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अखबारों में खबरों का संपादन और रिपोर्टिंग

अखबारों की बात हो रही है तो संपादन और रिपोर्टिंग पर चर्चा करना भी जरूरी है। अक्सर कुछ वरिष्ठ लोगों को यह कहते सुना जाता है कि कुछ ही रिपोर्टर की कॉपी ऐसी होती हैं, जिनमें आपको ज्यादा कुछ नहीं करना होता, केवल नजर भर देख लेना होता है। यह नजर भर देख लेना क्या होता है, मेरी समझ में आज तक नहीं आया। हां, यह बात सही है कि कुछ रिपोर्टर डेस्क पर अपना विश्वास जमा चुके होते हैं, इसलिए उनकी कॉपी पर ज्यादा समय नहीं लगता। ऐसे में कई बार इनमें से कुछ डेस्क से वो सबकुछ पास करा लेते हैं, जो वो चाहते हैं।

सवाल यह भी है कि अगर किसी सीनियर रिपोर्टर की कॉपी में संपादन की गुंजाइश नहीं है तो फिर उनकी कॉपियों को जांचने के लिए डेस्क क्यों बनाई जाती है। उनको अपनी खबरों को सीधे पेज पर असाइन करने का राइट मिल जाना चाहिए।

अखबारों में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं होती कि किसी सीनियर की कॉपी नहीं जांची जाएगी। पेज वन और किसी खास पैकेज को छोड़कर, अन्य पेजों पर सीनियर रिपोर्टर्स की कॉपियां जांचने वाला, वो शख्स भी हो सकता है, जिसके लिए अभी संपादन को जानना बहुत जरूरी है। मैं ऐसा इसलिए कह रहा हूं कि इनसे संपादित होने वाली खबर को ही पाठकों तक पहुंचना है। इनके बाद इस खबर की कोई और स्क्रीनिंग नहीं होती।

किसी सीनियर रिपोर्टर की लिखी कॉपी है, इसलिए ये दबाव में आकर, उसमें केवल बिंदी, मात्रा और कुछ वाक्य संबंधी त्रुटियों को ही सही करते हैं। अगर कोई सवाल भी है या फैक्ट की कमी समझ में आती भी है तो पूछने की कोशिश नहीं होती। अपने इंचार्ज के माध्यम से कुछ जानने की कोशिश भी करते हैं तो कई बार, बात आई गई हो जाती है।

वहीं डेस्क पर कुछ रिपोर्टर का इतना दबाव रहता है कि उनसे कुछ नहीं पूछा जाता। कभी कभार खबरों में नहीं समझ में आने वाले तथ्यों को हटाकर उनको पास कर दिया जाता है। डेस्क पर समय का दबाव रहता है कि इसलिए अधिकतर लोग ज्यादा पूछताछ या कन्टेंट करेक्शन के मूड में नहीं रहते। ऐसा नहीं है कि हमेशा रिपोर्टर ने जो लिख दिया, वही प्रकाशित होता है। कई बार अनावश्यक रिपोर्ट का पहले संपादन में और फिर पेज पर बुरा हाल हो जाता है। कभी कभार शानदार रिपोर्ट भी इस दायरे में आ जाती हैं।

डेस्क पर जिम्मेदारी संभालने वाले लोगों को उस स्थान, भौगोलिक परिस्थितियों, वहां की खासियत तथा खबर से संबंधित विषय की पूरी जानकारी होनी चाहिए, जहां की खबरें संपादित कर रहे हैं। डेस्क संभालने वाले कुछ लोग तो इतने सजग होते हैं कि उनसे कोई फैक्ट नहीं छूटता। वो खबरों को तभी आगे बढ़ाते हैं, जब वह प्रकाशित होने लायक हों। उनके सामने किसी भी विषय पर खबर आ जाए, वो पीछे नहीं हटते।

मेरा मानना है कि जिस व्यक्ति को प्रशासन, पुलिस, कानून, राजस्व, राजनीति, स्थानीय निकायों, चिकित्सा- स्वास्थ्य, कृषि, सिंचाई, शिक्षा तथा शिक्षकों व कर्मचारियों से जुड़े मुद्दों, धार्मिक महत्व, परिवहन व्यवस्था आदि, जिन भी विषयों पर रोजाना खबरें आती हैं, उनकी जानकारी होना बहुत जरूरी है। मैं यह कतई नहीं कह रहा हूं कि अखबारों को यह सब बताने या सिखाने के लिए कोई पाठ्यक्रम बनाना चाहिए। पर अनुभव तो कराना चाहिए।

