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क्या हम सपनों को रिकार्ड कर सकते हैं

शेर के मुंह में हाथ डालना जितनी बहादुरी की बात है, उतनी ज्यादा बेवकूफी की भी

राजेश पांडेय। न्यूज लाइव

क्या हम सपनों को रिकार्ड कर सकते हैं। अगर ऐसा हो जाए तो फिर हमारे जैसे, बहुत सारे लोग इनको खाली वक्त पर देखते और विश्लेषण करते। क्या ऐसी तकनीक हो सकती है, जो सपनों को किसी डिवाइस में सुरक्षित रख ले।

आप पूछेंगे कि मैं यह सवाल क्यों कर रहा हूं। वो इसलिए, क्योंकि मैं इन दिनों सपने बहुत देख रहा हूं। निठल्ला हूं, रात के अलावा दिन में भी सोता हूं। जमकर भोजन करता हूं और फिर ठंडा पानी पीकर दुनियादारी से बेपरवाह होकर सपनों की दुनिया में कुछ पल में यहां, तो कुछ पल में वहां, घूमता हूं। क्या कहते हैं, घोड़े बेचकर सोना। मैं भी फिलहाल इसी तरह की नींद का आनंद ले रहा हूं।

हालांकि मुझे सपने याद नहीं रहते। कई बार इनमें रोमांच होता है। बहादुरी तो पूछो मत, मैं शेर के मुंह में हाथ डालने से भी नहीं घबराता, जबकि असल जिंदगी में, कुत्ता देखते ही रास्ता बदल लेता हूं।

कई बार तो डरकर चिल्लाने लगता हूं। पसीने में नहा जाता हूं। परिवार वाले उठकर ढांढस बंधाते हैं। कोई कहता है, छाती पर हाथ आने से डर लगता है। करवट लेते रहना चाहिए। तरह-तरह के वक्तव्य सुनने को मिलते हैं।

एक बार यात्रा पर कहीं रुका था। रात को सोते समय, सपना देख रहा हूं कि कोई मेरे पैरों को खींच रहा है। मैं बुरी तरह घबरा गया। मेरी आवाज नहीं निकल पा रही थी। बहुत कोशिश पर, शोर मचा पाया। उसी कमरे में सो रहे साथी ने कहा, यहां तो घबराने वाली कोई बात नहीं है। मैं तो वर्षों से यहां अकेला रह रहा हूं। आज तक कोई डर नहीं लगा। काफी देर बातचीत में उन्होंने बताया, आपकी रजाई बेड से खिसककर नीचे गिर रही थी, इसलिए आपको ऐसा लगा।

मैंने घर आकर पत्नी को यह वाकया सुनाया तो उनका कहना था, बुरे सपने भूल जाओ, अच्छे याद रखो। बुरा सपना दूसरों को सुना सकते हो, पर अच्छा सपना केवल मुझे ही सुनाना।

इन दिनों, मेरे पास सुबह- शाम, केवल सपनों की बातें करने के अलावा कोई दूसरा काम नहीं है। सोचता हूं, सपने नहीं होते तो मेरे पास कोई काम नहीं होता। मैं निरा निठल्ला होता। ईश्वर की कितनी कृपा है, मुझ पर उन्होंने मुझे सपने देखने, सपने सुनाने, सपनों का विश्लेषण करने का काम सौंप दिया है। कितना भाग्यवान हूं मैं, जो मुझे ईश्वर ने यह काम दिया है।

आज सुबह, उठते ही पत्नी का सवाल था, क्या देखा आज सपने में। मैंने बताया, सांप देखा। फिर, उन्होंने पूछा, किस रंग का था। क्या पानी वाला था या फिर धरती पर रेंगने वाला। कहीं उसने तुम्हें डसा तो नहीं। डसा तो कहां डसा, हाथ पर या पैर पर। ध्यान करो और बताओ, वो किस दिशा से आ रहा था। मैंने झुंझलाकर जवाब दिया, मैंने केवल सांप देखा, उसका रंग, आकार मुझे ध्यान नहीं आ रहा।

वो बोलीं, एक ही तो काम है तुम्हारे पास, वो भी ढंग से नहीं कर सकते। तभी तो कहती हूं, ध्यान लगाकर सपने देखो। मैं तो पास में ही थी, मुझे बुला लेते। मुझे तो यह भी याद है कि नौकरी के पहले दिन तुमने किस कलर की शर्ट पहनी थी। उस दिन की शर्ट का कलर भी बता सकती हूं, जिस दिन नौकरी छूटी थी। नौकरी छूटने वाले दिन की शर्ट तो तुम्हें पहनने भी नहीं देती। एक तुम हो, अभी चार घंटे पहले की बात याद नहीं है। तभी तो कहती हूं, सपने रिकार्ड कर लिया करो।

