ग्लोबल वार्मिंग की वजह से जल संकट की चुनौती दिन पर दिन बढ़ रही है, जिससे वर्षा पर निर्भर कृषि बुरी तरह प्रभावित हो रही है। खासकर गेहूं की फसल, जो कि मनुष्यों के लिए ऊर्जा और प्रोटीन का प्रमुख स्रोत है। जर्नल साइंस एडवांसेज में प्रकाशित एक नई जर्नलसाइंस एडवांसेज में प्रकाशित एक नई स्टडी में बताया गया है कि दुनिया के गेहूं और धान उत्पादक क्षेत्र जल संकट का सामना कर रहे हैं। ये फसलें वर्षा जल पर आधारित होती हैं। यदि जलवायु परिवर्तन और इसके प्रभावों को कम करने की दिशा में गंभीरता से प्रयास नहीं किए गए तो वर्तमान के 15 फीसदी की तुलना में इस सदी के अंत तक 60 फीसदी से अधिक गेहूं उत्पादक क्षेत्रों को सिंचाई के लिए पानी नहीं मिल पाएगा।
कई अन्य फसलों के विपरीत गेहूं की फसल वर्षा पर आधारित है। दूसरे शब्दों में, गेहूं मिट्टी में प्राकृतिक रूप से मौजूद पानी पर निर्भर करता है, जिसकी आपूर्ति वर्षा द्वारा की जाती है। इसका मतलब है कि गेहूं उन फसलों में से एक है, जिनके लिए तापमान में वृद्धि और सूखे की स्थिति सबसे बड़ा खतरा हैं। इस रिसर्च में शामिल आरहस यूनिवर्सिटी डेनमार्क के एग्रोइकोलॉजी डिपार्टमेंट में प्रोफेसर जॉर्जेन ई ओलेसन बताते हैं कि गेहूं दुनिया में सबसे अधिक खेती की जाने वाली फसल है। अगर यह कहा जाए कि गेहूं सभी तरह की संस्कृतियों, रहन सहन व खानपान वालों का बुनियादी भोजन है, तो गलत नहीं होगा।
अंटार्कटिका को छोड़कर गेहूं सभी महाद्वीपों पर उगाया जाता है। संयुक्त राष्ट्र के खाद्य एवं कृषि संगठन के अनुसार गेहूं दुनियाभर में इंसानों द्वारा खपत की जाने वाली कैलोरी की 20 फीसदी मांग गेहूं से पूरी होती है, जो चावल व मक्का से हासिल होने वाली कैलोरी से भी ज्यादा है। वैश्विक आबादी बढ़ने के साथ ही गेहूं की मांग भी बढ़ रही है।
आरहस यूनिवर्सिटी की वेबसाइट पर प्रकाशित लेख में प्रोफेसर जॉर्जेन ई ओलेसन कहते हैं कि विश्व स्तर पर जलवायु परिवर्तन से तापमान में वृद्धि होती है। इससे वाष्पीकरण और सूखे में वृद्धि से गेहूं उत्पादन वाले क्षेत्र प्रभावित होते हैं। उन्होंने साथी वैज्ञानिकों के साथ पूर्व से लेकर वर्तमान तक सूखे में उतार-चढ़ाव को जानने के लिए गेहूं की फसल पर सूखे के असर का अध्ययन किया। उन्होंने सूखे में वृद्धि की अवधि को जाना, जिससे पता चला कि हर साल सूखे से कितना गेहूं उत्पादक क्षेत्र गंभीर रूप से प्रभावित हुआ है। इस पूरी गणना में जलवायु की स्थिति को आधार बनाया गया है।
बताते हैं कि यदि आप वर्ष 1900 और उससे बाद के समय को देखते हैं तो सूखा प्रभावित क्षेत्र 20 साल पहले तक स्थिर अवस्था में थे। इसके बाद ही अचानक कुछ हुआ। लगभग 20 साल पहले,गेहूं उत्पादन क्षेत्र में सूखा अचानक विस्तार लेने लगा और अभी भी बढ़ रहा है। अध्ययन में यह बात सामने आई कि सूखे के प्रभाव वाले इलाकों और खाद्य कीमतों में अंतर्संबंध स्थापित है, जो क्षेत्र गंभीर रूप से सूखे से प्रभावित हैं, वहां खाद्य कीमतें ज्यादा हैं। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो स्पष्ट है कि गेहूं उत्पादन में उतार-चढ़ाव वाला एक बड़ा हिस्सा सूखे से गंभीर रूप से प्रभावित है। यदि सूखे से एक बड़ा हिस्सा प्रभावित होता है,तो गेहूं का उत्पादन भी कम होगा और खाद्य पदार्थों की कीमतों में बढ़ोतरी होगी।
