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गजेन्द्र रौतेला …एक हरफ़नमौला शिक्षक

  • भास्कर उप्रेती

कुछ लोग माहौल बनने का इंतजार करते हैं और कुछ लोग माहौल न बन पाने पर अपने सपने मुल्तवी कर देते हैं।अगस्त्यमुनि के शिक्षक साथी गजेन्द्र रौतेला ऐसे लोगों में से हैं जो खुद में माहौल बन जाने की थ्योरी पर भरोसा करते हैं। वो एक सरकारी प्राथमिक स्कूल में पढ़ाते हैं। लेकिन पढ़ाकर घर लौट आना उनकी फितरत में नहीं।

गजेंद्र रौतेला

वो गाँव के हर सुख-दुःख में शामिल रहते हैं। जब कोई शिक्षक गाँव के सुख-दुःख में शामिल होता है तो जाहिर है गाँव भी शिक्षक को अकेला नहीं रहने देता। गाँव के लोगों का शिक्षक पर भरोसा होना आज के समय में आसान नहीं है। भरोसा टूट जाने की कई वजहें हैं- सबसे बड़ी वजह सरकारी नीतियां और दूसरी बड़ी वजह शिक्षकों का लकीर का फ़कीर हो जाना। अच्छे शिक्षक भी यह शिकायत करते मिल जाते हैं कि गाँव के लोग स्कूल के कामों में इंटरेस्ट नहीं लेते, लेकिन लोग तब स्कूल में इंटरेस्ट लेते हैं जब शिक्षक गाँव के लोक, जीवन, इतिहास, भूगोल, संस्कृति और भाषा में रुचि दर्शाते हैं। जब शिक्षक किसी गाँव के वजूद को ही नकार दे तो गाँव भला उसे क्यों अपनाए। वो तब कहते हैं ‘इस मास्टर को खूब मोटी तनख्वाह मिलती है, इसलिए यहाँ आ जाता है’।

गजेंद्र भाई की रुचियां देखेंगे तो दंग रह जायेंगे। वो शकल-सूरत से शिक्षक नहीं एथलीट लगते हैं। उन्हें पकड़ना पड़ता है, वो भागते रहते हैं, वो बैठे भी हों तो चलते रहते हैं। बोलते ही रहते हैं, उनके पास जीवन के अनेकानेक संदर्भ होते हैं। ये जानदार संदर्भ खुद बोलने-बताने लगते हैं। वो एक कुशल और अनुभवी पर्वतारोही हैं। कई लंबे और दुरूह ट्रेक उन्होंने किये हैं। उनका टेंट, रुक्सैक, स्लीपिंग बैग, मैट, सर्चलाइट, कैमरा, फर्स्ट एड किट और दूसरे साजो-सामान हमेशा उनके चल पड़ने के इंतजार में मुश्तैद रहते हैं। मैं जिस दिन उनसे अपने लिए टेंट और स्लीपिंग देने की बात कर रहा था वो श्रीनगर बेस हॉस्पिटल में थे। उस दिन सुबह उनके स्कूल की भोजनमाता नहीं आयीं तो उन्होंने पहले किसी तरह बच्चों के भोजन का इंतजाम किया। फिर यह पता लगाने भोजनमाता के घर पर गए कि वह क्यूँ नहीं आयीं। पता चला गाँव में पलटा उतारने के दौरान उनकी आँतें फंट गयीं थीं और वह बेसुध घर पर पड़ी दर्द से कराह रही थीं। गजेन्द्र भाई झटपट उन्हें गाड़ी करवाकर श्रीनगर लाये। वहां मित्रों की मदद से उनके निशुल्क ईलाज की व्यवस्था करायीं। साथ ही हमारे लिए टेंट की भी।

वह अच्छे और सफल किसान भी हैं। उन्होंने देहरादून की बासमती और मणिपुर का बांज अपने खेतों में उगा रखा है। खेती और बागवानी उनका प्रिय शगल है, उनके बगीचे से हमने ताजे-ताजे अमरूद तोड़कर खाए। उनकी किसानी जैव-विविधता के सिद्धांत पर चलती है। यानी प्रकृति को सबकी जरूरत है, एक पेड़ भले ही वह कितना भी कमाऊ हो वही अकेला नहीं रहेगा। सब रहेंगे, मिट्टी पर सबका समान हक़ है। वहां स्थानीय लोगों के पूजा-पाठ के लिए गन्ने का भूड़ है तो स्वास्थ्य के लिए गिलॉय की बेल भी। उनके बेटे ने हमें बताया कि जंगल से उतरकर भरल-काकड़ भी उनके घर के पिछवाड़े तक आ जाते हैं। उन्होंने कुछ समय तक डेरी भी चलायी और उनके खेतों से ताज़ी सब्जियां उठकर रोज रुद्रप्रयाग की मंडी तक जाती हैं, हालाँकि उनकी शिक्षिका पत्नी संडे को ही घर पर आ पाती हैं। उनका स्कूल दूर है।

