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तो फिर कौन बचाएगा रिस्पना के उद्गम शिखरफॉल को

देहरादून के राजपुर से शुरू होता है शिखरफॉल जाने का रास्ता। शिखरफॉल वो जगह है, जो देहरादून के लिए बहुत महत्वपूर्ण है, पर देहरादून जिला प्रशासन ने इस पर ध्यान देने की जरूरत ही नहीं समझी। ऐसा हम महसूस ही नहीं करते, बल्कि दावे के साथ कह सकते हैं और आपको दिखा भी सकते हैं।

शिखर फॉल, प्रकृति की सौगात पर इंसानी हमले तथा पर्यटन या पिकनिक के नाम पर हुड़दंग, मौजमस्ती, स्थानीय निवासियों के साथ अभद्रता की वजह से बदनाम हो रहा है। यह सब इसलिए है, क्योंकि व्यवस्था, खासकर अफसरों ने इस अहम स्थान को हर दृष्टि से नजरअंदाज किया है। चाहे पर्यटन को स्थानीय लोगों की आजीविका से जोड़ने की बात हो या फिर सुरक्षा का मुद्दा हो।

यह बात हम इसलिए जोर देकर कह रहे हैं, क्योंकि मुख्यमंत्री से लेकर मंत्री-अफसर, पर्यटन से रोजगार व स्वरोजगार की बात हर मंच पर करते हैं। पर, राजधानी से सटे इलाकों में पर्यटन और रोजगार की तस्वीर कुछ और ही है, जिसे इस रिपोर्ट में बताने व दिखाने की कोशिश की गई है।

वरिष्ठ पत्रकार गौरव मिश्रा के साथ राजपुर से होते हुए शिखरफॉल का रास्ता तय किया। राजपुर से करीब चार या पांच किमी. होगा, यह प्राकृतिक झरना, जो बेहद खूबसूरत है और हम सबके लिए बहुत विशेष भी। करीब दो किमी. पैदल चलना होगा, वो भी ऊंचाई वाले उबड़खाबड़ संकरे रास्ते पर, जिसके एक तरफ पहाड़ है और दूसरी तरफ बहुत गहराई में बह रही रिस्पना नदी। छोटी बड़ी चट्टानों को पीछे छोड़ते हुए आगे बढ़ रही है रिस्पना।

पर, शहर में, हमने इस खूबसूरत नदी का जेंडर बदल दिया। शहर में इस नदी में इतनी गंदगी फेंकी गई, इतने नाले बहाए गए, यहां तक सीवेज लाइन भी बिछा दी, कि यह नाला बन गई। अगर आप देहरादून शहर में रिस्पना की हालत देखोगे तो आप मना कर दोगे कि शिखरफॉल से होकर बह रही यह सुंदर नदी रिस्पना ही है, जिसे कभी ऋषिपर्णा कहा जाता था। दरअसल, शिखरफॉल ही रिस्पना का उद्गम है।

शिखरफॉल क्यों महत्वपूर्ण है, पहले इस पर बात करते हैं। शिखरफॉल के पानी को टेप करके बड़े पाइपों के जरिये देहरादून में जलापूर्ति की जा रही है। इस पानी का ट्रीटमेंट करके ही आपूर्ति किया जाता है।

कुल मिलाकर यहां से देहरादून की बड़ी आबादी तक पानी पहुंचाया जाता है। आप पूरे रास्ते बड़े पाइपों को देख सकते हैं। कुछ जगह तो संकरे रास्ते के बीच से होकर पाइप बिछे हैं। लोग, कभी पाइप के इस तरफ होकर चलते हैं औऱ कभी दूसरी तरफ।

रास्तेभर पाइपों को जाल सा बिछा है। कहा जा सकता है कि दून को पानी पिलाने के लिए सरकारी मशीनरी ने बड़ी प्लानिंग की है।

पर, पर्यटन या पिकनिक के नाम पर जश्न मनाने के लिए आ रहे लोग शिखरफॉल के पानी को दूषित कर रहे हैं। वहां तक, क्या नहीं ले जाया जा रहा है, शराब, बीयर, हुक्का, खाने-पीने का सामान, प्लास्टिक की बोतलें, पाउच… और भी न जाने क्या – क्या। पर, वहां कोई सुरक्षा नहीं, कोई व्यवस्था नहीं, सबकुछ मनमर्जी का।

