agriculturecurrent AffairsFeaturedfood

लहसुन की जैविक खेती है फायदेमंद, यह है सही समय

डॉ. राजेंद्र कुकसाल

  • लेखक कृषि एवं औद्योनिकी विशेषज्ञ हैं
  • 9456590999

लहसुन पर्वतीय क्षेत्रों की प्रमुख नगदी / व्यवसायिक फसल है। पारंपरिक रूप से उगाई जाने वाली लहसुन जैविक होने के साथ ही अधिक पौष्टिक ,स्वादिष्ट व औषधीय गुणों से भरपूर भी होती है, इस कारण बाजार में इसकी मांग अधिक रहती है।

लहसुन की स्थानीय किस्में यहां की भूमि व जलवायु में रची-बसी होती है, जिन्हें बीमारी व कीट कम नुकसान पहुंचाते हैं। साथ ही, सूखा और अधिक वर्षा में भी स्थानीय किस्में अच्छी उपज देती हैं।

योजनाओं में विभागों /संस्थाओं द्वारा दिया गया अधिकतर बीज निम्न स्तर का होता है, जिसमें कई प्रकार की बीमारियां व कीटों का प्रकोप अधिक होता है। इसलिए जैविक व अधिक उपज लेने के लिए अपने क्षेत्र की प्रचलित और अधिक पैदावार देने वाली रोगरोधी किस्मों का चयन करना चाहिए।

उद्यान विभाग के वर्ष 2015 – 16 में दर्शाए आंकड़ों के अनुसार, राज्य में 1530.45 हेक्टेयर में लहसुन की खेती की जाती है, जिससे 9768.25 मैट्रिक टन उत्पादन होता है।

बुआई का समय- 15 सितंबर से 15 अक्तूबर

जलवायु – ऐसी जगह, जहां न तो बहुत गर्मी हो और न ही बहुत ठंडा, लहसुन की खेती के लिए उपयुक्त है। लहसुन की खेती 1000 से 1500 मीटर तक की ऊंचाई वाले क्षेत्र, जहां तापमान 25 – 35 डिग्री सेल्सियस रहता हो, आसानी से की जा सकती है।

भूमि का चयन- लहसुन की खेती बलुई दोमट से लेकर चिकनी दोमट मिट्टी में की जा सकती है, लेकिन जीवांश युक्त दोमट तथा बलुई दोमट भूमि, जिसमें जल निकासी की उचित व्यवस्था हो, उपयुक्त होती है।

भूमि का मृदा परीक्षण अवश्य कराएं। भूमि का पीएच मान 6 से 7 के बीच का उत्तम रहता है। यदि भूमि का पीएच मान 6 से कम है, तो खेत में 3-4 किलोग्राम चूना प्रति नाली की दर से खेत की तैयारी के समय, मिट्टी में मिला लें।

भूमि में जैविक कार्बन की मात्रा 0.8 प्रतिशत से कम होने पर 10-20 किलोग्राम जंगल/बड़े वृक्ष की जड़ों के पास की मिट्टी खुरचकर खेत में प्रति नाली की दर से मिला दें। साथ ही, गोबर/कम्पोस्ट खाद तथा मल्चिंग का प्रयोग अधिक करें।

उन्नत किस्में- यमुना सफेद (जी- 1) एग्रीफाउड व्हाइट, एग्रीफाउंड पार्वती, वीएल-1, वीएल -2 आदि।

लहसुन की खेती राज्य में परंपरागत रूप से पीड़ियों से होती आ रही है। स्थानीय किस्में यहां की भूमि व जलवायु में रची-बसी हैं। इनमें बीमारी व कीटों का प्रकोप कम होता है। साथ ही, सूखे व अधिक वर्षा में भी स्थानीय किस्में अच्छी उपज देती हैं।

खेत की तैयारी- लहसुन की जैविक फसल के लिए खेत को गहरी जुताई कर, कुछ समय के लिए छोड़ दें, जिससे उसमें मौजूद कीट धूप से नष्ट हो जाएंगे। खेत को समतल कर क्यारियां बना लें। क्यारियों में चार से पांच कुंतल गोबर की खाद प्रति नाली की दर से मिलाएं।