यह अनुभव खबरों को सुधारने, उनको ज्यादा विश्वस्त बनाने के साथ रिपोर्टिंग टीम की चुनौतियों को कम करने में मदद करता है। इससे अखबार की बेहतरी के लिए समन्वय बनता है। अखबारों में अक्सर संस्करण छूटने से कुछ समय पहले ऐसी खबरें आ जाती हैं, जिनको किसी भी हाल में नहीं छोड़ा जा सकता। रिपोर्टर सीधे फोन पर खबरें लिखवाते हैं। किसी ने रिपोर्टिंग की हो तो फोन पर मिलने वाली खबरों को बड़ी आसानी से लिख सकता है। अगर, कोई सूचना भी मिल जाए तो डेस्क सीधे रिपोर्टिंग कर सकती है, यह तभी हो सकता है, जब किसी ने पहले रिपोर्टिंग की हो।

यहां फिर से दोहराने की जरूरत है कि डेस्क पर बैठाने से पहले कुुछ साल का ही सही, रिपोर्टिंग का अनुभव होना चाहिए। किसी शहर या कस्बे की रिपोर्टिंग करने का मतलब है कि आपको कई बीटों पर काम करने का मौका मिलना। वहां बड़े शहरों की तरह रिपोर्टर्स की संख्या ज्यादा नहीं होती, इसलिए एक या दो व्यक्ति ही मिलकर सभी बीट देखते हैं। रिपोर्टिंग में बीट चार्ट बनता है, इसका मतलब रिपोर्टर्स में विभागों या रिपोर्टिंग फील्ड का बंटवारा होता है। उनको सख्त हिदायत होती है कि कोई किसी की बीट में दखल नहीं देगा। केवल सूचनाओं को साझा कर सकते हैं। सप्ताह में होने वाले अवकाश के लिए अतिरिक्त दायित्व की भी व्यवस्था होती है।

यह बात सच है कि रिपोर्टर को अपनी बीट का पूरी जानकारी रहती है और वो अपडेट रहते हैं। यही उम्मीद खबरों को संपादित करने वाली डेस्क से करनी चाहिए। किसी भी अखबार के लिए रिपोर्टिंग और डेस्क दोनों की मजबूती से ही काम चलता है। किसी एक के भी कमजोर होने का मतलब, अखबार का कमजोर होना है।

खबरों का संपादन उसी को करना चाहिए, जो खबरों को लिखना जानता हो। किसी की कॉपी को पढ़कर उसकी कुछ लाइनों और शब्दों को ऊपर नीचे करना, संपादन नहीं कहा जा सकता। खबरों को कांट छांटकर छोटा करना भी संपादन नहीं है। संपादन में किसी सिंगल खबर को भी बेहतर कंटेंट और वैल्यू एडिशन से लीड के स्तर तक पहुंचाया जा सकता है।

किसी भी खबर का संपादन करते समय यह बात ध्यान में रखनी बहुत जरूरी है कि इसका पाठक वर्ग कौन है और यह कितने लोगों की अभिव्यक्ति या फिर कितने लोगों के लिए महत्वपूर्ण सूचना है। यह कितने लोगों को प्रेरित और प्रभावित करेगी। यह खबर किसी व्यक्ति विशेष को लाभ या हानि पहुंचाने या फिर मित्रता निभाने के उद्देश्य से तो नहीं लिखी गई है। यह खबर केवल इसलिए तो नहीं लिखी गई है कि रिपोर्टर को कुछ तो लिखकर देना था।

खबर में उक्त सभी बातों का ध्यान रखना तो बहुत जरूरी है, इसके साथ ही बात होती है अधिकारिक स्रोत, सही तथ्यों और आंकड़ों पर,जिन्हें खबर की आत्मा कहें तो ज्यादा बेहतर होगा। बिना स्रोत के कोई खबर नहीं होती। चलिये, यह भी मान लेते हैं कि स्रोत आप नहीं बताना चाहते पर खबर का किसी से तो संबंध होगा, उसको तो कोट किया जा सकता है। जो किसी को प्रभावित न करे, जिसका किसी से संबंध न हो, उसको खबर कैसे कह सकते हैं। एक या दो व्यक्ति की आत्मसंतुष्टि या राजनीति के लिए लिखना भी, खबर लिखना नहीं है। हां, किसी को मदद या राहत के लिए लिखने को खबर लिखना कहा जा सकता है।

खबरों के संपादन के लिए सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण चेक लिस्ट है, खबर को हर दृष्टि से विधिक रूप से मान्य.होना चाहिए। उसकी भाषा द्वेषपूर्ण नहीं होनी चाहिए। उससे किसी का अपमान न हो। खबर मानहानि करने वाली नहीं होनी चाहिए। उससे किसी की प्रतिष्ठा धूमिल न हो। उसको प्रकाशित करने की सभी वजह यानी फैक्ट, वक्तव्य और सबसे महत्वपूर्ण उसको संतुलित होना बहुत आवश्यक है। क्योंकि आपके लिए जो एक खबर मात्र है, वह किसी के लिए जीवनभर का दस्तावेज हो सकती है।

कोर्ट, कानून, समाज व समुदायों के संवेदनशील मामलों आदि की खबरों के संपादन में अगर किसी सीनियर से दस बार भी पूछना पड़े तो पूछिएगा। नहीं तो, उनको साफ मना कर दीजिए कि यह खबर आप नहीं देख पाएंगे। खबरों को बड़ी सजगता से संपादन की दरकार होती है।

