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प्रधानमंत्री मोदी ने प्राकृतिक खेती पर किसानों से कही ये बातें

नई दिल्ली। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने गुजरात में आयोजित ‘प्राकृतिक खेती पर राष्ट्रीय सम्मेलन’ के समापन सत्र में वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के माध्यम से किसानों को संबोधित किया। उन्होंने खेती को कैमिस्ट्री की लैब से निकालकर नेचर यानि प्रकृति की प्रयोगशाला से जोड़ने पर जोर दिया। प्रस्तुत हैं उनका संबोधन-
आजादी के बाद के दशकों में जिस तरह देश में खेती हुई, जिस दिशा में बढ़ी, वो हम सबने बहुत बारीकी से देखा है। अब आज़ादी के 100वें वर्ष तक का जो हमारा सफर है, आने वाले 25 साल का जो सफर है,वो नई आवश्यकताओं, नई चुनौतियों के अनुसार अपनी खेती को ढालने का है।
बीते 6-7 साल में बीज से लेकर बाज़ार तक, किसान की आय को बढ़ाने के लिए एक के बाद एक अनेक कदम उठाए गए हैं। मिट्टी की जांच से लेकर सैकड़ों नए बीज तैयार करने तक, पीएम किसान सम्मान निधि से लेकर लागत का डेढ़ गुणा एमएसपी करने तक, सिंचाई के सशक्त नेटवर्क से लेकर किसान रेल तक, अनेक कदम उठाए हैं।
खेती के साथ-साथ पशुपालन, मधुमक्खी पालन, मत्स्यपालन और सौर ऊर्जा, बायोफ्यूल्स जैसे आय के अनेक वैकल्पिक साधनों से किसानों को निरंतर जोड़ा जा रहा है। गांवों में भंडारण, कोल्ड चेन और फूड प्रोसेसिंग को बल देने के लिए लाखों करोड़ रुपए का प्रावधान किया है। ये तमाम प्रयास किसान को संसाधन दे रहे हैं, किसान को उनकी पसंद का विकल्प दे रहे हैं। लेकिन इन सबके साथ एक महत्वपूर्ण प्रश्न हमारे सामने है। जब मिट्टी ही जवाब दे जाएगी तब क्या होगा? जब मौसम ही साथ नहीं देगा, जब धरती माता के गर्भ में पानी सीमित रह जाएगा तब क्या होगा? आज दुनियाभर में खेती को इन चुनौतियों से दोचार होना पड़ रहा है।
यह सही है कि केमिकल और फर्टिलाइज़र ने हरित क्रांति में अहम रोल निभाया है। लेकिन यह भी उतना ही सच है कि हमें इसके विकल्पों पर भी साथ ही साथ काम करते रहना होगा और अधिक ध्यान देना होगा।
खेती में उपयोग होने वाले कीटनाशक और केमिकल फर्टिलाइजर हमें बड़ी मात्रा में इंपोर्ट करना पड़ता है।बाहर से दुनिया के देशों से अरबों- खरबों रुपया खर्च करके लाना पड़ता है। इस वजह से खेती की लागत भी बढ़ती है, किसान का खर्च बढ़ता है और गरीब की रसोई भी महंगी होती है। ये समस्या किसानों और सभी देशवासियों की सेहत से जुड़ी हुई भी है। इसलिए सतर्क रहने की आवश्यकता है, जागरूक रहने की आवश्यकता है।
गुजराती में एक कहावत है, हर घर में बोली जाती है पानी आवे ते पहेला पाल बांधे। पानी पहला बांध बांधो, यह हमारे यहां हर कोई कहता है… इसका तात्पर्य ये कि इलाज से परहेज़ बेहतर। इससे पहले की खेती से जुड़ी समस्याएं भी विकराल हो जाएं, उससे पहले बड़े कदम उठाने का ये सही समय है।
