काले तिल से आता है रूप में निखार
उत्तराखण्ड में तिल एक पारम्परिक फसल है, इसकी राज्य में व्यवसायिक खेती तो नहीं की जाती है लेकिन पारम्परिक घरेलू उपयोग के लिये स्थानीय काश्तकारों द्वारा मिश्रित खेती व एकल फसल के रूप में उगाया जाता है। पारम्परिक रुप से तिल उत्तराखण्ड में स्थानीय परम्परागत व्यजंनों – पकोड़े व चटनी तथा औषधि के रूप में उपयोग किया जाता है।
प्रदेश के पहाड़ी क्षेत्रों में व्यवसायिक उत्पादन न होने के कारण औषधीय उपयोग हेतु तिल से तेल का निर्माण भी पारम्परिक रूप से ही किया जाता रहा है। जबकि उत्तराखण्ड के तराई क्षेत्रों में यह व्यवसायिक रूप से उगाया जाता है साथ ही अन्य कई राज्यों व देशों में भी व्यवसायिक रूप से उत्पादन लिया जाता है। इसके अलावा तिल की खेती सम्पूर्ण एशिया तथा अफ्रीका में मुख्य रूप से की जाती है। तिल को दुनिया में विभिन्न नामों से जाना जाता है जैसे – हूमा (चाइनीज), सीसम (फ्रेंच), गोमा (जापानीज), एजोन्जोली (स्पेनिस), तिल (हिन्दी), तिमली (तेलगु), जुल्जुलिन (अफ्रीका) आदि। तिल का शाब्दिक अर्थ ही अपने आप में बहुत महत्वपूर्ण है, सम्भवतः ’तेल’ शब्द की उत्पत्ति ’तिल’ से ही हुई मानी जाती है। तिल मे लगभग 50 प्रतिशत तेल की मात्रा होती है तथा दुनिया में पहली बार तेल का उत्पादन तिल से ही किया गया था।
तिल का वैज्ञानिक नाम सीसमम इंडिकम जिसको सीसमम ओरिएन्टेल भी कहा जाता है तथा पेडालिएसी कुल से सम्बधित है। पूरी दुनिया में तिल का उत्पादन मुख्य रूप से बीज तथा तेल के लिए किया जाता है। पूरी दुनिया में लगभग 34 प्रजातियां पायी जाती है जिसमें से लगभग 8 प्रजातियां केवल भारत में पायी जाती है तथा 18 प्रजातिया दक्षिणी अफ्रीका, नाइजीरिया, सूडान तथा कांगो में पायी जाती है। वैसे तो तिल को छः रंगों में बताया गया है लेकिन प्रमुखतः से दो रंग काला तथा सफेद रूप में पाये जाते है। सफेद तिल खाने में खूब प्रयुक्त होता हैं जबकि काले तिल का प्रयोग सौन्दर्य प्रसाधन में होता है। काले तिल में तेल की मात्रा 50 प्रतिशत तथा सफेद में 48 प्रतिशत तक पाया जाती है।
प्राकृतिक रसायनों से भरपूर तिल को प्रोटीन तथा फेटी ऑयल का अच्छा स्रोत माना जाता है परन्तु इसके अलावा इसमें कई अन्य महत्वपूर्ण रसायन भी विभिन्न शोध पत्रो में वर्णित हैं, जैसे कि इसके बीज में प्रोटीन-18.3 ग्राम, वशा – 43.3 ग्राम, कार्बोहाइड्रेट 25 ग्राम, कैल्शियम 1450 मिग्रा0, फॉस्फोरस 570 मिग्रा, आयरन 9.3 मिग्रा प्रति 100 ग्राम में पाये गये है। साथ ही इसमें आर्जिनिन 750, हिस्टिडीन 170, लाइसीन-170, ट्रिप्टोफेन-80, फिनाइलानिन 370, टाइरोसिन 230, मेथियोनिन 180, सिस्टीन-120, थ्रियोनिन-230, ल्यूसीन-500 तथा वेलीन-290 मिग्रा0 प्रति ग्राम में बताये गये है। तिल में लगभग 50 से 60 प्रतिशत फेटी ऑयल के प्रमुख रासायनिक अवयव सीसमिन (163 मिग्रा0 प्रति 100 ग्राम) तथा सीसमोलिन (101 मिग्रा0 प्रति 100 ग्राम) बताये गये है जो कि शरीर में कॉलिस्ट्रोल लेवल कम करने तथा उच्च रक्तचाप को कम करने में सहायक होते हैं। इसमें दो अच्छे फीनोलिक एंटी ऑक्सीडेंट सीसमोल तथा सीसमिनोल पाये गये है जो कि इसे लम्बे समय तक सुरक्षित बनाये रखते हैं।
