वह धर्म बुनती है

वह धर्म बुनती है
जब मंद पड़ने लगता है
आसमान में तारों का शोर!
रह जाता है चाँद के साथ शुक्र तारा
वह रोज उठती है,
सूरज की आँखें खुलने से पहले।
चुनती है खंडित पाषाणों से
व्यवस्थाओं को
और बो देती है अपने आँगन में।

धर्म बुना गया है उसकी देह में
रात की लटों में उसे बरगला के
उधेड़ दिया जाता है।,
वो रोज उठ के
धर्म सिलती है,
ख्याल सुलगाती है
रात के लिए भूख पकाती है।
अचानक मुक्त हो जाती है
उन दिनों,
खंडित व्यवस्थाओं को सींचने से
धर्म को बुनने से,
कलम थामती है
खाली कागज में
शब्दों और विचारों का अभिसार कराती है
और दर्द के साथ जन्म होता है”एक नई कविता का”
पर वह कहता है-
तुम व्यवस्था पोषित करो
भूख पकाओ, लेकिन कविता मत रचो
क्योंकि स्त्री होकर देह पर कविता करना
धर्म पर सवाल करना है,
और स्त्रियां सवाल नहीं करती।
इन दिनों वह जब उठती है
देवदासियों की भटकती रूहों की चीखें सुनती है
घूँघट काढे लड़खड़ाती औरतें देखती है
पसीने से सनी काले अधकटे पंखों वाली सुन्दर सुन्दर चिड़ियों को देखती है,
जूतों की महक से सने पैरों को सूँघती है,
धब्बेदार कपड़ों पे मक्खियाँ भिन्नभिनाते देखती है,
पर अब कविता नहीं रचती
वो कवि नहीं है—-वो सिर्फ एक औरत है
जो रोज सवेरे उठते ही धर्म बुनती है!
-
सोनिया प्रदीप गौड़
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