हमें अपनी खेती को कैमिस्ट्री की लैब से निकालकर नेचर यानि प्रकृति की प्रयोगशाला से जोड़ना ही होगा। जब मैं प्रकृति की प्रयोगशाला की बात करता हूं तो ये पूरी तरह से विज्ञान आधारित ही है।
जो ताकत खाद में, फर्टिलाइजर में है, वो बीज, वो तत्व प्रकृति में भी मौजूद है। हमें बस उन जीवाणुओं की मात्रा धरती में बढ़ानी है, जो उसकी उपजाऊ शक्ति को बढ़ाती है।
कई एक्सपर्ट कहते हैं कि इसमें देसी गायों की भी अहम भूमिका है। जानकार कहते हैं कि गोबर हो, गोमूत्र हो, इससे आप ऐसा समाधान तैयार कर सकते हैं, जो फसल की रक्षा भी करेगा और उर्वरा शक्ति को भी बढ़ाएगा। बीज से लेकर मिट्टी तक सबका इलाज आप प्राकृतिक तरीके से कर सकते हैं।
इस खेती में ना तो खाद पर खर्च करना है, ना कीटनाशक पर। इसमें सिंचाई की आवश्यकता भी कम होती है और बाढ़-सूखे से निपटने में भी ये सक्षम होती है। चाहे कम सिंचाई वाली ज़मीन हो या फिर अधिक पानी वाली भूमि, प्राकृतिक खेती से किसान साल में कई फसलें ले सकता है। यही नहीं, जो गेहूं-धान-दाल या जो भी खेत से कचरा निकलता है, जो पराली निकलती है, उसका भी इसमें सदुपयोग किया जाता है। यानी, कम लागत, ज्यादा मुनाफा। यही तो प्राकृतिक खेती है।
आज दुनिया जितना आधुनिक हो रही है, उतना ही ‘back to basic’ की ओर बढ़ रही है। इस Back to basic का मतलब क्या है? इसका मतलब है अपनी जड़ों से जुड़ना! इस बात को आप सब किसान साथियों से बेहतर कौन समझता है? हम जितना जड़ों को सींचते हैं, उतना ही पौधे का विकास होता है।
भारत तो एक कृषि प्रधान देश है। खेती-किसानी के इर्द-गिर्द ही हमारा समाज विकसित हुआ है, परम्पराएँ पोषित हुई हैं, पर्व-त्योहार बने हैं। यहाँ देश के कोने कोने से किसान साथी जुड़े हैं। आप मुझे बताइये, आपके इलाके का खान-पान, रहन-सहन, त्योहार-परम्पराएँ कुछ भी ऐसा है जिस पर हमारी खेती का, फसलों का प्रभाव न हो?
जब हमारी सभ्यता किसानी के साथ इतना फली-फूली है, तो कृषि को लेकर, हमारा ज्ञान-विज्ञान कितना समृद्ध रहा होगा? कितना वैज्ञानिक रहा होगा? इसीलिए आज जब दुनिया organic की बात करती है, नैचुरल की बात करती है, आज जब बैक टु बेसिक की बात होती है, तो उसकी जड़ें भारत से जुड़ती दिखाई पड़ती हैं।
हमारे यहाँ ऋग्वेद और अथर्ववेद से लेकर हमारे पुराणों तक, कृषि-पाराशर और काश्यपीय कृषि सूक्त जैसे प्राचीन ग्रन्थों तक, और दक्षिण में तमिलनाडु के संत तिरुवल्लुवर जी से लेकर उत्तर में कृषक कवि घाघ तक, हमारी कृषि पर कितनी बारीकियों से शोध हुआ है। जैसे एक श्लोक है-
गोहितः क्षेत्रगामी चकालज्ञो बीज-तत्परः।
वितन्द्रः सर्व शस्याढ्यःकृषको न अवसीदति॥
अर्थात्,
