FeaturedShort story- Moral Values

एक बच्चे ने खोल दीं उसकी आंखें

स्कूल में पढ़ने वाला एक छात्र डॉक्टर बनना चाहता था। उसके पिता किसी शॉप पर सेल्समैन थे। परिवार का गुजारा मुश्किल से ही चलता था। छात्र पढ़ाई में न तो ज्यादा तेज और न ही कमजोर था। 60 फीसदी तक मार्क्स आ जाते थे। पिता की आय इतनी नहीं थी कि कोई प्राइवेट ट्यूशन या कोचिंग हासिल कर सके।  मेडिकल एंट्रेंस एग्जाम में शामिल हुआ, लेकिन सफलता हासिल नहीं हो सकी। सामान्य विषयों के साथ डिग्री हासिल कर ली।

इस युवा को कई महीनों तक जॉब हासिल नहीं हो सकी। वह पिता की आय पर निर्भर था। बाद में कम आय वाली जॉब मिली और इससे अपने ही खर्चे निकाल पाता था। माता-पिता के लिए उसके पास हमेशा पैसों की दिक्कत रहती। उसके पिता भी उस पर भार नहीं डालना चाहते थे, इसलिए उन्होंने अपना जॉब जारी रखा।

बाद में युवक की एक कंपनी में अच्छी पगार पर जॉब लग गई। वह पहले से अधिक कमा रहा था। सेलरी के साथ ही उसके खर्चे भी बढ़ते चले गए। पिता ने उसकी शादी करा दी। अब वह अपने परिवार के खर्चों को पूरे करने में लग गया। माता-पिता के लिए उसके पास अभी भी पैसे नहीं होते। वह पिता भी बन गया और खर्चे पहले से ज्यादा बढ़ गए।

जॉब में प्रमोशन मिल गया और सेलरी में भी इजाफा हो गया। उसने लोन पर अलग घर खरीद लिया। जरूरी और गैर जरूरी सुविधाएं व सेवाएं जुटा लीं। कंपनी ने स्टेटस का हवाला देते हुए लोन पर कार खरीदवा दी । कुछ साल सब कुछ ठीक चलता रहा। बच्चे का स्कूल में एडमिशन कराने के साथ अन्य कार्यों पर खर्च बढ़ने और लोन की किश्तें जमा करने की वजह से आर्थिक स्थिति गड़बड़ाने लगी।

उधर, माता- पिता की तबीयत खराब रहने लगी। पिता ने इलाज में कुछ मदद करने को कहा, तो वह उन पर ही बिगड़ गया। कहा, मेरी आर्थिक स्थिति इतनी अच्छी नहीं है कि मैं कोई मदद कर सकूं। इसके बाद वह आपे से बाहर होकर बोला, आप लोगों ने मेरे लिए क्या किया। एक अच्छे स्कूल में दाखिला नहीं दिला सके।

नंबर कम आने पर मुझे प्राइवेट ट्यूशन तक नहीं दिला पाए। न तो ढंग का खिला पाए और न ही अच्छा पहना पाए। मुझे लाइफ सेटल करने में कई साल लग गए। मैं अभी तक अपनी आर्थिक स्थिति को बेहतर नहीं कर पाया। मैं आपकी कोई मदद नहीं कर सकता। मेरे से कोई उम्मीद न रखो तो अच्छा रहेगा। माता-पिता उसकी बात सुनकर दुखी मन से वापस लौट गए।

एक दिन वह बिजनेस के सिलसिले में शहर से बाहर गया। मीटिंग से लौटते समय रास्ते में उसकी मुलाकात खिलौने बेचने वाले बच्चे से हुई। नौ-दस साल के इस बच्चे से उसने पूछा, तुम्हें तो स्कूल जाना चाहिए और तुम यहां खिलौने बेच रहे हो। बच्चे ने जवाब दिया, एक दुर्घटना में मेरे पिता का हाथ कट गया। उनके पास कोई रोजगार नहीं है। मैं सुबह स्कूल जाता हूं और शाम को खिलौने बेचता हूं। रात को पढ़ाई करता हूं। मेरी मां घरों में कामकाज करके परिवार के खर्चे पूरे करती है। मैं उनकी मदद करता हूं।

इस बच्चे की बात सुनकर वह शर्मिंदा हो गया। अपने माता-पिता के साथ किए बुरे व्यवहार पर उसे पछतावा होने लगा। वाकई इस बच्चे ने उसकी आंखें खोल दीं। वह सीधा अपने माता-पिता के पास पहुंचा और अपने व्यवहार के लिए उनसे माफी मांगी।

 

Rajesh Pandey

राजेश पांडेय, देहरादून (उत्तराखंड) के डोईवाला नगर पालिका के निवासी है। पत्रकारिता में  26 वर्ष से अधिक का अनुभव हासिल है। लंबे समय तक हिन्दी समाचार पत्रों अमर उजाला, दैनिक जागरण व हिन्दुस्तान में नौकरी की, जिनमें रिपोर्टिंग और एडिटिंग की जिम्मेदारी संभाली। 2016 में हिन्दुस्तान से मुख्य उप संपादक के पद से त्यागपत्र देकर बच्चों के बीच कार्य शुरू किया।   बच्चों के लिए 60 से अधिक कहानियां एवं कविताएं लिखी हैं। दो किताबें जंगल में तक धिनाधिन और जिंदगी का तक धिनाधिन के लेखक हैं। इनके प्रकाशन के लिए सही मंच की तलाश जारी है। बच्चों को कहानियां सुनाने, उनसे बातें करने, कुछ उनको सुनने और कुछ अपनी सुनाना पसंद है। पहाड़ के गांवों की अनकही कहानियां लोगों तक पहुंचाना चाहते हैं।  अपने मित्र मोहित उनियाल के साथ, बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से डेढ़ घंटे के निशुल्क स्कूल का संचालन किया। इसमें स्कूल जाने और नहीं जाने वाले बच्चे पढ़ते थे, जो इन दिनों नहीं चल रहा है। उत्तराखंड के बच्चों, खासकर दूरदराज के इलाकों में रहने वाले बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से ई पत्रिका का प्रकाशन किया।  बाकी जिंदगी की जी खोलकर जीना चाहते हैं, ताकि बाद में ऐसा न लगे कि मैं तो जीया ही नहीं। शैक्षणिक योग्यता - बी.एससी (पीसीएम), पत्रकारिता स्नातक और एलएलबी, मुख्य कार्य- कन्टेंट राइटिंग, एडिटिंग और रिपोर्टिंग

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button