गजेन्द्र भाई ने घर पर एक शानदार लाइब्रेरी बनायी है, जिसमें वैज्ञानिकों की जीवनियाँ, रोचक बाल कहानियों से लेकर वन कानूनों तक की किताबें हैं। बेटे प्रियांशु ने हमें बताया कि पापा का छुटका रेडियो 2013 की आपदा के समय बड़ा काम आया। जब टीवी बंद पड़ा था और लाइट भी नहीं थी। उसने बताया; “तब गाँव के सारे लोग हमारे घर पर आकर आपदा के समाचार सुनते थे. आपदा से उजड़े कई लोग रात में भी हमारे घर पर ही रहते थे। हमारा घर सुरक्षित जगह बना है”. उसने इशारा करके बताया कि यहाँ से ये मेज और टीवी स्टैंड हटा दिया जाता था। तब कई लोग एक ही कमरे में सो सकते थे। मेरे साथी जगमोहन चोप्ता प्रियांशु से बातचीत में तल्लीन हो गए। उसने हमें ‘2013 आपदा’ का आँखों देखा हाल बताया। प्रियांशु ने बताया पहले मंदाकिनी नदी बहुत नीचे बहती थी लेकिन बाढ़ के साथ आये मलवे से वो सड़क के समानांतर आ गयी है। मैंने महसूस किया कि प्रियांशु और गजेन्द्र भाई के बीच पिता-पुत्र के नहीं दोस्ती के संबंध हैं।

2013 की केदारनाथ आपदा में गजेन्द्र भाई ऐसे पहले-पहले लोगों में थे तो एनडीआरएफ और सेना के राहत कार्य शुरू करने से पहले सक्रिय हो गए थे और आपदा के बाद भी स्थानीय लोगों के लिए राहत कार्य की उनकी मुहिम जारी है। उनका अपने समाज के प्रति लगाव, उसके प्रति गहरे सरोकार और पर्वतारोहण का ज्ञान काम आया। मीडिया के लिए वह उन अंजान कहानियों का स्रोत रहे, जो सतही तौर पर देखने से नहीं मालूम पड़ती। उनके घर के निचले हिस्से में एक ऑफिस बना है। यह ऑफिस भी कमाल का है।यहाँ मैंने उत्तराखंड आंदोलन के दौरान विभिन्न लोगों, संगठनों और पार्टियों द्वारा बनाये गए पोस्टरों का जखीरा देखा। इनमें तो कई दुर्लभ श्रेणी के हैं। यहाँ कई कविता पोस्टर भी थे, जो समय-समय पर अगस्त्यमुनि में हुए कार्यक्रमों में इस्तेमाल किये गए थे। चाहे दिल्ली का ‘निर्भया कांड’ हो या उत्तराखंड राज्य निर्माण आंदोलन में ‘श्रीयंत्र टापू कांड’ में मारे गए लोगों का स्मृति शेष हो।

गजेन्द्र भाई के प्रयासों की वजह से जनपद मुख्यालय का सांस्कृतिक केंद्र अगस्त्यमुनि बना है। लोग अब यही कहते हैं रुद्रप्रयाग तो नाम का जिला मुख्यालय है, समाज का सेंस अगस्त्यमुनि में मिलेगा। इस सुदूर जगह पर देश की हर छोटी-बड़ी घटना पर प्रतिक्रिया होती है। 100 लोगों को फौरी तौर पर इकठ्ठा करना उनके लिए मामूली बात है। गजेन्द्र भाई का ऑफिस समाज कार्य लगे तमाम लोगों, संस्कृतिकर्मियों, घुमंतू पत्रकारों और अन्वेशियों के लिए विश्रामघर की तरह भी है। 2012 में उन्हीं के प्रयासों से यहाँ उमेश डोभाल स्मृति सम्मान समारोह हो चुका है, जिसमें उत्तराखंडभर से पत्रकार और लेखक शामिल हुए थे। हाल ही में उन्होंने हमारे रुद्रप्रयाग स्थित कार्यालय (टीएलसी) में ‘ताकि सनद रहे’ कार्यक्रम की प्रदर्शनी लगायी थी, जिसने तमाम शिक्षक साथियों को इतिहास के बनने की यात्रा का अहसास कराया गया।

