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ये जिंदगी कब होगी आसान

  • इनके पास न आर्थिक और न ही सामाजिक सुरक्षा
बेखटक जीने के लिए आर्थिक और सामाजिक सुरक्षा बहुत जरूरी है। उन लोगों के लिए क्या कहेंगे, जिनके पास पैसा भी नहीं है और उनके ईमानदार काम को समाज भी सम्मान नहीं देता। क्या इन लोगों को तरक्की का हक नहीं है या इनको पीढ़ी दर पीढ़ी को ऐेसे ही खटकने के लिए छोड़ दिया जाए। हमारे आसपास ऐसे कई लोग मिल जाएंगे, जो अपना काम ईमानदारी और मेहनत के साथ कर रहे हैं, लेकिन उनके पास सपने नहीं हैं। अगर कोई सपना है भी तो उसको धरातल पर लाने का रास्ता नहीं दिखता। दुनियाभर की सूचनाएं हासिल करने के लिए एक क्लिक की देर है। फटाफट नॉलेज शेयरिंग के इस दौर में आर्थिक और सामाजिक प्रतिष्ठा के लिए अवसरों की कमी नहीं है। घर बैठे पढ़ाई और नौकरी के तमाम विकल्प  मौजूद हैं। अपनी बात रखने के लिए सोशल मीडिया आपके पास है। आपकी बात अब दूर तक जाती है औऱ इसका असर दिखता भी है और एहसास भी कराता है।
तेजी से मिलती और फैलती सूचनाओं के इस दौर से ये लोग दूर क्यों हैं। वो भी उन हालात में जब सरकारों और उसके नुमाइंदों से इनका रोज का सामना होता है। इनके नाम पर योजनाएं चलती हैं और बजट भी बंटता है। यहां तक कि कुछ संस्थाओं और व्यक्तियों की दुकानें भी इनके नाम पर मालामाल हो रही हैं।

कब मिलेगा इन सवालों का जवाब

रोजाना अपने घर से दफ्तर आने के दौरान आर्थिक रूप से मजबूत होते बाजार और लोगों को देखने के साथ इस तबके पर भी ध्यान जाता है। इन सब बातों को समझने की कोशिश करता हूं और सोने से पहले इस पर कुछ देर सोचता हूं और फिर अपने ही ख्वाबों में खो जाता हूं।  अन्य दिन भी ऐेसे ही देखते, सोचते, समझते और ख्वाब पालते हुए खत्म हो रहे हैं। वो दिन कब आएगा, जब मैं इस पर कुछ करूंगा या इसको अपने ही स्तर पर निपटाने की स्थिति में आ जाऊंगा। मेरे इन सवालों का जवाब कब मिलेगा।कूड़े के ढेर के पास से निकलना किसी को पसंद नहीं होगा।  अगर मजबूरी है तो नाक को रूमाल से दबाकर रास्ता पार करना पड़ता है। घर का कूड़ा फेंकने के बाद लोग उसकी ओर देखना पसंद नहीं करते, लेकिन इनके लिए कूड़े का ढेर रोजी रोटी का जरिया है। महिलाएं और बच्चे तक रोजाना सुबह नगर निगम की कूड़ा गाड़ी का इंतजार करते हैं। क्योंकि इसमें कूड़़े के साथ प्लास्टिक और वो सामान मिल जाता है जो रिसाइकल होने के लिए कबाड़खानों में बिकता है और बाकी हिस्से की जैविक खाद बनती है।

ये कब जाएंगे स्कूल

धूप हो या छांव।  कूड़ेदानों, सड़कों और नालियों में कुछ टटोलते ये बच्चे औऱ महिलाएं हर शहर और कस्बे में दिख जाएंगे। शायद ही इनमें से अधिकतर बच्चों ने कभी स्कूलों की ओर रुख किया हो। इनकी जिंदगी तो बस कबाड़ की उस पोटली में बसती है, जो इनके कंधों को दिन दर दिन झुकाती है। इनमें बेटियां भी हैं, जिनकी समृद्धि के लिए कुछ ब़ड़ा करने का राग हर सरकार अलाप रही है।

इनको मुख्यधारा से जोड़ना जरूरी
भीख मांगना अपराध है और सामाजिक रूप से इसको मान्यता नहीं दी जानी चाहिए। क्या यह बात इन बच्चों को मालूम है,शायद नहीं। चौराहों और क्रासिंग के पास हाथ फैलाते बच्चे । कभी फटकार और कभी दुलार। यह बात सही है कि ये बच्चा अपना भला और बुरा नहीं समझते। इनको जैसा करने के लिए कहा जाता है,ये वैसा कर रहे हैं। इनसे ये काम कौन और क्यों करा रहा है, इसका जवाब तलाशने के लिए सरकार और उसके सिस्टम के पास वक्त कहां है। मेरा यह सवाल मुझे ही बेचैन करता है, लेकिन इसे दोहराने से गुरेज नहीं करूंगा। क्या ये बच्चे देश की मुख्यधारा से जुड़ सकेंगे या नहीं। या फिर अपराध से जुड़कर अपना और समाज का अहित करने में जुट जाएंगे।

Rajesh Pandey

राजेश पांडेय, देहरादून (उत्तराखंड) के डोईवाला नगर पालिका के निवासी है। पत्रकारिता में  26 वर्ष से अधिक का अनुभव हासिल है। लंबे समय तक हिन्दी समाचार पत्रों अमर उजाला, दैनिक जागरण व हिन्दुस्तान में नौकरी की, जिनमें रिपोर्टिंग और एडिटिंग की जिम्मेदारी संभाली। 2016 में हिन्दुस्तान से मुख्य उप संपादक के पद से त्यागपत्र देकर बच्चों के बीच कार्य शुरू किया।   बच्चों के लिए 60 से अधिक कहानियां एवं कविताएं लिखी हैं। दो किताबें जंगल में तक धिनाधिन और जिंदगी का तक धिनाधिन के लेखक हैं। इनके प्रकाशन के लिए सही मंच की तलाश जारी है। बच्चों को कहानियां सुनाने, उनसे बातें करने, कुछ उनको सुनने और कुछ अपनी सुनाना पसंद है। पहाड़ के गांवों की अनकही कहानियां लोगों तक पहुंचाना चाहते हैं।  अपने मित्र मोहित उनियाल के साथ, बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से डेढ़ घंटे के निशुल्क स्कूल का संचालन किया। इसमें स्कूल जाने और नहीं जाने वाले बच्चे पढ़ते थे, जो इन दिनों नहीं चल रहा है। उत्तराखंड के बच्चों, खासकर दूरदराज के इलाकों में रहने वाले बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से ई पत्रिका का प्रकाशन किया।  बाकी जिंदगी की जी खोलकर जीना चाहते हैं, ताकि बाद में ऐसा न लगे कि मैं तो जीया ही नहीं। शैक्षणिक योग्यता - बी.एससी (पीसीएम), पत्रकारिता स्नातक और एलएलबी, मुख्य कार्य- कन्टेंट राइटिंग, एडिटिंग और रिपोर्टिंग

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