लहसुन का बीज- लहसुन के कंदों में कई कलियां (क्लोव्स) होते हैं। इन्हीं कलियों को गांठों से अलग करके बुआई की जाती है।

अधिक व गुणवत्ता वाली पैदावार के लिए लहसुन की बुआई के लिए बड़े आकार के क्लोव्स (जवे), जिनका व्यास 8 से 10 मिलीमीटर हो, प्रयोग करना चाहिए।

इसके लिए शल्क कंद के बाहरी तरफ वाली कलियों को चुनना चाहिए। कंद के केन्द्र में स्थित लंबी खोखली कलियां बुवाई के लिए अनुपयुक्त होती हैं, क्योंकि इनसे अच्छे कंद प्राप्त नहीं होते।

बीज की मात्रा – एक नाली के खेत में लगभग 10-12 किलो लहसुन बीज की आवश्यकता पड़ती है।

भूमि का उपचार- फफूंदी जनित बीमारियों की रोकथाम के लिए-

एक किलोग्राम ट्राइकोडर्मा पाउडर को 25 किलोग्राम कम्पोस्ट (गोबर की सड़ी खाद) में मिलाकर एक सप्ताह तक छायादार स्थान पर रखकर उसे गीले बोरे से ढंकें, ताकि ट्राइकोडर्मा के बीजाणु अंकुरित हो जाएं। इस कम्पोस्ट को एक एकड़ ( 20 नाली) खेत में फैलाकर मिट्टी में मिला दें।

बीज उपचार – बुआई से पहले फलियों को ट्राइकोडर्मा 10 से 15 ग्राम की दर से प्रति लीटर पानी में घोल बना लें। इस घोल में एक किलो बीज को 30 मिनट तक डुबोकर रखें। इसके बाद बीज को छाया में सुखाकर बुआई करें।

जीवा मृत से भी लहसुन की फलियों को उपचारित किया जा सकता है।

एक नाली में 10 किलो ग्राम लहसुन बीज की आवश्यकता होती है। इस प्रकार दस किलो ग्राम बीज उपचारित करने के लिए दस से पन्द्रह लीटर घोल की आवश्यकता होगी।

दूरी- लहसुन की बुआई 15 x 10 सेंटीमीटर यानी लाइन से लाइन 15 सेन्टीमीटर तथा लाइन में बीज से बीज की दूरी 10 सेमी. रखते हैं।

बीज की बुआई लगभग 5 से 6 सेमीं गहरी करते हैं। बुआई करते समय यह ध्यान देना आवश्यक है, कि कलियों (क्लोव्स) का नुकीला भाग ऊपर रहे। बुवाई के समय खेत में पर्याप्त नमी का होना आवश्यक है।

रोपाई के बाद 2 से 3 दिन के अंतराल पर फसल की निगरानी करते रहें। बुवाई के 8-10 दिन बाद निगरानी के समय कटुवा कीट और व्हाइट ग्रब या अन्य कारणों से बीज न जमने पर, उनके स्थान पर नया बीज बोएं।

यदि खेत में कटुवा कीट और व्हाइट ग्रब की सूंडियां दिखाई दें तो उन्हें एकत्रित कर नष्ट करें।

फसल की निगरानी के समय, यदि रोग का प्रकोप दिखाई दे, तो शुरू की अवस्था में ग्रसित पत्तियों/पौधों को नष्ट कर दें। इससे रोगों का प्रकोप कम होगा।

खाद व पोषण प्रबंधन- 10 लीटर जीवा मृत प्रति नाली की दर से 20 दिनों के अन्तराल पर खड़ी फसल में डालते रहना चाहिए।

सिंचाई प्रबंधन – सामान्य रूप से लहसुन को वानस्पतिक वृद्धि के समय 7 से 8 दिन के अन्तर पर तथा परिपक्वता के समय 10 से 15 दिन के अन्तर पर सिंचाई की आवश्यकता होती है।

पहली सिंचाई बुवाई के बाद की जाती है। लहसुन के वृद्धि काल में भूमि में नमी की कमी नहीं होनी चाहिए अन्यथा कंदों का विकास प्रभावित होता हैं।