खाया- पिया और जो भी कुछ बचा, शिखरफॉल की खूबसूरती को बिगाड़ने के लिए छोड़ दिया। शराब की बोतलें और कांच बिखरा मिलेगा। शिखरफॉल से लेकर उस स्थान तक, जहां शहर को जलापूर्ति के लिए पानी टेप किया जा रहा है, वहां तक पिकनिक प्रेमियों की भीड़ दिखेगी। माफ करना, हमारी नजर में यह किसी महत्वपूर्ण स्थल को बदनाम करना है।

आप शिखरफॉल के पास तक जाते हुए सबसे पहले उस स्थान पर पहुंचते हैं, जहां पानी टेप होकर पाइपों में जा रहा है। इससे आगे शिखरफॉल तक जाने के लिए आपको बड़ी चट्टानों पर चढ़कर जोखिम उठाना पड़ेगा। मैं भी वहां जाने की स्थिति में नहीं था।

मेरे मित्र एडवेंचर टूर संचालक दीप डोभाल और युवा सामर्थ्य ने मुझे शिखरफॉल के पास पहुंचाने में मदद की। शिखरफॉल की खूबसूरती को देखने से जितनी खुशी हुई, उतना ही दुख वहां फैले कचरे को देखकर हुआ।

वहां पानी में गोते लगाने के साथ कुछ लोग बियर पी रहे थे। कुछ खाने के बाद पत्तलों, प्लास्टिक के गिलास, वहीं छोड़ दिए गए। कुछ लोग तो वहां हुक्का लेकर आए थे।

शिखरफॉल तक बड़ी संख्या में लोग पहुंचते हैं, इनमें देहरादून के साथ ही, दिल्ली, हरियाणा, यूपी से मसूरी आने वाले पर्यटक भी शामिल हैं। शनिवार और रविवार को तो यहां बहुत भीड़ रहती है।

इतनी ज्यादा संख्या में लोगों की आवाजाही होने के बाद भी मौके पर सुरक्षा के लिहाज से कोई व्यवस्था नहीं होना, चिंताजनक बात है। हम बुधवार (30 जून, 2021) को यहां पहुंचे थे। हमें पूरे रास्ते पुलिस की कोई व्यवस्था नहीं दिखी। हो सकता है कि शनिवार और रविवार को ज्यादा भीड़ को देखते ही पुलिस तैनात रहती हो।

पर, यहां आने वाले कुछ युवा बहुत संवेदनशील और समझदार भी हैं, जिनमें हेमंत खन्ना और हिमांशु भी शामिल हैं, जो शिखरफॉल से आते हुए हमें मिले। इन बच्चों ने अभी क्लास 10 पास किया हैं। हेमंत ने बताया कि हमने चिप्स के खाली पैकेट और पानी की बोतलें शिखर फॉल जाने से पहले ही डस्टबीन में डंप कर दी थीं।

कहते हैं, अगर हम, ये सामान शिखरफॉल तक लेकर जाते तो, इस्तेमाल के बाद वहां से नहीं ला पाते। इससे वहां कूड़ा फैलता। शिखरफॉल के पास बहुत कूड़ा फैला है। यह पानी हमारे शहर में जा रहा है। शहर में बहुत सारे लोग इसको पीते हैं। इसका दूषित नहीं किया जाना चाहिए।

बताते हैं कि हम तक पानी पहुंचाने में कितनी मेहनत लगती है, यह हमें सोचना होगा। हिमांशु भी हेमंत की बात का समर्थन करते हुए कहते हैं, साफ सफाई तो रखनी होगी।

कुल मिलाकर, शिखरफॉल तक अव्यवस्था की भेंट चढ़ा तथाकथित पर्यटन, यहां न तो स्वरोजगार पर फोकस करता है और न ही इसे किसी स्थानीय निवासी की आजीविका से जोड़ता है। हालांकि कुछ स्थानीय लोगों ने शिखर फॉल तक आने वाले लोगों के लिए फास्टफूड, खाना, कोल्ड ड्रिंक, पानी की बोतलों से रोजगार जुटाया है, वो भी उस व्यवस्था का हिस्सा नहीं हैं, जिसे विभागीय सहयोग या योजना से लाभान्वित किया गया हो।

