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सत्ता में बदलाव को अखबार के दफ्तर में बहुत करीब से महसूस किया था

क्या कोई अखबार यह बताएगा कि उसके पाठकों को क्या पसंद है

एक अखबार के सबसे बड़े अधिकारी अखबार को किसी प्रोडक्ट की तरह बताते हैं। उनका कहना है कि अखबार भी ठीक उस साबुन की तरह ही तो है, जिसको आकर्षक डिजाइन किए पेपर में लपेटकर बेचा जाता है। बदलते वक्त ने अखबार को प्रोडक्ट बनाकर व्यावसायिक प्रतिस्पर्धा में भागीदार बना दिया है, जबकि कभी अखबार को बड़े बदलाव का प्रतीक माना जाता था।

अखबार निकालना मिशन था, पर अब प्रोफेशन बन गया है। प्रोफेशनल होना अच्छी बात है, इसमें बुरा कुछ भी नहीं है। पर, यह तभी अच्छा है, जब उसके हर एथिक्स को फॉलो करें। सवाल यह है कि क्या उन सभी नियमों का पालन किया जा रहा है, जो किसी अखबार के लिए निर्धारित हैं।

अखबार निकालना बिजनेस है, इसलिए उसमें प्रोफिट और लॉस की बात होती है। बिजनेस के अपने रूल होते हैं, उनको फॉलो करना सभी के लिए जरूरी है। किसी भी उत्पाद में वही सब कुछ होना चाहिए, जो उसके प्रचार के समय बताया जाता है। अखबार के बारे में भी अक्सर कहा जाता है, हमें पाठकों को वही सबकुछ पढ़ाना है या दिखाना है, जो वो चाहते हैं। पाठक क्या चाहते हैं, इसके लिए अखबार सर्वे कराते हैं और रिपोर्ट का प्रेजेंटेशन तैयार होता है। उसको वर्कशॉप में रिपोर्टिंग और डेस्क की टीम के साथ डिस्कस किया जाता है।

हर शहर के पाठकों की पसंद और नापसंद का बहुत बारीकी से अध्ययन किया गया है, ऐसा दावा किया जाता है। किसी शहर के पाठकों को स्पोट् र्स की खबरें बहुत पसंद हैं और कहीं युवाओं, शिक्षा और लाइफ स्टाइल की खबरों को ज्यादा पढ़ा जाता है। कहीं राजनीति तो कहीं क्राइम की खबरों को पढ़ा जाता है। सर्वे कैसे किया गया है, इसकी भी जानकारी वर्कशॉप में दी जाती है।

वर्कशॉप में प्रतिद्वंद्वियों के साथ अपने अखबार की खबरों की तुलना करते हुए उन पर पाठकों की प्रतिक्रिया को बताया जाता है। यहां तक कि पाठकों ने आपके अखबार और दूसरे अखबारों में किस खबर को ज्यादा पसंद किया, की भी जानकारी दी जाती है। यह सर्वे पाठकों को फोन करके किया जाता है, ऐसा बताया जाता है। इन वर्कशॉप से रिपोर्टिंग और डेस्क की टीमों को बदलते ट्रेंड की जानकारी मिलती है। खबरों के लिए कुछ आइडिया पर बात होती है। यह अच्छी बात है, ऐसा होना चाहिए। इसी तरह अखबारों की समीक्षा उनके मुख्यालयों में भी होती है।

इस समीक्षा में जरूरी और गैर जरूरी खबरों पर विस्तार से चर्चा होती है। यह तक बता दिया जाता है कि किस खबर को अनावश्यक विस्तार दिया गया है और किस को अंडर डिस्प्ले (कुल मिलाकर खबर को दबाना) किया गया है। किस खबर में और क्या हो सकता था या कौन सी खबर बहुत अच्छी है। यह सब इसलिए होता है कि अखबार को पाठकों की पसंद के अनुरूप बनाया जा सके। अक्सर खबरों को अंडर डिस्प्ले जानबूझकर नहीं किया जाता। पेज बनवाने समय परिस्थितियों और डेस्क की नासमझी से भी ऐसा हो जाता है। अधिकतर मौकों पर डेस्क का किसी खबर से कोई द्वेष नहीं होता।