मैंने पूछा, सपने रिकार्ड करके क्या होगा। वैसे भी, अपने लैपटॉप की सारी ड्राइव भर गई हैं। जो पहले असल जिंदगी में रिकार्ड किया है, वो क्या कम है। उसमें से बहुत कुछ डिलीट करना होगा। चुनौती यह है कि क्या संभाल कर रखूं और क्या डिलीट करूं।

उन्होंने भोली सी मूरत बनकर जवाब दिया, अच्छी बातों को संभाल लो और बेकार की, को डिलीट कर दो। अच्छे सपनों को रिकार्ड करके रखो, हम इनको बार-बार देखेंगे। कुछ देर के लिए ही सही, बहुत अच्छा लगेगा, सुकून मिलेगा।

अब इनको कौन समझाए, सपनों को रिकार्ड नहीं किया जा सकता। सपने रिकार्ड होते तो पता नहीं अभी तक कितनों की जिंदगी में तूफान आ जाता। सपनों में सांप, नेवले, हाथी, चीते, शेरों के अलावा और भी बहुत कुछ होता है देखने के लिए। सपनों में आपके जीवन की छाया भी दिखती है। वो सब भी दिखता है, जो अपने लोगों से भी छिपाकर रखना चाहते हैं।

एक सुबह, मैंने उनको बताया, मैं खुद को पानी में डूबता देख रहा था। बहुत सारा पानी था वहां। इस पर उन्होंने तुरंत नेट पर इस सपने का मतलब सर्च किया। एक नहीं, बल्कि सपनों का विश्लेषण करने वाली तमाम वेबसाइट मौजूद थीं इंटरनेट पर। पत्नी बोली, कभी कुछ अच्छा भी देख लिया करो। अच्छी भली जिंदगी को और कितना डुबोओगे। तुम्हें कभी सांप डस लेता है और कभी कुत्ता काट लेता है। कुछ दिन पहले तो हद ही कर दी, भीड़भाड़ वाले शहर में, तुम पर शेर झपट गया।

तुम्हें, न तो असल जिंदगी में सुकून मिलता है और न ही सपनों में। कहीं तो अच्छी जिंदगी जी लो। मेरी बात मानो, तुम घर पर ही रहा करो। मैं नहीं चाहती कि गली का कोई कुत्ता तुम्हें काट ले या कोई सांप डस ले। शेर के मुंह में हाथ डालना जितनी बहादुरी की बात है, उतनी ही बेवकूफी की भी। इसमें शेर का कुछ नहीं बिगड़ेगा, पर नुकसान तुम्हारा ही होगा। या तो फिर इतनी ताकत के साथ उसके मुंह में हाथ डालो कि वो तुम्हें नुकसान पहुंचाने लायक ही न बचे। रोजी रोटी के लिए संघर्ष करने वाले इंसान के पास न तो इतना समय है और न ही शक्ति।

अच्छे सपने हमें कल कुछ अच्छा होने की उम्मीद जगाते हैं। यह उम्मीद हमारे तन और मन को प्रसन्न करती है। यह हमें निराशा से आशा की ओर ले जाती है। अच्छे सपने सच हों या नहीं हों, पर ये हमें ऊर्जावान बनाने में कोई कमी नहीं छोड़ते।

एक अच्छे सपने से जुड़ा किस्सा बताता हूं…, यह बात 1985 से 1987 के बीच के, किसी साल की है। मैं राजकीय जूनियर हाईस्कूल में पढ़ता था। किस क्लास में पढ़ता था, याद नहीं आ रहा। स्वतंत्रता दिवस पर स्कूल की प्रभातफेरी में शामिल होने के लिए हम पूरी रात नहीं सोते थे। पांच बजे से प्रभातफेरी निकलती थी और हम कुछ साथी साढ़े चार बजे ही स्कूल के आसपास घूम रहे होते थे। स्कूल के ठीक सामने रेलवे स्टेशन है। चौक बाजार जाने के लिए पहले रेलवे लाइन पार करते और फिर स्टेशन के अंदर से होकर जाते। प्रभातफेरी भी ऐसे ही निकलती थी।

हम कुछ साथी, स्वतंत्रता दिवस की प्रभातफेरी से पहले ही स्टेशन की ओर चल दिए। मैंने उस दिन नई पेंट पहनी थी। अंधेरा था, ध्यान नहीं रहा और मैं तेजी से चलते हुए घुटनों के बल गिर गया। चोट लगने से ज्यादा दुख, इस बात का था कि पेंट घुटने से फट गई थी। डर इस बात का भी था कि मां से डांट पड़ेगी। पर जो होना था, वो हो गया था। मेरे दोस्त अहमद, जिसके पिता पुलिस में थे, ने ढांढस बंधाया, कोई बात नहीं, मेरे पास मशीन है, मैं तुम्हारी पेंट रफू कर दूंगा। यह ठीक वैसी ही हो जाएगी, जैसी थी।