लहसुन उथली जड़ वाली फसल है, जिसकी अधिकतर जड़ें भूमि के ऊपर 5 से 7 सेंटीमीटर के स्तर में रहती हैं, इसलिए प्रत्येक सिंचाई में मिट्टी को इस स्तर तक नम कर देना चाहिए, जब फसल परिपक्वता पर पहुँच जाए तो सिंचाई बंद कर खेत सूखने देना चाहिए।

पलवार (मल्च) – बुआई के एक- दो सप्ताह बाद कतारों के बीच में पलवार (मल्च) का प्रयोग करें। पेड़ों की सूखी पत्तियां, स्थानीय खर पतवार व घास,धान की पुआल आदि पलवार के रूप में प्रयोग की जा सकती हैं।

पलवार का प्रयोग भूमि में सुधार लाने, तापमान बनाए रखने, उपयुक्त नमी बनाए रखने, खरपतवार नियंत्रण एवं केंचुओं को उचित सूक्ष्म वातावरण देने के लिए आवश्यक है।

निराई-गुड़ाई – अच्छी उपज और गुणवत्तायुक्त कंद प्राप्त करने के लिए समय से निराई-गुड़ाई करके लहसुन की क्यारी को साफ रखना आवश्यक है।

पहली निराई रोपण या बुआई के एक माह बाद एवं दूसरी निराई पहली के एक माह बाद अर्थात बुआई के 60 दिन बाद करनी चाहिए।

कंद बनने के तुरंत पहले निराई-गुड़ाई करने से मिट्टी ढीली हो जाती है। लहसुन की जड़ें अपेक्षाकृत कम गहराई तक जाती हैं, इसलिए गुड़ाई हमेशा उथली करके खरपतवार निकाल देते हैं।

बुआई के 45 दिन बाद एक बार निराई-गुड़ाई कर देने से फसल अच्छी पनपती है।

प्रमुख कीट 

थ्रिप्स कीट- यह कीट लहसुन की पत्तियों को खुरचकर रस चूसते हैं। क्षतिग्रस्त पत्तियाँ चमकीली सफेद दिखती है, जो बाद में ऐंठकर मुड़ और सूख जाती है।

ऐसे पौधों के कन्द छोटे रह जाते हैं, जिससे पैदावार में भारी कमी आ जाती है। इस कीट के प्रकोप से लहसुन के पौधों में बीमारियां अधिक आने लगती हैं।

माइट – इस कीट के कारण पौधों की पत्तियां पूर्णरूप से नहीं खुल पाती हैं। पत्तियों के किनारे पर पीलापन आता है तथा पूरी पत्तियं सिकुड़कर एक दूसरे से लिपट जाती हैं।

चैपा- यह कीट पौधों का रस चूसते हैं, जिससे पौधे कमजोर हो जाते हैं। गंभीर हमले से पौधे के पत्ते मुड़ जाते हैं तथा पत्तों का आकार बदल जाता है।

कीट नियंत्रण – 1. खड़ी फसल का समय-समय पर निरीक्षण करें। पौधों पर कीड़ों के अंडे, शिशु व वयस्क यदि दिखाई दें तो पौधे के उस भाग को हटाकर एक पॉलीथिन की थैली में इकट्ठा करके गड्ढे में गहरा दबाकर नष्ट करें।

2. थ्रिप्स नियंत्रण के लिए पीली एवं नीली स्टिकी ट्रैप का प्रयोग करें। स्टिकी ट्रैप पतली सी चिपचिपी शीट होती है। स्टिकी ट्रैप शीट पर कीट आकर चिपक जाते हैं तथा बाद में मर जाते हैं। जिसके बाद वो फसल को नुकसान नहीं पहुंचा पाते हैं।

स्टिकी ट्रैप बाजार में बनी बनाई आती हैं और इन्हें घर पर भी बनाया जा सकता है। इसे टीन, प्लास्टिक और दफ्ती की शीट से बनाया जा सकता है। इसे बनाने के लिए डेढ़ फीट लंबा और एक फीट चौड़ा कार्ड बोर्ड, हार्ड बोर्ड या टीन का टुकड़ा लें। उन पर नीला व पीला चमकदार रंग लगा दें। रंग सूखने पर उन पर ग्रीस , अरंडी तेल की पतली सतह लगा दें।

