Amazing!! मेलों के ये मुसाफिर, इनकी कहानियां हैरान कर देंगी
मेलों में सामान बेचने के लिए सालभर सफर पर रहते हैं परिवार
राजेश पांडेय। न्यूज लाइव
संजय सालुंके महाराष्ट्र के औरंगाबाद जिला के रहने वाले हैं। कोविड के बाद, लगभग दो साल से संजय और उनका परिवार घर नहीं गए। तीन बेटों, एक बेटी और पत्नी के साथ देश में जहां भी मेला लगता है, दो दिन पहले पहुंच जाते हैं। 48 साल के संजय और उनका परिवार लगभग 15 साल से मेलों में खिलौने बेचने का व्यवसाय कर रहे हैं। हंसकर कहते हैं, हमारी जिंदगी तो मेलों में कट रही है, हम तो मेलों के मुसाफिर हैं। उनके बच्चों की अभी पढ़ने लिखने की उम्र है, पर वो मेलों के मुसाफिर बने हैं। बच्चे पढ़ाई नहीं कर रहे हैं।
जहां भी मेला लगता है, वहां खुले आसमान के नीचे सोते हैं, जागते हैं और खिलौने, मुखौटे बेचते हैं और फिर किसी दूसरे शहर या गांव का रुख कर लेते हैं। सर्दियों के मौसम में ज्यादा दिक्कत होती है, गरम कपड़े लेकर चलते हैं। संजय बताते हैं, वो पांचवीं पास हैं, इससे पहले राजमिस्री का काम कर रहे थे। यह काम अच्छा है, परिवार को पसंद है और हम खुश रहते हैं। हम कहीं भी जाते हैं, सभी एक साथ रहते हैं। खुश रहते हैं।
देहरादून के डोईवाला ब्लाक स्थित लच्छीवाला में 18 फरवरी को शिवरात्रि का मेला (Shivaratri Mela) लगना है। यहां हर साल श्री लच्छेश्वर मंदिर परिसर में मेला लगता है। पहले यहां मेले के लिए बहुत जगह थी, पर फ्लाईओवर बनने के बाद से जगह कम हो गई है। मेले की दुकानें फ्लाईओवर के नीचे, सड़क किनारे लग रही हैं।
संजय सालुंके (Sanjay Salunke) का परिवार फ्लाईओवर के नीचे अपने स्टॉल सजा रहा है। वो बहुत खुश हैं। मेले में सामान की बिक्री अच्छी होगी, ऐसी उनको उम्मीद है। इससे पहले पंजाब में थे, वहां से सीधा उत्तराखंड आए हैं और इसके बाद हिमाचल प्रदेश के बैजनाथ जाएंगे, वहां होली मेला ( Holi Mela Baijnath) लगेगा।
संजय दिल्ली से लगभग 20 हजार के खिलौने लेकर आए हैं। उनको उम्मीद है कि सभी खिलौने बिक जाएंगे। कहते हैं, “उम्मीद पर तो दुनिया चलती है। हम भी चल रहे हैं। कई बार मेले में सामान बहुत कम बिकता है। हम फिर से दूसरे मेले की तैयारी करने लगते हैं। ”
बताते हैं, “साल में दस महीने मेलों में बीतते हैं। बरसात के दो महीने मेले नहीं लगते। इस दौरान किसी एक जगह रुकते हैं और भाजी (सब्जी) मंडी में, खेतों में मजदूरी करते हैं।”
संजय कहते हैं, “महादेव पहाड़ों में बैठकर अपना जीवन गुजारते हैं, हम तो इंसान हैं।”
संजय और उनका परिवार, गोवा, हिमाचल प्रदेश, मध्य प्रदेश , बिहार, पंजाब, उत्तराखंड में जहां मेला लगता है, वहां गए। कई बार तो उनको गांव वाले बताते हैं, वहां दो दिन का, वहां चार दिन का मेला लगना है, वहां जा सकते हो। उन्होंने बताया, “हम जहां भी जाते हैं, वहां के मेलों के बारे में पता चल जाता है। हमारे पास एक कैलेंडर रहता है, जिससे मेलों के बारे में पता चलता है।”
“रात के समय कई ट्रक खाली चलते हैं, उनमें सामान लेकर रातभर सफर करते हैं।”
बच्चों की पढ़ाई पर उनका कहना है,” हम बच्चों के लिए कुछ नहीं पाए, ऐसी हमारी तकदीर ही है।”
संजय, जिस परिवार के साथ पंजाब से यहां पहुंचे हैं, वो परिवार ललिता देवी का है, जो मूल रूप से भोपाल (मध्य प्रदेश) की हैं, पर वर्षों से हिमाचल प्रदेश के शिमला में रहती हैं।
40 साल की ललिता देवी बताती हैं, “मैं तो बचपन से मेलों में खिलौने बेचने का काम कर रही हूं। मैंने पढ़ाई लिखाई नहीं की। चार बच्चे हैं, जिनमें से दो ने पढ़ाई लिखाई की है। एक बेटा हिमाचल में गाड़ी चलाता है।”
“बेटे, बेटी और दामाद और उनके बच्चों के साथ, छह महीने हम लोग मेलों के लिए सफर पर रहते हैं। यहां से सीधा हिमाचल जाएंगे। छह महीने घर पर रहकर दिहाड़ी मजदूरी करते हैं।”
बताती हैं, “थोड़ा बहुत पैसा मेलों में सामान बेचकर बच जाता है। हम दिल्ली से एक बार में दस-पंद्रह हजार से ज्यादा के खिलौने, मुखौटे खरीदते हैं। इससे लगभग दो-तीन हजार की आय हो जाती है। दो दिन पहले यहां पहुंचे हैं। स्टॉल सजा रहे हैं। एक जगह से दूसरी जगह आने-जाने में काफी पैसा खर्च होता है। इतना सारा सामान ढोने में काफी मेहनत करनी पड़ती है। जीवन में बहुत कठिनाइयां हैं, पर इसका सामना तो करना होगा। ललिता केवल तीन राज्यों हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड और पंजाब के मेलों में ही जाती हैं।
हम यहां रहते हैं-