जो गोधन का, पशुधन का हित जानता हो, मौसम-समय के बारे में जानता हो, बीज के बारे में जानकारी रखता हो, और आलस न करता हो, ऐसा किसान कभी परेशान नहीं हो सकता, गरीब नहीं हो सकता। ये एक श्लोक नैचुरल फ़ार्मिंग का सूत्र भी है, और नैचुरल फ़ार्मिंग की ताकत भी बताता है। इसमें जितने भी संसाधनों का ज़िक्र है, सारे प्राकृतिक रूप से उपलब्ध हैं। इसी तरह, कैसे मिट्टी को उर्वरा बनाएं, कब कौन सी फसल में पानी लगाएँ, कैसे पानी बचाएं, इसके कितने ही सूत्र दिये गए हैं।
एक और बड़ा प्रचलित श्लोक है-
नैरुत्यार्थं हि धान्यानां जलं भाद्रे विमोचयेत्। मूल मात्रन्तु संस्थाप्य कारयेज्जज-मोक्षणम्॥
यानी, फसल को बीमारी से बचाकर पुष्ट करने के लिए भादौ के महीने में पानी को निकाल देना चाहिए। केवल जड़ों के लिए ही पानी खेत में रहना चाहिए। इसी तरह कवि घाघ ने भी लिखा है-
गेहूं बाहेंचना दलाये। धान गाहेंमक्का निराये। ऊख कसाये।
यानी, खूब बांह करने से गेहूं, खोंटने से चना, बार-बार पानी मिलने से धान, निराने से मक्का और पानी में छोड़कर बाद में गन्ना बोने से उसकी फसल अच्छी होती है। आप कल्पना कर सकते हैं, करीब-करीब दो हजार वर्ष पूर्व, तमिलनाडु में संत तिरुवल्लुवर जी ने भी खेती से जुड़े कितने ही सूत्र दिये थे। उन्होंने कहा था-
तोड़ि-पुड़ुडी कछ्चा उणक्किन, पिड़िथेरुवुम वेंडाद् सालप पडुम
अर्थात, If the land is dried, so as to reduce one ounce of earth to a quarter, it will grow plentifully even without a handful of manure.
कृषि से जुड़े हमारे इस प्राचीन ज्ञान को हमें न सिर्फ फिर से सीखने की ज़रूरत है, बल्कि उसे आधुनिक समय के हिसाब से तराशने की भी ज़रूरत है। इस दिशा में हमें नए सिरे से शोध करने होंगे, प्राचीन ज्ञान को आधुनिक वैज्ञानिक फ्रेम में ढालना होगा।
इस दिशा में हमारे ICAR जैसे संस्थानों की, कृषि विज्ञान केंद्रों, कृषि विश्वविद्यालयों की बड़ी भूमिका हो सकती है। हमें जानकारियों को केवल रिसर्च पेपर्स और theories तक ही सीमित नहीं रखना है, हमें उसे एक प्रैक्टिकल सक्सेस में बदलना होगा।
Lab to land यही हमारी यात्रा होगी। इसकी शुरुआत भी हमारे ये संस्थान कर सकते हैं। आप ये संकल्प ले सकते हैं कि आप नैचुरल फार्मिंग को प्राकृतिक खेती को ज्यादा से ज्यादा किसानों तक ले जाएंगे। आप जब ये करके दिखाएंगे कि ये सफलता के साथ संभव है, तो सामान्य मानवी भी इससे जल्द से जल्द जुड़ेगें।
नया सीखने के साथ हमें उन गलतियों को भुलाना भी पड़ेगा जो खेती के तौर-तरीकों में आ गई हैं। जानकार ये बताते हैं कि खेत में आग लगाने से धरती अपनी उपजाऊ क्षमता खोती जाती है। यह बात समझने जैसी है जिस प्रकार मिट्टी को जब तपाया जाता है, तो वो ईंट का रूप ले लेती है।और ईंट इतनी मजबूत बन जाती है कि इमारत बन जाती है। लेकिन फसल के अवशेषों को जलाने की हमारे यहां परंपरा सी पड़ गई है।