कुछ लोगों को अक्सर यह कहते हुए सुना जाता है कि अखबार तो अपने पाठकों की पसंद का ध्यान रखता है। पाठकों को, जो पढ़ना पसंद है, वही अखबार परोस रहा है। बिल्कुल सही बात है, अखबार को ऐसा करना चाहिए। क्या कोई अखबार यह बताने का साहस करेगा कि उसके पाठकों को क्या पसंद है, ताकि पाठक भी जान सकें कि उनका अखबार उनकी पसंद का कितना ध्यान रखता है। अगर, अखबार ऐसा नहीं कर सकते तो फिर वहां से किसी को यह नहीं कहना चाहिए कि हम पाठकों की पसंद के अनुसार ही खबरें प्रकाशित करते हैं।

अखबारों को बताना होगा कि पाठकों की पसंद और नापसंद किस आधार पर बताई जा रही है। उनके सर्वे में कितने पाठक शामिल हुए। उसके सवाल क्या थे और किन क्षेत्रों में यह सर्वे किया गया। सर्वे का मैथड क्या था। उसका विश्लेषण किन मानकों के आधार पर किया गया। अखबार क्यों नहीं बताते। अगर, वो यह सबकुछ बता दें तो पाठक उनका आकलन कर सकेंगे।

आपको बता दूं कि किसी भी वर्कशॉप और समीक्षा रिपोर्ट में यह कभी नहीं कहा जाता कि अखबार को सत्ता या किसी व्यक्ति के साथ या फिर उसके खिलाफ होना चाहिए। मीडिया के लिए बनी आचार संहिता भी खबरों में संतुलन की बात करती है। इन सब बातों से सवाल उठता है कि जब कहीं सीधे तौर पर नहीं कहा जाता तो फिर खबरें निष्पक्ष क्यों नहीं होतीं। कई खबरों का पलड़ा एक तरफ भारी क्यों होता है।

क्या पाठक ऐसा चाहते हैं। असंतुलन की वजह हम सभी जानते हैं। उन रिपोर्टर की भी बड़ी संख्या है, जो किसी के खिलाफ अभियान छेड़ देते हैं। कभी उनका यह अभियान पत्रकारिता के मानकों के अनुसार होता है और कभी अपने अधिकारियों के दबाव में या फिर मीडिया मार्केटिंग टीम के प्रेशर में। कहीं किसी का महिमामंडन होता है और कहीं किसी को घेरे में ले लिया जाता है।

कई बार चुनाव के वक्त ऐसा दिखेगा। राजनीतिक दलों की खबरों में ऐसा अक्सर होता आया है। कई बार कुछ वरिष्ठ रिपोर्टर या उनके अधिकारी भी अखबार पर अपनी पसंद और नापसंद को थोपने की कोशिश करते हैं। अपनी रिपोर्ट को पूरी तरह सही ठहराने की कोशिश होती है।

एक किस्सा बता ही देता हूं, जब सत्ता में एक बदलाव को अखबार के दफ्तर में हमने बहुत करीब से महसूस किया। एक अखबार को सत्तारूढ़ दल के प्रमुख नेता का करीबी माना जाता था। हम भी ऐसा महसूस कर रहे थे और बाहर भी सुन रहे थे। प्रमुख नेता अखबार में छाए रहते, आखिर रहे भी क्यों न, हमें ऐसे निर्देश थे। शहर में उनका कोई भी कार्यक्रम हो, बिना फोटो और कम से कम चार कॉलम खबर के प्रकाशित नहीं होता था। अच्छी बात है, खबरें छापना हमारा काम था। हम वैसे भी स्वयं को पत्रकार नहीं समझते थे। हम तो नौकरी कर रहे थे। नौकरी भी ऐसी, जिसमें आपको किसी प्रमुख नेता के स्वागत गीतों को पढ़ना था, उनके भाषण को पढ़ना था और फिर पेज पर सबसे ऊपर कम से कम फर्स्ट हाफ पर तो पक्का चिपकाना था।