हमने प्रभातफेरी में हिस्सा लिया, जो स्कूल से चौक बाजार और वहां से वापस लौट रही थी। भारत माता की जय, स्वतंत्रता दिवस अमर रहे, के नारे लगाते हुए हम गा रहे थे-

उठ जाग मुसाफिर भोर भई, अब रैन कहां जो तू सोवत है
जो जागत है सो पावत है, जो सोवत है, वो खोवत है

खोल नींद से अंखियां जरा और अपने प्रभु से ध्यान लगा
यह प्रीति करन की रीती नहीं, प्रभु जागत है तू सोवत है…

उठ जाग मुसाफिर भोर भई…

जो कल करना है आज करले, जो आज करना है अब करले
जब चिड़ियों ने खेत चुग लिया, फिर पछताये क्या होवत है…

उठ जाग मुसाफिर भोर भई…

नादान भुगत करनी अपनी, ऐ पापी पाप में चैन कहां
जब पाप की गठरी शीश धरी, फिर शीश पकड़ क्यों रोवत है…

उठ जाग मुसाफिर भोर भई…

प्रभातफेरी के बाद, साढ़े छह बजे तक घर पर और सीधा बिस्तर में। सुबह के सपने सच होते हैं, ऐसा आज तक सुनता आ रहा हूं। मेरे दिमाग में पेंट फटने वाला सीन चल रहा था। मेरा सपना भी पेंट के इर्द गिर्द था। मैं देख रहा हूं कि मेरी पेंट खुद ब खुद ठीक हो गई। मैंने उसमें कोई रफू भी नहीं कराई थी।  वो जैसी थी, वैसी हो गई। सपना पूरा भी नहीं हुआ, मैं बिस्तर से उठा और पेंट देखने लगा।

पर, कुछ देर की प्रसन्नता, उम्मीद , फिर से दुखी मन में बदल गई। पेंट तो घुटने से फटी थी। पर, एक बात तो है इस सपने में, इसने कुछ देर के लिए सही, तन-मन को चेतन कर दिया था। मैंने मां को पूरा किस्सा बता दिया। उन्होंने पेंट से ज्यादा मेरी चोट पर चिंता व्यक्त की। कुछ दिन में पेंट रफू हो गई थी और साथ ही इससे जुड़ी मेरी चिंताएं भी।

खैर, सपने देखना अच्छी बात है, पर मुंगेरी लाल की तरह नहीं। अच्छे, सकारात्मक सपने हकीकत में बदल जाएं तो और भी अच्छा है। पर, इनके लिए हमें, आपको मेहनत करनी होगी, वो भी सही दिशा में।

फिर मिलते हैं…, किसी और किस्से के साथ।

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राजेश पांडेय, देहरादून (उत्तराखंड) के डोईवाला नगर पालिका के निवासी है। पत्रकारिता में  26 वर्ष से अधिक का अनुभव हासिल है। लंबे समय तक हिन्दी समाचार पत्रों अमर उजाला, दैनिक जागरण व हिन्दुस्तान में नौकरी की, जिनमें रिपोर्टिंग और एडिटिंग की जिम्मेदारी संभाली। 2016 में हिन्दुस्तान से मुख्य उप संपादक के पद से त्यागपत्र देकर बच्चों के बीच कार्य शुरू किया।   बच्चों के लिए 60 से अधिक कहानियां एवं कविताएं लिखी हैं। दो किताबें जंगल में तक धिनाधिन और जिंदगी का तक धिनाधिन के लेखक हैं। इनके प्रकाशन के लिए सही मंच की तलाश जारी है। बच्चों को कहानियां सुनाने, उनसे बातें करने, कुछ उनको सुनने और कुछ अपनी सुनाना पसंद है। पहाड़ के गांवों की अनकही कहानियां लोगों तक पहुंचाना चाहते हैं।  अपने मित्र मोहित उनियाल के साथ, बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से डेढ़ घंटे के निशुल्क स्कूल का संचालन कर रहे हैं। इसमें स्कूल जाने और नहीं जाने वाले बच्चे पढ़ते हैं। उत्तराखंड के बच्चों, खासकर दूरदराज के इलाकों में रहने वाले बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से ई पत्रिका का प्रकाशन करते हैं।  बाकी जिंदगी की जी खोलकर जीना चाहते हैं, ताकि बाद में ऐसा न लगे कि मैं तो जीया ही नहीं। शैक्षणिक योग्यता - बी.एससी (पीसीएम), पत्रकारिता स्नातक और एलएलबी, मुख्य कार्य- कन्टेंट राइटिंग, एडिटिंग और रिपोर्टिंग

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