पता है कि मिट्टी जलती है तो ईंट बन जाती है फिर भी हम मिट्टी तपाते रहते हैं। इसी तरह, एक भ्रम ये भी पैदा हो गया है कि बिना केमिकल के फसल अच्छी नहीं होगी। जबकि सच्चाई इसके बिलकुल उलट है। पहले केमिकल नहीं होते थे, लेकिन फसल अच्छी होती थी।
मानवता के विकास का इतिहास इसका साक्षी है। तमाम चुनौतियों के बावजूद कृषि युग में मानवता सबसे तेजी से फली फूली, आगे बढ़ी। क्योंकि तब सही तरीके से प्राकृतिक खेती की जाती थी, लगातार लोग सीखते थे। आज औद्योगिक युग में तो हमारे पास टेक्नोलॉजी की ताकत है, कितने साधन हैं, मौसम की भी जानकारी है! अब तो हम किसान मिलकर एक नया इतिहास बना सकते हैं।
दुनिया जब ग्लोबल वार्मिंग को लेकर परेशान है उसका रास्ता खोजने में भारत का किसान अपने परंपरागत ज्ञान से उपाय दे सकता है। हम मिलकर के कुछ कर सकते हैं।
नैचुरल फार्मिंग से जिन्हें सबसे अधिक फायदा होगा, वो हैं हमारे देश के 80 प्रतिशत छोटे किसान। वो छोटे किसान, जिनके पास दो हेक्टेयर से कम भूमि है। इनमें से अधिकांश किसानों का काफी खर्च, केमिकल फर्टिलाइजर पर होता है। अगर वो प्राकृतिक खेती की तरफ मुड़ेंगे तो उनकी स्थिति और बेहतर होगी।
प्राकृतिक खेती पर गांधी जी की कही ये बात बिल्कुल सटीक बैठती है जहां शोषण होगा, वहां पोषण नहीं होगा। गांधी जी कहते थे, कि मिट्टी को अलटना-पटलना भूल जाना, खेत की गुड़ाई भूल जाना, एक तरह से खुद को भूल जाने की तरह है।
मुझे संतोष है कि बीते कुछ सालों में देश के अनेक राज्यों में इसे सुधारा आ रहा है। हाल के बरसों में हजारों किसान प्राकृतिक खेती को अपना चुके हैं। इनमें से कई तो स्टार्ट-अप्स हैं, नौजवानों के हैं। केंद्र सरकार द्वारा शुरू की गई परंपरागत कृषि विकास योजना से भी उन्हें लाभ मिला है। इसमें किसानों को प्रशिक्षण भी दिया जा रहा है और इस खेती की तरफ बढ़ने के लिए मदद भी की जा रही है।
जिन राज्यों के लाखों किसान प्राकृतिक खेती से जुड़ चुके हैं, उनके अनुभव उत्साहवर्धक हैं। गुजरात में प्राकृतिक खेती को लेकर हमने बहुत पहले प्रयास शुरू कर दिए थे। आज गुजरात के अनेक हिस्सों में इसके सकारात्मक असर दिखने को मिल रहे हैं।
इसी प्रकार हिमाचल प्रदेश में भी तेज़ी से इस खेती के प्रति आकर्षण बढ़ रहा है। मैं आज देश के हर राज्य से, हर राज्य सरकार से, ये आग्रह करुंगा कि वो प्राकृतिक खेती को जन आंदोलन बनाने के लिए आगे आएं। इस अमृत महोत्सव में हर पंचायत का कम से कम एक गांव ज़रूर प्राकृतिक खेती से जुड़े, ये प्रयास हम सब कर सकते हैं।
मैं ये नहीं कहता किआपकी अगर 2 एकड़ भूमि है या 5 एकड़ भूमि है तो पूरी जमीन पर ही प्रयोग करो। आप थोड़ा खुद अनुभव करो। चलिए उसमें से एक छोटा हिस्सा ले लो, आधा खेत ले लो, एक चौथाई खेत ले लो, एक हिस्सा तय करो उसमें यह प्रयोग करो। अगर फायदा दिखता है तो फिर थोड़ा विस्तार बढ़ाओ।