उपरोक्त सभी रासायनिक अवयवों के कारण तिल को विभिन्न उपयोग में लाया जाता है। तिल के उपयोग को आयुर्वेद में भी प्रमुखता से वर्णित किया गया है। परम्परागत रूप से तिल का उपयोग ब्लड डिसेन्ट्री, मेंस्ट्रुअल इरेगुलेरिटीस, माइग्रेन, उदर रोग तथा सीरियस बर्न स्किन डिजीज में किया जाता है। इसके अलावा यह अच्छा अल्ट्रा वायलेट लाइट, सूर्य रेडियेशन से सुरक्षित रखता है। वर्ष 2007 में ब्रिटिश जनरल ऑफ न्यूट्रिशन में प्रकाशित शोध के अनुसार सीसमिन सीरम और लीवर में लिपिड लेवल कम करने में प्रभावशाली है जबकि सीस्मोलिन लीवर में फैटी एसिड ऑक्शीडेशन को बढ़ाता है। जनरल ऑफ एग्रीकल्चर एण्ड फूड कैमेस्ट्री, 2001 में प्रकाशित शोध के अनुसार तिल में लिग्निन (0.63 प्रतिशत) की अच्छी मात्रा होने के कारण यह डायेट्री लिग्निन का अच्छा स्रोत है तथा लीवर के लिये लाभदायक होता है।
भारत, इथोपिया, चीन व म्यांमार दुनिया में तिल के सबसे बड़े निर्यातक देश है। भारत लगभग 62 देशों को तिल का निर्यात करता है जिसमें तुर्की, साउदी अरेबिया आदि प्रमुख है। दुनिया में एशिया तथा अफ्रीका में ही तिल का अच्छा उत्पादन किया जाता है। जनरल ऑफ बायोलोजिकल केमिस्ट्री, 1927 में प्रकाशित डॉ0 जॉन्स द्वारा एक शोध पत्र में बताया गया कि वर्ष 1927 में तिल का कुल ग्लोबल उत्पादन लगभग 700 हजार टन प्रतिवर्ष था। दुनिया के कुल उत्पादन का लगभग 70 प्रतिशत तिल का उत्पादन केवल एशिया तथा 26 प्रतिशत अफ्रीका करता है। 2010 में दुनिया का कुल तिल उत्पादन 3.84 मिलियन मीट्रिक टन था जो कि 7.8 मिलियन हैक्टेयर में था।
भारत में मुख्य रूप से गुजरात, पश्चिम बंगाल, कर्नाटक, राजस्थान, मध्य प्रदेश, तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश तथा उड़ीसा उत्पादन करते हैं। वर्ष 2005-06 के आंकड़ों के अनुसार उत्तराखण्ड में 1000 टन उत्पादन हुआ जबकि इसी वर्ष भारत में 6,41,000 टन उत्पादन हुआ था। दुनिया के सबसे बड़े विकसित देशों में आर्गेनिक तिल की वृहद मांग है जबकि उत्तराखण्ड राज्य जैविक उत्पादन के लिये प्रसिद्ध है जो कि भविष्य में तिल के अंतरराष्ट्रीय बाजार में अलग स्थान हासिल कर सकता है। एफएओ, 2013 के अनुसार पूरी दुनिया में लगभग 4.7 मिलिटन टन तिल का उत्पादन हुआ था। तिल के बीज तथा तेल दोनों का ही अच्छा उपयोग किया जाता है। बीज को बिस्कुट, बेकरी फूड्स एवं कंफेक्शनरी में प्रयोग किया जाता है जबकि तेल को खाद्य उद्योग में उपयोग किया जाता है।उत्तराखण्ड में परम्परागत रूप से उगने वाले तिल की वैज्ञानिक एवं व्यवसायिक महत्ता को देखते हुये यदि इसको मुख्य फसल के रूप में अपनाया जाय तो यह प्रदेश की आर्थिकी का बेहतर विकल्प बन सकता है।