मीडिया में यह बात अक्सर कही जाती है कि कोई खबर प्रकाशित नहीं की गई तो कोई बात नहीं, वहां आप केवल संपादक के प्रति जवाबदेह होंगे। अगर,आपने किसी गलत खबर को प्रकाशित कर दिया तो आप पूरे समाज के प्रति जवाबदेह होंगे। ये सभी बातें केवल डेस्क पर ही लागू नहीं होती, रिपोर्टिंग टीम पर भी पूरी तरह लागू होती हैं।

यह भी देखा जाना बहुत जरूरी है कि खबर की डेट वैल्यू (आज ही प्रकाशित करनी जरूरी है या रोक भी सकते हैं) क्या है। डेट वैल्यू की खबरों को प्रमुखता देनी होती है। इसलिए पेजिनेशन में सबसे पहले ये खबरें अपना स्थान ग्रहण करती हैं। संपादन का काम केवल खबरें जांचने तक ही सीमित नहीं रहता, खबरों को उनकी महत्ता के अनुसार, पेज पर स्थान देना भी डेस्क की जिम्मेदारी है। कौन सी खबर किस पेज पर जाएगी, किस खबर के साथ कौन सा फोटो लगेगा। किस खबर को कितना महत्व देना है, ये सब भी डेस्क यानी संपादन करने वालों की जिम्मेदारी है।

सभी पेजों को पूरा करने के बाद डेस्क को अपनी चेक लिस्ट देखनी होती है, जिसमें कुछ प्वाइंट होते हैं, जैसे- सभी महत्वपूर्ण खबरें लग गईं। संपादक के निर्देश वाले कॉलम सही स्थानों पर लगा दिए। दूसरी डेस्कों से मिलीं सभी खबरें लगा दीं। कोई महत्वपूर्ण फोटो तो नहीं छूट गया। सभी महत्वपूर्ण सूचना पेज पर लग गईं। विज्ञापन विभाग से मिली खबरें लगा दी या नहीं। महत्वपूर्ण खबरों के फॉलोअप लगा दिए या नहीं आदि…।

इसके बाद शुरू होता है, रिपोर्टिंग के लिए फॉलोअप वाली खबरों की लिस्ट बनाने का काम, जो सुबह होते ही रिपोर्टर को उनकी मेल पर दिखाई देता है। इसके साथ ही रिपोर्टिंग टीम सुबह अखबार में प्रकाशित अपनी खबरों को देखती है और किसी पर खुशी जाहिर करती है और किसी खबर के प्रेजेंटेशन पर नाराजगी। ऐसा इसलिए, क्योंकि सभी को अपनी खबरों से बेहद प्यार होता है। इसके साथ ही शुरू हो जाता है, दूसरे दिन के लिए खबरों की तलाश का सिलसिला…।

Rajesh Pandey

राजेश पांडेय, देहरादून (उत्तराखंड) के डोईवाला नगर पालिका के निवासी है। पत्रकारिता में  26 वर्ष से अधिक का अनुभव हासिल है। लंबे समय तक हिन्दी समाचार पत्रों अमर उजाला, दैनिक जागरण व हिन्दुस्तान में नौकरी की, जिनमें रिपोर्टिंग और एडिटिंग की जिम्मेदारी संभाली। 2016 में हिन्दुस्तान से मुख्य उप संपादक के पद से त्यागपत्र देकर बच्चों के बीच कार्य शुरू किया।   बच्चों के लिए 60 से अधिक कहानियां एवं कविताएं लिखी हैं। दो किताबें जंगल में तक धिनाधिन और जिंदगी का तक धिनाधिन के लेखक हैं। इनके प्रकाशन के लिए सही मंच की तलाश जारी है। बच्चों को कहानियां सुनाने, उनसे बातें करने, कुछ उनको सुनने और कुछ अपनी सुनाना पसंद है। पहाड़ के गांवों की अनकही कहानियां लोगों तक पहुंचाना चाहते हैं।  अपने मित्र मोहित उनियाल के साथ, बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से डेढ़ घंटे के निशुल्क स्कूल का संचालन किया। इसमें स्कूल जाने और नहीं जाने वाले बच्चे पढ़ते थे, जो इन दिनों नहीं चल रहा है। उत्तराखंड के बच्चों, खासकर दूरदराज के इलाकों में रहने वाले बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से ई पत्रिका का प्रकाशन किया।  बाकी जिंदगी की जी खोलकर जीना चाहते हैं, ताकि बाद में ऐसा न लगे कि मैं तो जीया ही नहीं। शैक्षणिक योग्यता - बी.एससी (पीसीएम), पत्रकारिता स्नातक और एलएलबी, मुख्य कार्य- कन्टेंट राइटिंग, एडिटिंग और रिपोर्टिंग

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