सत्ता में बदलाव हुआ और उसकी आहट अखबार के दफ्तर में सुनाई देने लगी। इसी दौरान उन प्रमुख नेता की एक खबर को पेज 3 पर लीड लगाया गया था। पेज लगभग कंपलीट हो चुका था। अचानक एक निर्देश मिले, लीड को हटा दो। कुछ और लगाओ। इनकी खबरों को पीछे के पेजों में संक्षिप्त लगा दो या फिर मत ही लगाओ। हमें तो अखबारों में मौखिक निर्देशों का पालन करने की आदत थी। खबर हमारे बैकलॉग में हमेशा रहती थीं। तुरंत लीड को बदला।

प्रमुख नेता की पांच कॉलम खबर को छह लाइन संक्षिप्त कर दिया। सच बताऊं तो यह खबर छह लाइन की ही थी, जिसमें हमने अनावश्यक विस्तार करके लीड की शक्ल दी थी। उस दिन हमने सत्ता में किसी बदलाव को अखबार के दफ्तर में महसूस किया। इस दिन के बाद से हमने उनकी खबरों को ज्यादा प्रमुखता से प्रकाशित किया, जिनको कभी सिंगल य़ा दो कॉलम से ज्यादा महत्व नहीं दिया।

अभी सिर्फ इतना ही, आपसे कल फिर मिलते हैं, एक और अभिनव जानकारी के साथ। इन लेखों का उद्देश्य सिर्फ अपने अनुभवों से पत्रकारिता में आने वाले युवाओं को जागरूक करना है। युवाओं को केवल यह बताना है कि चमक दमक वाले आवरण के भीतर क्या है। यह बात वहीं व्यक्ति बता पाएगा, जिसने उसको जीभर के देखा और महसूस किया है।

 

Rajesh Pandey

राजेश पांडेय, देहरादून (उत्तराखंड) के डोईवाला नगर पालिका के निवासी है। पत्रकारिता में  26 वर्ष से अधिक का अनुभव हासिल है। लंबे समय तक हिन्दी समाचार पत्रों अमर उजाला, दैनिक जागरण व हिन्दुस्तान में नौकरी की, जिनमें रिपोर्टिंग और एडिटिंग की जिम्मेदारी संभाली। 2016 में हिन्दुस्तान से मुख्य उप संपादक के पद से त्यागपत्र देकर बच्चों के बीच कार्य शुरू किया।   बच्चों के लिए 60 से अधिक कहानियां एवं कविताएं लिखी हैं। दो किताबें जंगल में तक धिनाधिन और जिंदगी का तक धिनाधिन के लेखक हैं। इनके प्रकाशन के लिए सही मंच की तलाश जारी है। बच्चों को कहानियां सुनाने, उनसे बातें करने, कुछ उनको सुनने और कुछ अपनी सुनाना पसंद है। पहाड़ के गांवों की अनकही कहानियां लोगों तक पहुंचाना चाहते हैं।  अपने मित्र मोहित उनियाल के साथ, बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से डेढ़ घंटे के निशुल्क स्कूल का संचालन किया। इसमें स्कूल जाने और नहीं जाने वाले बच्चे पढ़ते थे, जो इन दिनों नहीं चल रहा है। उत्तराखंड के बच्चों, खासकर दूरदराज के इलाकों में रहने वाले बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से ई पत्रिका का प्रकाशन किया।  बाकी जिंदगी की जी खोलकर जीना चाहते हैं, ताकि बाद में ऐसा न लगे कि मैं तो जीया ही नहीं। शैक्षणिक योग्यता - बी.एससी (पीसीएम), पत्रकारिता स्नातक और एलएलबी, मुख्य कार्य- कन्टेंट राइटिंग, एडिटिंग और रिपोर्टिंग

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