ट्रैपों को पौधे से 30 – 40 सेमी ऊंचाई पर लगाएं। यह ऊंचाई थ्रिप्स के उड़ने के रास्ते में आएगी। टीन, हार्ड बोर्ड और प्लास्टिक की शीट साफ करके बार-बार इस्तेमाल किया जा सकता है। जबकि दफ्ती और गत्ते से बने ट्रैप एक दो बार इस्तेमाल के बाद खराब हो जाते हैं।

ट्रैप को साफ करने के लिए उसे गर्म पानी से साफ करें और वापस फिर से ग्रीस लगा कर खेत में टांग सकते हैं। एक नाली के लिए दो ट्रेप प्रयोग करें।

3. एक चम्मच प्रिल, निर्मा लिक्विड या कोई भी डिटर्जेन्ट/ साबुन, प्रति दो लीटर पानी की दर से घोल बनाकर कर स्प्रे मशीन की तेज धार से कीटों से ग्रसित भाग पर छिड़काव करें।

तीन दिनों के अंतराल पर दो तीन बार छिड़काव करें। ध्यान रहे , छिड़काव से पहले घोल को किसी घास वाले पौधे पर छिड़काव करें, यदि यह पौधा तीन चार घंटे बाद मुरझाने लगे तो घोल में कुछ पानी मिलाकर घोल को हल्का कर लें।

4. एक लीटर, सात आठ दिन पुरानी छाछ/ मठ्ठा को छह लीटर पानी में घोल बनाकर तीन चार दिनों के अन्तराल पर दो तीन छिड़काव करने पर भी कीटों पर नियंत्रण किया जा सकता है।

5. एक किलो लकड़ी की राख में दस मिली लीटर मिट्टी का तेल मिलाएं। मिट्टी का तेल मिली हुई लकड़ी की राख प्रति नाली 500 ग्राम की दर से कीटों से ग्रसित खड़ी फसल में बुरकें।

पौधों पर राख बुरकने के लिए राख को मारकीन या धोती के कपड़े में बांधकर पोटली बना लें, एक हाथ से पोटली को कसकर पकड़े तथा दूसरे हाथ से डंडे से पोटली को पीटें, जिससे राख ग्रसित पौधों पर बराबर मात्रा में पड़ती रहे।

6. एक लीटर, आठ दस दिन पुराना गोमूत्र का छह लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करें। गोमूत्र जितना पुराना होगा, उतना ही फायदेमंद होगा। दस दिन के अन्तराल पर फसल पर गोमूत्र का छिड़काव करते रहें। माइक कीट नियंत्रण के लिए यह प्रभावी उपाय है।

7. पांच ग्राम व्यूवेरिया वेसियाना का एक लीटर पानी में घोल बनाकर पौधों पर तथा पौधों की जड़ों के पास छिड़काव कर जमीन तर करें। इससे कट वर्म व कुरमुला कीट नियंत्रण हो जाता है।

8. नीम पर आधारित कीटनाशकों, जैसे निम्बीसिडीन, निमारोन,इको नीम या बायो नीम में से किसी एक का पांच मिली लीटर प्रति लीटर पानी में मिलाकर शाम को या सूर्योदय से एक दो घंटे पहले पौधों पर छिड़काव करें। घोल में प्रिल,निर्मा, शैम्पू या डिटर्जेंट मिलाने पर दवा अधिक प्रभावी होती है।

प्रमुख रोग

सफेद गलन- इस रोग में जमीन के समीप लहसुन का ऊपरी भाग गल जाता है और संक्रमित भाग पर सफेद फफूंद और जमीन के ऊपर हल्के भूरे रंग के सरसों के दाने की तरह सख्त संरचनाएं बन जाती हैं। संक्रमित पौधे मुरझा जाते हैं तथा बाद में सूख जाते हैं।

बैंगनी धब्बा- इस रोग को फैलाने वाले रोगकारक फफूंद बीज और मिट्टी जनित होते हैं। इस रोग में लहसुन की पत्तियां और बीज फसल की डंठलों पर शुरुआत में सफेद भूरे रंग के धब्बे बनते हैं, जिनका मध्य भाग बैगनी रंग का होता है। इस रोग का संक्रमण उस समय अधिक होता है, जब वातावरण का तापक्रम 27 से 30 सेंटीग्रेड तथा आर्द्रता अधिक हो।