एक दो साल में आप फिर धीरे- धीरे पूरे खेत में इस तरफ चले जाओगे। दायरा बढ़ाते जाओगे। यह समय ऑर्गेनिक और प्राकृतिक खेती में, इनके उत्पादों की प्रोसेसिंग में जमकर निवेश का है। इसके लिए देश में ही नहीं, बल्कि पूरे विश्व का बाज़ार हमारा इंतजार कर रहा है। हमें आने वाली संभावनाओं के लिए आज ही काम करना है।
इस अमृतकाल में दुनिया के लिए फूड सिक्योरिटी और प्रकृति से समन्वय का बेहतरीन समाधान हमें भारत से देना है। क्लाइमेट चैंज समिट में मैंने दुनिया से Life style for environment यानि LIFE को ग्लोबल मिशन बनाने का आह्वान किया था। 21वीं सदी में इसका नेतृत्व भारत करने वाला है, भारत का किसान करने वाला है। इसलिए आइए आजादी के अमृत महोत्सव में मां भारती की धरा को रासायनिक खाद और कीटनाशकों से मुक्त करने का संकल्प लें।
दुनिया को स्वस्थ धरती, स्वस्थ जीवन का रास्ता दिखाएँ। आज देश ने आत्मनिर्भर भारत का सपना संजोया है। आत्मनिर्भर भारत तब ही बन सकता है जब उसकी कृषि आत्मनिर्भर बने, एक एक किसान आत्मनिर्भर बने। और ऐसा तभी हो सकता है जब अप्राकृतिक खाद और दवाइयों के बदले, हम मां भारती की मिट्टी का संवर्धन, गोबर-धन से करें, प्राकृतिक तत्वों से करें। हर देशवासी, हर चीज के हित में, हर जीव के हित में प्राकृतिक खेती को हम जनांदोलन बनाएंगे।

Rajesh Pandey

राजेश पांडेय, देहरादून (उत्तराखंड) के डोईवाला नगर पालिका के निवासी है। पत्रकारिता में  26 वर्ष से अधिक का अनुभव हासिल है। लंबे समय तक हिन्दी समाचार पत्रों अमर उजाला, दैनिक जागरण व हिन्दुस्तान में नौकरी की, जिनमें रिपोर्टिंग और एडिटिंग की जिम्मेदारी संभाली। 2016 में हिन्दुस्तान से मुख्य उप संपादक के पद से त्यागपत्र देकर बच्चों के बीच कार्य शुरू किया।   बच्चों के लिए 60 से अधिक कहानियां एवं कविताएं लिखी हैं। दो किताबें जंगल में तक धिनाधिन और जिंदगी का तक धिनाधिन के लेखक हैं। इनके प्रकाशन के लिए सही मंच की तलाश जारी है। बच्चों को कहानियां सुनाने, उनसे बातें करने, कुछ उनको सुनने और कुछ अपनी सुनाना पसंद है। पहाड़ के गांवों की अनकही कहानियां लोगों तक पहुंचाना चाहते हैं।  अपने मित्र मोहित उनियाल के साथ, बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से डेढ़ घंटे के निशुल्क स्कूल का संचालन किया। इसमें स्कूल जाने और नहीं जाने वाले बच्चे पढ़ते थे, जो इन दिनों नहीं चल रहा है। उत्तराखंड के बच्चों, खासकर दूरदराज के इलाकों में रहने वाले बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से ई पत्रिका का प्रकाशन किया।  बाकी जिंदगी की जी खोलकर जीना चाहते हैं, ताकि बाद में ऐसा न लगे कि मैं तो जीया ही नहीं। शैक्षणिक योग्यता - बी.एससी (पीसीएम), पत्रकारिता स्नातक और एलएलबी, मुख्य कार्य- कन्टेंट राइटिंग, एडिटिंग और रिपोर्टिंग

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