Blog Live

वो मासूम बच्चा…

बात डेढ़ साल पुरानी है, लेकिन आज भी ऐसा ही हाल है। 2 दिसम्बर,2015 को देहरादून के रिस्पना से प्रिंस चौक के बीच सिटी बस में दस साल का एक बच्चा भी सफ़र कर रहा था। मैले कुचेले कपड़े पहने यह मासूम साथ में एक बोरा लिए था। हाथ पैर धूल से सने हुए। इन्ही हथेलियों से बार- बार अपनी एक आँख को सहला रहा था। उसकी सुर्ख़ लाल आँख से पानी बह रहा था । सहनशीलता मानो उसके साथ जन्म से ही है, एेसा मुझे महसूस हुआ। नहीं तो इतना कष्ट और दर्द सहने के बाद भी वह चुप था जबकि मुझे नहीं लगता कि थोड़ी देर में वह किसी डाक्टर के पास आँख दिखाने के लिए जाने वाला था। मैं अपने बच्चे की इस स्थिति का ख़्याल भी मन में नहीं ला सकता। अगर इसको देखकर अपना बच्चा याद आ जाए तो भीतर ही भीतर काँप उठूँगा।
लगता है कि देश में बच्चों के नाम पर चलने वाली योजनाएं इन जैसे मासूमों  के किसी काम की नहीं। एेसा होता तो हर गली नुक्कड़ और चौराहों, क्रासिंग पर ये बदहाली में नहीं दिखते। मैं यह नहीं कह रहा कि सरकारी योजनाएँ और तंत्र बच्चों के लिए काम नहीं करते या उनके लिए नहीं सोचते । सब कुछ हो रहा है, इनकी ओर पूरी निगाह है और तमाम एनजीओ इनके लिए काम कर रहे हैं । हो सकता है कुछ इनके नाम पर एेशोआराम कर रहे हों । ख़ैर यह अलग इश्यु है और इस पर तथ्यों के साथ बात करना ठीक रहेगा ।
हम बात उन सबकी करते हैं जो दिख रहा है। बस में मिला यह बच्चा स्कूल नहीं गया होगा, यह भी उन तमाम मासूमों की तरह है जिनके लिए सुबह का मतलब स्कूल नहीं बल्कि कूड़े से प्लास्टिक और कबाड़ी के यहाँ बिकने वाला छोटा मोटा कचरा तलाशने की शुरुआत भर  है।
ये आम बच्चों की तरह होमवर्क पूरा करने, सलेबस निपटाने, प्रोजेक्ट बनाने या ट्यूशन और किसी स्पोट् र्स 
एक्टीविटी की चिंता नहीं करते और न ही ये इन सब बातों का जीवन में कोई मतलब जानते हैं। इनके लिए स्कूल के कोई मायने नहींं । एेसा इसलिए नहीं कि ये स्कूल से डरते हैं या कोई इनको स्कूल जाने से रोकता है । यह इसलिए कि इनको जन्म लेने से कुछ बड़े होने तक एेसा माहौल ही नहीं मिला। इन आँखों में भी सपने पलें एेसी कोई वजह इनके पास नहीं है। अगर जीने की आस बंधी है तो वो केवल शाम तक घर पर कुछ पैसे ले जाने के कारण है।
मैंने एेसा कोई बच्चा पहली बार नहीं देखा। रोज़ाना इनसे और इनकी इस ज़िंदगी से मेरा सामना होता है । इनके लिए कुछ करने की सोचता हुआ आगे बढ़कर फिर दफ़्तर व इसके बाद परिवार में मशगूल हो जाता हूँ। इस कड़ी में मैं ही नहीं मेरे जैसे तमाम लोग शामिल होंगे जो एेसा रोज़ाना या कभी कभी सोचते और फिर भूलते होंगे।
बस में मिले बच्चे के बारे में भी मैंने सोचा था पर मुझे ठीक एक घंटे में ट्रेन पकड़नी थी और थोड़ी देर में बस से उतरकर मैं रेलवे स्टेशन की ओर रवाना हो गया । अब लिख रहा हूँ कि मैं क्या सोचता हूं। सच बात तो यह है कि लिखने से ज़्यादा बड़ी बात इनके लिए कुछ करने से होगी।

 

Rajesh Pandey

राजेश पांडेय, देहरादून (उत्तराखंड) के डोईवाला नगर पालिका के निवासी है। पत्रकारिता में  26 वर्ष से अधिक का अनुभव हासिल है। लंबे समय तक हिन्दी समाचार पत्रों अमर उजाला, दैनिक जागरण व हिन्दुस्तान में नौकरी की, जिनमें रिपोर्टिंग और एडिटिंग की जिम्मेदारी संभाली। 2016 में हिन्दुस्तान से मुख्य उप संपादक के पद से त्यागपत्र देकर बच्चों के बीच कार्य शुरू किया।   बच्चों के लिए 60 से अधिक कहानियां एवं कविताएं लिखी हैं। दो किताबें जंगल में तक धिनाधिन और जिंदगी का तक धिनाधिन के लेखक हैं। इनके प्रकाशन के लिए सही मंच की तलाश जारी है। बच्चों को कहानियां सुनाने, उनसे बातें करने, कुछ उनको सुनने और कुछ अपनी सुनाना पसंद है। पहाड़ के गांवों की अनकही कहानियां लोगों तक पहुंचाना चाहते हैं।  अपने मित्र मोहित उनियाल के साथ, बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से डेढ़ घंटे के निशुल्क स्कूल का संचालन किया। इसमें स्कूल जाने और नहीं जाने वाले बच्चे पढ़ते थे, जो इन दिनों नहीं चल रहा है। उत्तराखंड के बच्चों, खासकर दूरदराज के इलाकों में रहने वाले बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से ई पत्रिका का प्रकाशन किया।  बाकी जिंदगी की जी खोलकर जीना चाहते हैं, ताकि बाद में ऐसा न लगे कि मैं तो जीया ही नहीं। शैक्षणिक योग्यता - बी.एससी (पीसीएम), पत्रकारिता स्नातक और एलएलबी, मुख्य कार्य- कन्टेंट राइटिंग, एडिटिंग और रिपोर्टिंग

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button