रोकथाम – 1.फसल की बुआई अच्छी जल निकास वाली भूमि पर करें।

2.फसल चक्र अपनाएं।

3.भूमि का उपचार ट्राइकोडर्मा से करें।

4.खड़ी फसल की समय-समय पर निगरानी करते रहें। रोगग्रस्त पौधे को शीघ्र हटा कर नष्ट कर दें।

5. प्रति लीटर पानी में 5 ग्राम ट्राइकोडर्मा पाउडर का घोल बनाकर पौधों पर 5-6 दिनों के अंतराल पर तीन छिड़काव करें व जड़ क्षेत्र को भिगोएं।

खुदाई एवं भंडारण – जिस समय लहसुन की फसल की पत्तियां पीली पड़ जाएं तथा सूखने लग जाएं, फसल को परिपक्व समझना चाहिए। इसके बाद सिंचाई बंद कर देनी चाहिए और 15 से 20 दिन बाद कंदों की खुदाई कर लेना चाहिए।

खुदाई के बाद कंदों को 3 से 4 दिन तक छाया में सुखा लेते हैं। फिर 2 से 2.5 सेंटीमीटर छोड़कर पत्तियों को कंदों से अलग कर कंदों का भंडारण करते हैं।

बीज के लिए या लंबे समय के भंडारण के लिए खुदाई के बाद लहसुन सम्पूर्ण पौध के साथ छाया में सुखाकर गट्ठियां बनाकर ठंडे, सूखे ,अंधेरे व हवादार स्थानों में स्टोरेज करें।

उपज – लहसुन की फसल बीज बुआई से 130 से 150 दिन के अंतराल पर तैयार होती है तथा 100 से 150 किलोग्राम प्रति नाली तक उपज प्राप्त हो जाती है।

परम्परागत कृषि विकास योजना के तहत लहसुन की क्लस्टर में जैविक खेती कर तथा उपज का प्रमाणीकरण करा कर कृषकों की आय बढ़ाई जा सकती है।

Rajesh Pandey

राजेश पांडेय, देहरादून (उत्तराखंड) के डोईवाला नगर पालिका के निवासी है। पत्रकारिता में  26 वर्ष से अधिक का अनुभव हासिल है। लंबे समय तक हिन्दी समाचार पत्रों अमर उजाला, दैनिक जागरण व हिन्दुस्तान में नौकरी की, जिनमें रिपोर्टिंग और एडिटिंग की जिम्मेदारी संभाली। 2016 में हिन्दुस्तान से मुख्य उप संपादक के पद से त्यागपत्र देकर बच्चों के बीच कार्य शुरू किया।   बच्चों के लिए 60 से अधिक कहानियां एवं कविताएं लिखी हैं। दो किताबें जंगल में तक धिनाधिन और जिंदगी का तक धिनाधिन के लेखक हैं। इनके प्रकाशन के लिए सही मंच की तलाश जारी है। बच्चों को कहानियां सुनाने, उनसे बातें करने, कुछ उनको सुनने और कुछ अपनी सुनाना पसंद है। पहाड़ के गांवों की अनकही कहानियां लोगों तक पहुंचाना चाहते हैं।  अपने मित्र मोहित उनियाल के साथ, बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से डेढ़ घंटे के निशुल्क स्कूल का संचालन किया। इसमें स्कूल जाने और नहीं जाने वाले बच्चे पढ़ते थे, जो इन दिनों नहीं चल रहा है। उत्तराखंड के बच्चों, खासकर दूरदराज के इलाकों में रहने वाले बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से ई पत्रिका का प्रकाशन किया।  बाकी जिंदगी की जी खोलकर जीना चाहते हैं, ताकि बाद में ऐसा न लगे कि मैं तो जीया ही नहीं। शैक्षणिक योग्यता - बी.एससी (पीसीएम), पत्रकारिता स्नातक और एलएलबी, मुख्य कार्य- कन्टेंट राइटिंग, एडिटिंग और रिपोर्टिंग

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button