वह कहते हैं कि ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में वृद्धि जारी है और महत्वपूर्ण प्रयास नहीं हुए तो तापमान 4 से 5 डिग्री बढ़ जाएगा और इससे सदी के अंत तक गेहूं उत्पादन वाला लगभग 60 फीसदी क्षेत्र सूखे से प्रभावित हो जाएगा। यह वैश्विक स्तर पर गेहूं उत्पादन को गंभीर रूप से कम कर देगा। सिर्फ 2 डिग्री की ग्लोबल वार्मिंग के परिणाम बहुत गंभीर हैं, न केवल कृषि के लिए, बल्कि दुनिया की आबादी के लिए भी।
ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करने के साथ ही जलवायु परिवर्तन को जीवन के अनुकूल बनाने के लिए अनुसंधान का विस्तार करने की आवश्यकता है। ज्यादा तापमान और कम पानी में होने वाली खेती करने से ज्यादा हमें उन तरीकों पर भी काम करने की आवश्यकता है जिनमें वो नई प्रणाली तथा जुताई के तरीके शामिल हों, जो बेहतर फसल उत्पादन के साथ-साथ वर्षा जल को संरक्षित रख सकें। अगर हम जलवायु परिवर्तन को 2 डिग्री तक सीमित नहीं कर पा रहे हैं, तो विश्वस्तर पर खाद्य आपूर्ति में स्थिरता सुनिश्चित करना बहुत मुश्किल होगा।
वर्तमान में विश्वभर में गेहूं उत्पादक क्षेत्रों का 15 प्रतिशत भाग गंभीर जल संकट का सामना कर रहा है। ग्लोबल वार्मिंग से जल संकट जैसे दुष्प्रभावों को दूर करने की कोशिशें नहीं हुईं तो इस सदी के अंत तक मांग के अनुरूप अनाज की आपूर्ति बड़ी चुनौती बन जाएगी। हालांकि रिपोर्ट में इस बात का जिक्र है कि पेरिस समझौते के अनुरूप कार्यवाही से जलवायु परिवर्तन के नकारात्मक प्रभावों को काफी हद तक कम किया जा सकेगा, लेकिन वर्तमान परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए गेहूं उत्पादक क्षेत्रों पर जलवायु परिवर्तन का नकारात्मक प्रभाव 2041 और 2070 के बीच दोगुने होने की आशंका है। यानी वर्तमान की तुलना में 2070 तक यह 30 फीसदी हिस्से पर हो जाएगा। इसका सीधा असर भविष्य में खाद्य सुरक्षा पर पड़ना तय है। इसके गंभीर तथा दीर्घकालिक होने के साथ ही गेहूं उत्पादक क्षेत्रों में सूखा पड़ने की आशंका भी है।
उधर, खाद्य एवं कृषि संगठन (एफएओ) के अनुसार 2050 तक दुनिया की आबादी 9.1 अरब तक पहुंच जाएगी, जो कि वर्तमान की तुलना में 34 फीसदी अधिक है। यह जनसंख्या सभी विकासशील देशों में बढ़ेगी। शहरीकरण तेजी से हो रहा है और 70 फीसदी आबादी शहरों में निवास करेगी, जबकि वर्तमान में यह 49 फीसदी है। आज की तुलना में आय का स्तर भी कई गुना होगा। इतनी बड़ी शहरी और समृद्ध आबादी के लिए अनाज में 70 फीसदी की वृद्धि होनी चाहिए। बढ़ती जनसंख्या की वजह से विश्वस्तर पर अनाज की वार्षिक मांग 2050 तक लगभग 43 फीसदी तक बढ़ जाएगी, जो 210 करोड़ से बढ़कर 300 करोड़ टन हो जाएगी। वहीं मांस उत्पादन 200 मिलियन टन से 470 मिलियन टन तक बढ़ाने की आवश्यकता होगी।
जर्नल साइंस एडवांसेज में प्रकाशित अध्ययन के दूसरे प्रमुख लेखक सॉन्ग फेंग के हवाले से साइंस डेली में कहा गया है कि यदि केवल एक देश या क्षेत्र में सूखा पड़ता है तो इसका प्रभाव कम होता है, लेकिन अगर कई क्षेत्र एक साथ प्रभावित होते हैं तो यह विश्व स्तर पर उत्पादन और खाद्य कीमतों को प्रभावित कर सकता है। इससे खाद्य असुरक्षा पैदा होती है।
विश्व के दस प्रमुख गेहूं निर्यातक देशः- 1. यूरोपीय संघ (ईयू) 2.रूस 3.कनाडा 4. संयुक्त राज्य अमेरिका 5. यूक्रेन 6.ऑस्ट्रेलिया 7. कजाकिस्तान 8. अर्जेंटीना, 9. तुर्की, 10.ब्राजील