हैं पी.सी. भाई। मैं अपना सही नाम सुरेश चंद बताता हूं तो लोग ध्यान ही नहीं देते। वो तो सब मुझे पी.सी. भाई ही कहते हैं।”
अपने जीवन में सुरेश चंद ने बहुत संघर्ष किया। 1992 में हाईस्कूल में पढ़ रहे थे। पिता जिस फैक्ट्री में सेवाएं दे रहे थे, वो फैक्ट्री बंद हो गई। कुछ समय तक तो इस आस में बचत के सहारे बिता लिए, कि फैक्ट्री फिर से शुरू हो जाएगी। पिता को किसी और जगह काम मिल जाएगा, पर ऐसा नहीं हो पाया।
बताते हैं ” मैं उस समय हाईस्कूल में था, घर में रोजगार का कोई साधन नहीं था। हाईस्कूल पास नहीं हो सका, क्योंकि मुझे घर को सहारा देने के लिए बाहर निकलना पड़ा। भाई बीएस.सी कर रहा था, जिसको मैंने केवल पढ़ाई पर ध्यान देने को कहा।”
“मैंने रंगाई पुताई करने वाले व्यक्ति से संपर्क किया। उन्होंने दस रुपये प्रतिदिन पर काम दिया। पांच दिन में ही हाथों में खुरदरापन आ गया। शरीर दुखने लगा। यह काम मेरे बस का नहीं है, कहकर मैंने उनको मना कर दिया। उस समय आयु लगभग 16 साल होगी।”
“इसके बाद छोटे बल्ब बनाने वाली फैक्ट्री में काम किया, पर ज्यादा नहीं चल सका। ठेकेदारी पर यह काम करना शुरू किया, लेकिन यह काम कुछ ज्यादा नहीं चल पाया।”
“आखिरकार, न्यूज पेपर एजेंसी से अखबार बांटने का काम लिया। मेरे पास साइकिल नहीं थी, किराये पर साइकिल ली। लगभग 15 से 20 किमी. रोजाना साइकिल चलाता। सुबह साढ़े चार बजे से दस बजे तक साइकिल पर ही रहता। मौसम चाहे कुछ भी हो, बारिश हो या कड़ाके की ठंड या फिर गर्मी ही क्यों न, अखबार तो तय समय पर घर-घर पहुंचाना था। कहीं थोड़ा लेट हो जाता तो अखबार के ग्राहकों की बात सुनने को मिलती। अखबार बारिश में भींग जाता तो मुसीबत। हां, कुछ लोग ऐसे भी थे, जो सुबह अखबार बांटने के वक्त चाय ऑफर करते। खासकर, चाय की दुकान वाले।”
“अखबार के पैसे कलेक्शन का काम भी हमारा ही था, इसलिए शाम को महीनेभर का हिसाब करने के लिए घर-घर जाते। उसमें कई घर तो ऐसे थे, जहां बार-बार जाना पड़ रहा था। खैर, कोई बात नहीं हमें तो मुश्किलों से लड़ना सीखना शुरू कर दिया था।”
“हां, एक बात और… सुबह अखबार बांटना और दिन में सब्जियों की ठेली लेकर गली-गली घूमा। एक दोस्त के साथ सब्जी का बिजनेस शुरू किया था। जब मैं सुबह अखबार बांट रहा होता तो उस समय दोस्त देहरादून सब्जी मंडी गया होता। इस तरह हमारे दिन गुजर रहे थे।”
बताते हैं, “2005 में नगर पंचायत में इलेक्ट्रीशियन की एक ट्रेनिंग हुई। सीखने के बाद सर्टिफिकेट और व्यवसाय शुरू करने के लिए 50 हजार रुपये का लोन मिलना था। मैंने यह ट्रेनिंग हासिल की और फिर लोन लेकर बिजली का काम शुरू किया। एक दुकान भी खोली। हमारी सबसे बड़ी चिंता लोन चुकाना थी। हमने दिनरात मेहनत की और समय पर लोन चुका दिया।”
“काम धीरे-धीरे बढ़ने लगा। हम डोईवाला से दूर किसी भी गांव से फोन आता तो वहां साइकिल से पहुंच जाते। बीस-बीस किमी. साइकिल चलाई, पर जिसने बुलाया, वहां जाकर सेवाएं दीं। पैसे उतने ही मांगे, जितना काम था। इस तरह बिजली के किसी भी काम पर, हमें ही बुलाया जाता। हमारा नेटवर्क बढ़ने लगा। हमें जो भी लोग मिले, वो सभी अच्छे हैं। कई बार तो गांवों में यह भी हुआ कि क्लाइंट ने हमें काम छोड़कर पहले भोजन करने को कहा। बहुत स्नेह मिलता है। हालांकि, कुछ ऐसे क्लाइंट भी होते हैं, जो कुछ मिनट देरी से पहुंचने पर, काम कराने से मना कर देते हैं।”
बताते हैं, “हमारे काम में प्रतिस्पर्धा बढ़ गई है। बिजली का सामान नई तकनीकी के साथ बाजार में उपलब्ध हो रहा है। कंप्यूटराइज्ड वॉशिंग मशीनें आ गई हैं, जिनकी मरम्मत करने के लिए पहले सीखे हुए टेक्नीशियन्स को फिर से एडवांस ट्रेनिंग की आवश्यकता है।”
“हम नित नया सीखते हैं, पर एक बात बिल्कुल सही है, हुनर से आजीविका का गहरा रिश्ता है।”