यहां अरविंद पंवार मिले, जो भुट्टा बेच रहे हैं। भुट्टा बेचने का उनका पहला दिन है। राजमिस्री अरविंद को कोरोना संक्रमण की वजह से लॉकडाउन में कहीं काम नहीं लिया। बताते हैं कि घर तो चलाना है, इसलिए भुट्टा बेचने का मन बनाया। कुछ तो मिलेगा, जिससे घर का गुजारा चलाएंगे।

तड़के ही देहरादून मंडी गए और वहां से 550 रुपये का एक बोरा भुट्टा खरीदकर लाए। मकड़ेती तक परिवहन का खर्चा मिलाकर बोरा 700 रुपये का हो गया। कितने का भुट्टा बेच रहे हो, जवाब मिला, 30 रुपये का एक भुट्टा, वो भी भूनकर, नमक, नींबू के स्वाद के साथ। एक बोरे में कितने भुट्टे हैं, अरविंद को नहीं मालूम। इसलिए अभी इस व्यवसाय में नफा नुकसान की बात नहीं कर सकते।

शिखरफॉल को सभी बुनियादी व्यवस्थाओं के साथ पर्यटन स्थल के रूप में विकसित किया जाए। वहां तक आने जाने में जोखिम को कम करने के उपाय हो, अवैधानिक गतिविधियों पर रोक लगाने की व्यवस्था हो, इस पर्यटन स्थल को स्थानीय लोगों के लिए आजीविका संसाधन के रूप में देखा जाए।

पर्यटकों को स्थानीय खाद्य उत्पाद भोजन के रूप में परोसे जाने की व्यवस्था हो, पर्यटन गतिविधियों की निगरानी के लिए तंत्र स्थापित हो, स्थानीय निवासियों को इस पूरी व्यवस्था में शामिल किया जाए, यहां के पर्यावरण और पारिस्थितिकीय तंत्र के संरक्षण में स्थानीय भागीदारी को महत्व दिया जाए, तो शिखऱफॉल का महत्व पहले से कहीं ज्यादा बढ़ जाएगा।

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Rajesh Pandey

राजेश पांडेय, देहरादून (उत्तराखंड) के डोईवाला नगर पालिका के निवासी है। पत्रकारिता में  26 वर्ष से अधिक का अनुभव हासिल है। लंबे समय तक हिन्दी समाचार पत्रों अमर उजाला, दैनिक जागरण व हिन्दुस्तान में नौकरी की, जिनमें रिपोर्टिंग और एडिटिंग की जिम्मेदारी संभाली। 2016 में हिन्दुस्तान से मुख्य उप संपादक के पद से त्यागपत्र देकर बच्चों के बीच कार्य शुरू किया।   बच्चों के लिए 60 से अधिक कहानियां एवं कविताएं लिखी हैं। दो किताबें जंगल में तक धिनाधिन और जिंदगी का तक धिनाधिन के लेखक हैं। इनके प्रकाशन के लिए सही मंच की तलाश जारी है। बच्चों को कहानियां सुनाने, उनसे बातें करने, कुछ उनको सुनने और कुछ अपनी सुनाना पसंद है। पहाड़ के गांवों की अनकही कहानियां लोगों तक पहुंचाना चाहते हैं।  अपने मित्र मोहित उनियाल के साथ, बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से डेढ़ घंटे के निशुल्क स्कूल का संचालन किया। इसमें स्कूल जाने और नहीं जाने वाले बच्चे पढ़ते थे, जो इन दिनों नहीं चल रहा है। उत्तराखंड के बच्चों, खासकर दूरदराज के इलाकों में रहने वाले बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से ई पत्रिका का प्रकाशन किया।  बाकी जिंदगी की जी खोलकर जीना चाहते हैं, ताकि बाद में ऐसा न लगे कि मैं तो जीया ही नहीं। शैक्षणिक योग्यता - बी.एससी (पीसीएम), पत्रकारिता स्नातक और एलएलबी, मुख्य कार्य- कन्टेंट राइटिंग, एडिटिंग और रिपोर्टिंग

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