गजेन्द्र भाई के व्यक्तित्व के कई पहलू हैं लेकिन यहाँ मुख्य बात ये है कि वो एक ‘पिछड़े’ और ‘अति-दुर्गम’ क्षेत्र में रहकर देश के लोगों की सेवा कर रहे हैं। वह खुली दृष्टि के व्यक्ति हैं, जो शिक्षक होने के लिए अनिवार्य शर्त है। उनके सक्रिय होने का असर समाज पर साफ़ दिखता है. वह यह सब न करते तो अगस्त्यमुनि में वो सब न देखने को मिलता जो यहाँ आज हो रहा है। गजेन्द्र भाई ने अगस्त्यमुनि को केदारनाथ यात्रा मार्ग का एक स्टेशन होने की पहचान से उठाकर मौजूद जीवित समाज को गरिमा प्रदान की है। जैसा कि कहा जाता है कि शिक्षक एक साथ वर्तमान, इतिहास और भविष्य होता है, वह हमें उनके जीवन में दिखता है। जब वह कोई नया पौधा अपने बगीचे में रोपते हैं तो आस-पास के लोग देखने आते हैं। उसके बारे में पूछते हैं और एक दिन उसका बीज लेने पहुँचते हैं..वो स्कूल में कुछ नवाचार करते हैं तो पड़ोसी शिक्षक पूछते हैं, भाई साब हम ये कैसे करेंगे..बताइये जरा। शायद समाज ऐसे ही छोटे-छोटे प्रयासों बनते और जागृत होते हैं। गजेन्द्र भाई के पास भी उन तमाम शिक्षक साथियों की तरह विकल्प थे कि वह देहरादून, ऋषिकेश जैसी किसी ‘सुगम’ और ‘सुसंस्कृत’ जगह में तबादला करा लेते. सत्ता के गलियारों में उनको जानने वाले तमाम लोग हैं..फिर प्रॉपर्टी खरीदने-बेचने, जीवन बीमा कराने, चिट फंड या शेयर बाजार में निवेश के गुर आजमाते। लेकिन तब वो न शिक्षक रह पाते और न ही असली आदमी। गजेन्द्र भाई मेरी नज़र में ऐसे छोटे हीरो हैं, जैसी कि देश के तमाम हासिये पर धकेले गए समाजों और समुदायों को जरूरत है। वो बड़े-बड़े हीरो से बड़े हैं। शिक्षक होने का सादा काम चुनना और निभाना .. ये ऐसी चीज है जो किसी समुदाय के जीवित रहने, बेहतरी की राह पर आगे जाने, सही-गलत की पहचान कर पाने के लिए बुनियादी शर्त है, जिस समाज में शिक्षक नहीं रह जाते वो बेतरह पथभ्रष्ट हो जाता है।

मुझे व्यक्तिगत रूप से उनसे मिलकर काफी बल मिला। जिसे मैं बता तो वैसे नहीं सकता, महसूस ही कर सकता हूँ. उनसे परिचय तो लंबा था, लेकिन असली परिचय इसी यात्रा में हो पाया। उत्तराखंड में सरकार का प्रतिनिधित्व करने वाले करीब एक लाख शिक्षक हैं, लेकिन यदि जमीन पर काम करने वाले गजेन्द्र भाई जैसे 200 शिक्षक भी हो जायें तो इस बर्बाद राज्य में ‘गरीब बच्चों को बेहतर शिक्षा’ का सपना बचा रह सकता है। कई बार जब हम जिला मुख्यालयों, बड़े नगरों से हटकर अगस्त्यमुनि जैसी छोटी जगहों तक जाते हैं तो हमारी कुंठा-हताशा का भ्रम ऐसे शिक्षक तोड़ते भी हैं।

Rajesh Pandey

राजेश पांडेय, देहरादून (उत्तराखंड) के डोईवाला नगर पालिका के निवासी है। पत्रकारिता में  26 वर्ष से अधिक का अनुभव हासिल है। लंबे समय तक हिन्दी समाचार पत्रों अमर उजाला, दैनिक जागरण व हिन्दुस्तान में नौकरी की, जिनमें रिपोर्टिंग और एडिटिंग की जिम्मेदारी संभाली। 2016 में हिन्दुस्तान से मुख्य उप संपादक के पद से त्यागपत्र देकर बच्चों के बीच कार्य शुरू किया।   बच्चों के लिए 60 से अधिक कहानियां एवं कविताएं लिखी हैं। दो किताबें जंगल में तक धिनाधिन और जिंदगी का तक धिनाधिन के लेखक हैं। इनके प्रकाशन के लिए सही मंच की तलाश जारी है। बच्चों को कहानियां सुनाने, उनसे बातें करने, कुछ उनको सुनने और कुछ अपनी सुनाना पसंद है। पहाड़ के गांवों की अनकही कहानियां लोगों तक पहुंचाना चाहते हैं।  अपने मित्र मोहित उनियाल के साथ, बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से डेढ़ घंटे के निशुल्क स्कूल का संचालन किया। इसमें स्कूल जाने और नहीं जाने वाले बच्चे पढ़ते थे, जो इन दिनों नहीं चल रहा है। उत्तराखंड के बच्चों, खासकर दूरदराज के इलाकों में रहने वाले बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से ई पत्रिका का प्रकाशन किया।  बाकी जिंदगी की जी खोलकर जीना चाहते हैं, ताकि बाद में ऐसा न लगे कि मैं तो जीया ही नहीं। शैक्षणिक योग्यता - बी.एससी (पीसीएम), पत्रकारिता स्नातक और एलएलबी, मुख्य कार्य- कन्टेंट राइटिंग, एडिटिंग और रिपोर्टिंग

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